हिमशिखर धर्म डेस्क
महात्मा ऋष्यश्रृंग बड़े मेधावी और वेदों के ज्ञाता थे। उन्होंने थोड़ी देर तक ध्यान लगाकर अपने भावी कर्तव्यका निश्चय किया। फिर ध्यान से विरत हो वे राजा से इस प्रकार बोले। ऋष्यश्रृंग ने कहा–‘महाराज! मैं आपको पुत्र की प्राप्ति कराने के लिये अथर्ववेद के मन्त्रों से पुत्रेष्टि नामक यज्ञ करूँगा। वेदोक्त विधि के अनुसार अनुष्ठान करने पर वह यज्ञ अवश्य सफल होगा।’
यह कहकर उन तेजस्वी ऋषि ने पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से पुत्रेष्टि नामक यज्ञ प्रारम्भ किया और श्रौतविधि के अनुसार अग्नि में आहुति डाली। तब देवता, सिद्ध, गन्धर्व और महर्षिगण विधि के अनुसार अपना-अपना भाग ग्रहण करने के लिये उस यज्ञ में एकत्र हुए। उस यज्ञ में उस यज्ञ-सभा में क्रमश: एकत्र होकर (दूसरों की दृष्टि से अदृश्य रहते हुए) सब देवता लोककर्ता ब्रह्माजी से इस प्रकार बोले।
देवता बोले–‘भगवन्! रावण नामक राक्षस आपका कृपा प्रसाद पाकर अपने बल से हम सब लोगों को बड़ा कष्ट दे रहा है। हममें इतनी शक्ति नहीं है कि अपने पराक्रम से उसको दबा सकें। प्रभो! आपने प्रसन्न होकर उसे वर दे दिया है। तबसे हम लोग उस वर का सदा समादर करते हुए उसके सारे अपराधों को सहते चले आ रहे हैं। उसने तीनों लोकों के प्राणियों का नाकोंदम कर रखा है। वह दुष्टात्मा जिनको कुछ ऊँची स्थिति में देखता है, उन्हीं के साथ द्वेष करने लगता है। देवराज इन्द्र को परास्त करने की अभिलाषा रखता है। आपके वरदान से मोहित होकर वह इतना उद्दण्ड हो गया है कि ऋषियों, यक्षों, गन्धर्वों, असुरों तथा ब्राह्मणों को पीड़ा देता और उनका अपमान करता फिरता है।
सूर्य उसको ताप नहीं पहुँचा सकते। वायु उसके पास जोर से नहीं चलती तथा जिसकी उत्ताल तरंगें सदा ऊपर-नीचे होती रहती हैं, वह समुद्र भी रावण को देखकर भय के मारे स्तब्ध-सा हो जाता है उसमें कम्पन नहीं होता। वह राक्षस देखने में भी बड़ा भयंकर है। उससे हमें महान् भय प्राप्त हो रहा है; अतः भगवन्! उसके वध के लिये आपको कोई-न-कोई उपाय अवश्य करना चाहिये।’
समस्त देवताओं के ऐसा कहने पर ब्रह्माजी कुछ सोचकर बोले–‘देवताओ! लो, उस दुरात्मा के वध का उपाय मेरी समझ में आ गया। उसने वर माँगते समय यह बात कही थी कि मैं गन्धर्व, यक्ष, देवता तथा राक्षसों के हाथ से न मारा जाऊँ। मैंने भी ‘तथास्तु’ कहकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। मनुष्यों को तो वह तुच्छ समझता था, इसलिये उनके प्रति अवहेलना होने के कारण उनसे अवध्य होने का वरदान नहीं माँगा। इसलिये अब मनुष्य के हाथ से ही उसका वध होगा। मनुष्य के सिवा दूसरा कोई उसकी मृत्यु का कारण नहीं है।’
ब्रह्माजी की कही हुई यह प्रिय बात सुनकर उस समय समस्त देवता और महर्षि बड़े प्रसन्न हुए। इसी समय महान् तेजस्वी जगत्पति भगवान् विष्णु भी मेघ के ऊपर स्थित हुए सूर्य की भाँति गरुड़ पर सवार हो वहाँ आ पहुँचे। उनके शरीर पर पीताम्बर और हाथों में शंख, चक्र एवं गदा आदि आयुध शोभा पा रहे थे। उनकी दोनों भुजाओं में तपाये हुए सुवर्ण के बने केयूर प्रकाशित हो रहे थे। उस समय सम्पूर्ण देवताओं ने उनकी वन्दना की और वे ब्रह्माजी से मिलकर सावधानी के साथ सभा में विराजमान हो गये।
