सुप्रभातम्: महान चमत्कारिक थे गुरु गोरखनाथ

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand
म एक चंचल दुनिया का हिस्सा हैं। एक दुनिया, जो हमें सरपट भगाती रहती है। इसमें बैठने की फुर्सत कम है। बैठकर कुछ गुनने का वक्त और मौके उससे भी कम। उपनिषद, जिसके बारे में आगे चर्चा की गई है, उसका अर्थ ही है पास बैठना।पुराने जमाने में गुरु के पास बैठने से ज्ञान मिलता था।

उपनिषद ज्ञान की कभी न खत्म होनेवाली धारा है। भगवद्गीता के उपदेश उपनिषदों की ही देन माने जाते हैं। यूं ही नहीं उपनिषदों के बारे में जर्मन दार्शनिक शोपेनहॉवर ने कहा था कि संसार में ऐसी कोई किताब नहीं, जिसमें इंसानी जिंदगी का स्तर ऊपर उठा ले जाने की इतनी कुव्वत हो।

…तो तुम्हारा सब हो जाएगा
महात्मा गांधी उपनिषद के मुरीद थे। ईशावास्योपनिषद, जो 112 ज्ञात उपनिषदों में पहला माना जाता है, उससे गांधीजी का खास लगाव था। बापू उसके पहले श्लोक पर फिदा थे। उसके लिए वह यहां तक कह गए कि हिंदू धर्म की सारी किताबें नष्ट हो जाएं, लेकिन यह श्लोक बचा रहे, तो भी धर्म बच जाएगा। आगे बढ़ने से पहले, हमें उस श्लोक को एक नजर पढ़ लेना चाहिए। वह यूं है :
ईशावास्यमिदम् सर्वं यत् किंच जगत्यां जगत्
तेन त्यक्तेन भुंजीथा:, मा गृध: कस्य स्विद् धनम्

इसका अर्थ हम आपको गांधीजी के नक्शेकदम पर चलनेवाले आचार्य विनोबा भावे के शब्दों में बताते हैं : ‘दुनिया में जो भी जीवन है, सब ईश्वर से भरा हुआ है। कोई चीज ईश्वर से खाली नहीं है। …यहां मेरा कुछ भी नहीं, सब ईश्वर का है, ऐसी भावना रखनी चाहिए। जो इस तरह रहेगा यानी कोई भी चीज अपनी नहीं मानेगा, तो उसका सब हो जाएगा। उसे सब मिल जाएगा।’

ईशावास्योपनिषद का यह श्लोक हमें दुनिया का भोग करने को तो कहता है, लेकिन उसे अपनी मानकर नहीं। अकबर इलाहाबादी के लफ्जों में कहें, तो ‘दुनिया में हूं, दुनिया का तलबगार नहीं हूं’ के अंदाज में जीने की बात।

ईशावास्योपनिषद का नाम इसके पहले श्लोक के प्रथम अक्षर से लिया गया है। इसमें महज 18 श्लोक हैं। गीता में 18 अध्याय। लेकिन काया में छोटी होने के बावजूद यह उपनिषद मनन के लिए मूल्यवान माना जाता है।

नरक के लिए मरना नहीं होता
ईशावास्योपनिषद की शुरुआत शांति की कामना से होती है। शायद इसीलिए यह शांतिदूत महात्मा गांधी को प्रिय है। हम सबकी जिंदगी अपने-अपने ढंग से उथल-पुथल से भरी हुई है। उसमें शांति कहां से आए? यह उपनिषद उसका जवाब एक शब्द में देता है। वह शब्द है, त्याग।

विनोबा भावे ने इसकी बहुत सुंदर व्याख्या की है। वह कहते हैं, ‘प्राय: हम देखते हैं कि मनुष्य दूसरे के धन की अभिलाषा करता है। यह क्यों? इसलिए कि वह आलस्य में जीना चाहता है।’उपनिषद का दूसरा श्लोक इसे और विस्तार देता है। ‘बिना कर्म के जीवन की इच्छा रखना जीवन के साथ बेईमानी है।…जब हम कर्म को टालते हैं, तो जीवन भार बन जाता है। जाने-अनजाने हम सब यह कर रहे हैं। इसी से हम दुख भोग रहे हैं।’

तीसरे श्लोक में कहा गया है कि बगैर कर्म किए बेहतर जीवन की कामना करना अपने जीवन को नरक बनाना है। यानी नरक क्या है, इसे जानने के लिए मृत्यु का इंतजार नहीं करना पड़ता। इंसान को उसके कर्म जीतेजी इसके दर्शन करा देते हैं।

