श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण: राजा दशरथ ने स्वस्तिवाचन पूर्वक राम-लक्ष्मण को मुनि के साथ भेजा, विश्वामित्र से बला और अतिबला विद्या की प्राप्ति

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

आज की कथा में:–राजा दशरथ का स्वस्तिवाचन पूर्वक राम-लक्ष्मण को मुनि के साथ भेजना, मार्ग में उन्हें विश्वामित्र से बला और अतिबला नामक विद्या की प्राप्ति

वसिष्ठ के ऐसा कहने पर राजा दशरथ का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। उन्होंने स्वयं ही लक्ष्मण सहित श्रीराम को अपने पास बुलाया। फिर माता कौसल्या, पिता दशरथ और पुरोहित वसिष्ठ ने स्वस्तिवाचन करने के पश्चात् उनका यात्रा सम्बन्धी मंगलकार्य सम्पन्न किया–श्रीराम को मंगल सूचक मन्त्रों से अभिमन्त्रित किया गया। तदनन्तर राजा दशरथ ने पुत्र का मस्तक सूँघकर अत्यन्त प्रसन्नचित्त से विश्वामित्र को सौंप दिया।

उस समय धूल रहित सुखदायिनी वायु चलने लगी। कमलनयन श्रीराम को विश्वामित्रजी के साथ जाते देख देवताओं ने आकाश से वहाँ फूलों की बड़ी भारी वर्षा की। देवदुन्दुभियाँ बजने लगीं। श्रीराम की यात्रा के समय शंखों और नगाड़ों की ध्वनि होने लगी।
आगे-आगे विश्वामित्र, उनके पीछे काकपक्षधारी महायशस्वी श्रीराम तथा उनके पीछे सुमित्राकुमार लक्ष्मण जा रहे थे। उन दोनों भाइयों ने पीठ पर तरकस बाँध रखे थे। उनके हाथों में धनुष शोभा पा रहे थे तथा वे दोनों दसों दिशाओं को सुशोभित करते हुए महात्मा विश्वामित्र के पीछे तीन-तीन फनवाले दो सर्पों के समान चल रहे थे।

एक ओर कन्धे पर धनुष, दूसरी ओर पीठ पर तूणीर और बीच में मस्तक–इन्हीं तीनों की तीन फन से उपमा दी गयी है। उनका स्वभाव उच्च एवं उदार था। अपनी अनुपम कान्ति से प्रकाशित होने वाले वे दोनों अनिन्द्य राजकुमार सब ओर शोभा का प्रसार करते हुए विश्वामित्रजी के पीछे उसी तरह जा रहे थे, जैसे ब्रह्माजी के पीछे दोनों अश्विनीकुमार चलते हैं।

वे दोनों भाई कुमार श्रीराम और लक्ष्मण वस्त्र और आभूषणों से अच्छी तरह अलंकृत थे। उनके हाथों में धनुष थे। उन्होंने अपने हाथों की अंगुलियों में गोहटी के चमड़े के बने हुए दस्ताने पहन रखे थे। उनके कटिप्रदेश में तलवारें लटक रही थीं। उनके श्रीअंग बड़े मनोहर थे। वे महातेजस्वी श्रेष्ठ वीर अद्भुत कान्ति से उद्भासित हो सब ओर अपनी शोभा फैलाते हुए कुशिकपुत्र विश्वामित्र का अनुसरण कर रहे थे। उस समय वे दोनों वीर अचिन्त्य शक्तिशाली स्थाणुदेव (महादेव) के पीछे चलने वाले दो अग्निकुमार स्कन्द और विशाख की भाँति शोभा पाते थे।

अयोध्या से डेढ़ योजन दूर जाकर सरयू के दक्षिण तट पर विश्वामित्र ने मधुर वाणी में रामको सम्बोधित किया और कहा–‘वत्स राम! अब सरयू के जल से आचमन करो। इस आवश्यक कार्य में विलम्ब न हो। ‘बला और अतिबला’ नाम से प्रसिद्ध इस मन्त्र समुदाय को ग्रहण करो। इसके प्रभाव से तुम्हें कभी श्रम (थकावट) का अनुभव नहीं होगा। ज्वर (रोग या चिन्ताजनित कष्ट) नहीं होगा। तुम्हारे रूप में किसी प्रकार का विकार या उलट-फेर नहीं होने पायेगा। सोते समय अथवा असावधानी की अवस्था में भी राक्षस तुम्हारे ऊपर आक्रमण नहीं कर सकेंगे। इस भूतल पर बाहुबल में तुम्हारी समानता करने वाला कोई न होगा।

तात! रघुकुलनन्दन राम! बला और अतिबला का अभ्यास करने से तीनों लोकों में तुम्हारे समान कोई नहीं रह जायगा। अनघ! सौभाग्य, चातुर्य, ज्ञान और बुद्धिसम्बन्धी निश्चय में तथा किसी के प्रश्न का उत्तर देने में भी कोई तुम्हारी तुलना नहीं कर सकेगा। इन दोनों विद्याओं के प्राप्त हो जाने पर कोई तुम्हारी समानता नहीं कर सकेगा; क्योंकि ये बला और अतिबला नामक विद्याएँ सब प्रकार के ज्ञान की जननी हैं।

नरश्रेष्ठ श्रीराम ! तात रघुनन्दन ! बला और अतिबला का अभ्यास कर लेने पर तुम्हें भूख-प्यास का भी कष्ट नहीं होगा; अत: रघुकुल को आनन्दित करने वाले राम! तुम सम्पूर्ण जगत् की रक्षा के लिये इन दोनों विद्याओं को ग्रहण करो। इन दोनों विद्याओं का अध्ययन कर लेने पर इस भूतल पर तुम्हारे यश का विस्तार होगा। ये दोनों विद्याएँ ब्रह्माजी की तेजस्विनी पुत्रियाँ हैं।

ककुत्स्थनन्दन! मैंने इन दोनों को तुम्हें देने का विचार किया है। राजकुमार! तुम्हीं इनके योग्य पात्र हो। यद्यपि तुममें इस विद्या को प्राप्त करने योग्य बहुत-से गुण हैं अथवा सभी उत्तम गुण विद्यमान हैं, इसमें संशय नहीं है, तथापि मैंने तपोबल से इनका अर्जन किया है। अत: मेरी तपस्या से परिपूर्ण होकर ये तुम्हारे लिये बहुरूपिणी होंगी–अनेक प्रकार के फल प्रदान करेंगी।’

तब श्रीराम आचमन करके पवित्र हो गये। उनका मुख प्रसन्नता से खिल उठा। उन्होंने उन शुद्ध अन्त:करण वाले महर्षि से वे दोनों विद्याएँ ग्रहण कीं। विद्या से सम्पन्न होकर भयंकर पराक्रमी श्रीराम सहस्रों किरणों से युक्त शरत्-कालीन भगवान् सूर्य के समान शोभा पाने लगे।

तत्पश्चात् श्रीराम ने विश्वामित्रजी की सारी गुरुजनोचित सेवाएँ करके हर्ष का अनुभव किया। फिर वे तीनों वहाँ सरयू के तट पर रात में सुख पूर्वक रहे।

राजा दशरथ वे दोनों श्रेष्ठ राजकुमार उस समय वहाँ तृण की शय्या पर, जो उनके योग्य नहीं थी, सोये थे। महर्षि विश्वामित्र अपनी वाणी द्वारा उन दोनों के प्रति लाड़-प्यार प्रकट कर रहे थे। इससे उन्हें वह रात बड़ी सुखमयी-सी प्रतीत हुई।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदि काव्य के बालकाण्ड में बाईसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२२॥

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