श्रीकृष्ण को जगद्गुरु क्यों कहा जाता है ?

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

क्या द्वापर युग में कृष्ण के चरित्र का सही मूल्याकंन हो सका? क्या आने वाले युग में श्रीकृष्ण चरित्र को जानकर उन्हें उचित स्थान दिया गया ? केवल भक्ति रस से ‘कृष्ण-कृष्ण’ कहने से ही श्रीकृष्ण का स्वरुप पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाता है? कृष्ण केवल भक्ति ही नहीं, शक्ति, शौर्य, पराक्रम, नीति, ज्ञान, चेतना, सौन्दर्य, प्रेम, तत्वज्ञान, कर्मयोग के भी देवाधिदेव हैं जिन्हें भक्ति के साथ शाक्त रूप से आराधना कर प्राप्त किया जा सकता है, हृदय में उतारा जा सकता है, इसीलिए श्रीकृष्ण योगेश्वर’ है, ‘जगद्गुरु’ है..

कृष्ण के नाम से आज समस्त विश्व परिचित है, शायद ही कोई ऐसा व्यक्तित्व होगा जो कृष्ण से परिचित न हो। जन-मानस में जो कृष्ण की छवि है, वह उन्हें ईश्वर होने से अथवा उनमें ‘ईश्वरत्व’ होने से इन्कार भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि इन कलाओं का आरम्भ ही अपने आप में ईश्वर होने की पहचान है, फिर ये तो शोडश कला पूर्ण देव पुरुष हैं। यहाँ शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया है, क्योंकि दिव्य अवतारी पुरुष सदैव मृत्यु से परे होते हैं ये आज भी जन-मानस में जीवित है ही।

समय वे एक वीर पुरुष की तरह सामने आए महाभारत युद्ध के दौरान जिस प्रकार से कृष्ण युद्धनीति, रणनीति तथा कुशलता का प्रदर्शन किया, वह अपने आप में आश्चर्यजनक ही था। कथा’ तथा ‘रासलीला’ जैसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है और इन कार्यक्रमों के अन्तर्गत कृष्ण के जीवन पर तथा उनके कार्यों पर प्रकाश डाला जाता है। किन्तु सत्य को न स्वीकार करने की तो जैसे परम्परा ही बन गई है।

इसीलिए तो आज तक यह विश्व किसी ‘महापुरुष’ अथवा ‘देव पुरुष’ का सही ढंग से आंकलन ही नहीं कर पाया। जो समाज उनकी उपस्थिति के समय उन्हें कितना जान पाया होगा, इसकी तो कल्पना ही की जा सकती है। सुदामा जीवनपर्यन्त नहीं समझ पाये कि जिन्हें वे केवल मित्र ही समझते थे, वे कृष्ण एक दिव्य विभूति है, और उनके माता-पिता भी हमेशा उन्हें अपने पुत्र की ही दृष्टि से देखते रहे तथा दुर्योधन ने उन्हें हमेशा अपना में प्रहारात्मक है और अधर्म का नाश करने वाला है। शत्रु ही समझा। इसमें कृष्ण का दोष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कृष्ण ने तो अपना सम्पूर्ण जीवन पूर्णता के साथ ही जीया, कहीं वे ‘माखन चोर’ के रूप में प्रसिद्ध हुए तो कहीं ‘प्रेम’ शब्द को सही रूप में प्रस्तुत करते हुए दिखाई दिए। कृष्ण के जीवन में राजनीति, संगीत जैसे विषय भी पूर्णरुप से समाहित थे और जब उन्होंने अपने जीवन में अध्यात्म को उतारा, वो उतारते ही चले गए और शोडश कला पूर्ण होकर ‘पुरुषोत्तम’ कहलाए जहां उन्होंने प्रेम, त्याग और अद्धा जैसे दुरुत विषयों को समाज के सामने रखा, यहीं जब समाज में झूठ, असत्य, व्यभिचार और पाखंड का बोलबाला बढ़ गया, तो उस

भिन्न-भिन्न स्थानों पर आज भी ‘कृष्णलीला’, ‘श्रीमद्भागवत् कुरुक्षेत्र युद्ध के मैदान में जो ज्ञान कृष्ण ने प्रदान किया, वह अत्यन्त ही विशिष्ट तथा समाज की कुरीतियों पर कड़ा प्रहार करने वाला है। उन्होंने अर्जुन का मोह भंग करते हुए कहा- अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रायादभाषते। अर्जुन को

गतासूनगताश्च नानुशोचन्ति पण्डितः ।।

‘हे अर्जुन! तू कभी न शोक करने वाले व्यक्तियों के लिए शोक करता है, और अपने आप को विद्वान भी कहता है, परन्तु जो विद्वान् होते हैं, ये जो जीवित है उनके लिए और जो जीवित नहीं हैं उनके लिए भी, शौक नहीं करते। इस प्रकार जो ज्ञान कृष्ण ने अर्जुन को दिया, वह अपने आप

कृष्ण ने अपने जीवनकाल में शुद्धता, पवित्रता एवं सत्यता पर ही अधिक बल दिया, अधर्म, व्यभिचार, असत्य के मार्ग पर चलने वाले प्रत्येक जीवन को उन्होंने वध करने योग्य ठहराया, फिर वह चाहे परिवार का सदस्य ही क्यों न हो, और सम्पूर्ण महाभारत एक प्रकार से पारिवारिक बुद्ध ही तो था। कृष्ण स्वयं अपने मामा कंस का वध कर अपने नाना की कारागार से मुक्त करवाकर उन्हें पुनः मथुरा का राज्य प्रदान किया, और जब य

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