तब समस्त देवताओं ने विनीत भाव से उनकी स्तुति करके कहा–‘सर्वव्यापी परमेश्वर ! हम तीनों लोकों के हित की कामना से आपके ऊपर एक महान् कार्य का भार दे रहे हैं।
प्रभो! अयोध्या के राजा दशरथ धर्मज्ञ, उदार तथा महर्षियों के समान तेजस्वी हैं। उनके तीन रानियाँ हैं जो ह्री, श्री और कीर्ति–इन तीन देवियों के समान हैं। विष्णुदेव! आप अपने चार स्वरूप बनाकर राजा की उन तीनों रानियों के गर्भ से पुत्ररूप में अवतार ग्रहण कीजिये। इस प्रकार मनुष्य रूप में प्रकट होकर आप संसार के लिये प्रबल कण्टकरूप रावण को, जो देवताओं के लिये अवध्य है, समरभूमि में मार डालिये।
वह मूर्ख राक्षस रावण अपने बढ़े हुए पराक्रम से देवता, गन्धर्व, सिद्ध तथा श्रेष्ठ महर्षियों को बहुत कष्ट दे रहा है। उस रौद्र निशाचर ने ऋषियों को तथा नन्दनवन में क्रीड़ा करने वाले गन्धवों और अप्सराओं को भी स्वर्ग से भूमि पर गिरा दिया है। इसलिये मुनियों सहित हम सब सिद्ध, गन्धर्व, यक्ष तथा देवता उसके वध के लिये आपकी शरण में आये हैं। शत्रुओं को सन्ताप देने वाले देव! आप ही हम सब लोगों की परमगति हैं, अत: इन देवद्रोहियों का वध करने के लिये आप मनुष्यलोक में अवतार लेने का निश्चय कीजिये।’
उनके इस प्रकार स्तुति करने पर सर्वलोक- वन्दित देवप्रवर देवाधिदेव भगवान् विष्णु ने वहाँ एकत्र हुए उन समस्त ब्रह्मा आदि धर्म परायण देवताओं से कहा।
भगवान् विष्णु बोले–‘देवगण! तुम्हारा कल्याण हो। तुम भय को त्याग दो। मैं तुम्हारा हित करने के लिये रावण को पुत्र, पौत्र, अमात्य, मन्त्री और बन्धु-बान्धवों सहित युद्ध में मार डालूँगा। देवताओं तथा ऋषियों को भय देने वाले उस क्रूर एवं दुर्धर्ष राक्षस का नाश करके मैं ग्यारह हजार वर्षों तक इस पृथ्वी का पालन करता हुआ मनुष्यलोक में निवास करूँगा।’
देवताओं को ऐसा वर देकर मनस्वी भगवान् विष्णु ने मनुष्यलोक में पहले अपनी जन्मभूमि के सम्बन्ध में विचार किया। इसके बाद कमलनयन श्रीहरि ने अपने को चार स्वरूपों में प्रकट करके राजा दशरथ को पिता बनाने का निश्चय किया। तब देवता, ऋषि, गन्धर्व, रुद्र तथा अप्सराओं ने दिव्य स्तुतियों के द्वारा भगवान् मधुसूदन का स्तवन किया।
वे कहने लगे–‘प्रभो! रावण बड़ा उद्दण्ड है। उसका तेज अत्यन्त उग्र और घमण्ड बहुत बढ़ा-चढ़ा है। वह देवराज इन्द्र से सदा द्वेष रखता है। तीनों लोकों को रुलाता है, साधुओं और तपस्वी जनों के लिये तो वह बहुत बड़ा कण्टक है; अत: तापसों को भय देने वाले उस भयानक राक्षस की आप जड़ उखाड़ डालिये।
उपेन्द्र! सारे जगत् को रुलाने वाले उस उग्र पराक्रमी रावण को सेना और बन्धु बान्धवों सहित नष्ट करके अपनी स्वाभाविक निश्चिन्तता के साथ अपने ही द्वारा सुरक्षित उस चिरन्तन वैकुण्ठधाम में आ जाइये; जिसे राग-द्वेष आदि दोषों का कलुष कभी छू नहीं पाता है।’
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदि काव्य के बालकाण्ड में पन्द्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१५॥