बहुत सारी दीवारें गिरानी हैं
आगे के श्लोकों में ईश्वर की सत्ता, शक्ति और ईश भक्ति के महत्व के बखान के बीच कुछ महीन सीख दी गई है। इसे आचार्य के शब्दों में ही सुनिए, ‘भक्ति से अपने और पराये का भेद मिट जाता है। मनुष्य ने अपने बीच हजारों दीवारें खड़ी कर रखी हैं। राष्ट्र, समाज और कुटुंब में लड़ाई-झगड़े इसी से पैदा हुए हैं। जो ईश्वर की भक्ति करनेवाला है, वह इस भेद को मिटाने में दिन-रात लगा रहता है।’ इस सीख को हम आज के आईने में देख सकते हैं। खास तौर पर तब, जब इंसान को इंसान से लड़ाने की कोशिशें रह-रहकर हमारे समरस समाज में सिर उठाती हैं।

नवें श्लोक में बुद्धि और ज्ञान के बारे में जरूरी बातें कही गई हैं। बुद्धि हमारा चप्पू है, जिससे हम जीवन की नैया खेते हैं। लेकिन ज्ञान ? ज्ञान अपार है। उसका ओर-छोर नहीं। कई लोग पुस्तकें पढ़कर ज्ञानी होने का अभिमान पाल लेते हैं। लेकिन जैसे ज्ञान का महत्व है, अज्ञान का भी है। ईशावास्योपनिषद इस बारे में हमारी आखें खोलता है, ‘विद्या भी चाहिए और अविद्या भी। यानी जो ज्ञान जरूरी नहीं, उससे जीवन बरबाद ही होगा। बुद्धि पर बेकार का बोझ पड़ेगा। अगर गफलत से अनावश्यक ज्ञान हो जाए, तो उसे कोशिश करके भुला देना चाहिए।’

इस तरह बदलेगी जिंदगी
बुद्धि और ज्ञान से गुण आते हैं। गुणों का ताल्लुक हमारे दिल से है। अच्छे और बुरे दोनों गुण हमारे बर्ताव में झलकते हैं। आगे के तीन श्लोक हमें इस बारे में आगाह करते हैं कि हमें अपने दिल में नए दोष न आएं, इसका जतन करना चाहिए। जो दोष हैं, जिनके बारे में हमें खुद या दूसरों से पता चलता रहता है, उन्हें खत्म करने की कोशिश करनी चाहिए।

ऐसा करने से हमारी निजी और कामकाजी जिंदगी बदल सकती है। हमें ऐसे कामों पर ध्यान देना चाहिए, जिनसे हमारे गुण बढ़ें। आचार्य विनोबा की टीका है, ‘बाहरी तौर पर हमें किसी काम से खूब कामयाबी मिले। लोग हमारी जय-जयकार करें, फिर भी अगर उससे हमारे गुण न बढ़ें, तो वह काम बुरा है।’

कई काम अच्छा है या बुरा, इसके लिए जरूरी है कि हम सच को जानें। ईशावास्योपनिषद कहता है कि सच छिपा हुआ है। उसके ऊपर सोने जैसे आभूषण का पर्दा पड़ा है। हमें सच जानने के लिए इस पर्दे को हटाना होगा। हर वह शख्स, जो सोने के मोह में न पड़कर सत्य जानने की कोशिश करता है, उसके सामने सच और झूठ, अच्छे और बुरे का भेद खुलता चला जाता है।

सारे भेद हैं बाहरी
सोलहवें श्लोक में सोने के इस आवरण की तुलना इंसानी देह से की गई है। बताया गया है कि, ‘मुझ पर यह देह एक आवरण है। यह सोने का पात्र भर है। इसके भीतर मैं छिपा हूं। इस आवरण को अगर हम भेद सकें, तो उस ‘मैं’ का दर्शन होता है। ईश्वर जिस प्रकार पूर्ण है, सुंदर है, मैं भी उसी प्रकार हूं- हो सकता हूं।’

उपनिषद आगे बताता है कि हमारे बीच सारे ‘भेद बाहरी हैं। देह के साथ हैं। …काला, गोरा, पतला, मोटा, मूर्ख-चतुर आदि सभी भेद ऊपरी हैं। इन्हें हमें भूल जाना है। ऋषि कहते हैं कि जो इस तरह जीवन जीता है, उसका देह जब गिर जाता है, तो उसकी मिट्टी मिट्टी में मिल जाती है और आत्मा परमात्मा में मिल जाती है।’

ईशावास्योपनिषद का आखिरी श्लोक ईश्वर से आशीष की मांग है। विनोबा के शब्दों में, ‘हे प्रभु! जब तक हममें चेतना है, गरमी है, हमें सीधी राह पर रख। …अपने कर्म, वचन और मन से अंदर-बाहर हम सरल हो जाएं। ऐसे सरल जीवन के लिए हमें बल दे।’

आवाज़ : अक्षय शुक्ला

भगवद गीता इन हिंदी

 

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