श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण: विश्वामित्र सहित श्रीराम और लक्ष्मण का सरयू-गंगा संगम के समीप पुण्य आश्रम में ठहरना

कल की कथा में हमने पढ़ा था कि राजा दशरथ ने स्वस्तिवाचन पूर्वक श्रीराम-लक्ष्मण को मुनि के साथ भेजा, मार्ग में उन्हें विश्वामित्र से बला और अतिबला नामक विद्या की प्राप्ति हुई।

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हिमशिखर धर्म डेस्क

आज की कथा में- जब रात बीती और प्रभात हुआ, तब महामुनि विश्वामित्र ने तिनकों और पत्तों के बिछौने पर सोये हुए उन दोनों ककुत्स्थवंशी राजकुमारों से कहा–विश्वामित्र बोले–‘नरश्रेष्ठ राम! तुम्हारे जैसे पुत्र को पाकर महारानी कौसल्या सुपुत्रजननी कही जाती हैं। यह देखो, प्रातःकाल की सन्ध्या का समय हो रहा है; उठो और प्रतिदिन किये जाने वाले देवसम्बन्धी कार्यों को पूर्ण करो।’

महर्षि का यह परम उदार वचन सुनकर उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरों ने स्नान करके देवताओं का तर्पण किया और फिर वे परम उत्तम जपनीय मन्त्र गायत्री का जप करने लगे। नित्यकर्म समाप्त करके महापराक्रमी श्रीराम और लक्ष्मण अत्यन्त प्रसन्न हो तपोधन विश्वामित्र को प्रणाम करके वहाँ से आगे जाने को उद्यत हो गये।जाते-जाते उन महाबली राजकुमारों ने गंगा और सरयू के शुभ संगम पर पहुँचकर वहाँ दिव्य त्रिपथगा नदी गंगाजी का दर्शन किया। संगम के पास ही शुद्ध अन्तःकरण वाले महर्षियों का एक पवित्र आश्रम था, जहाँ वे कई हजार वर्षों से तीव्र तपस्या करते थे। उस पवित्र आश्रम को देखकर रघुकुलरत्न श्रीराम और लक्ष्मण बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने महात्मा विश्वामित्र से यह बात कही।

राम-लक्ष्मण बोले–‘भगवन्! यह किसका पवित्र आश्रम है ? और इसमें कौन पुरुष निवास करता है ? यह हम दोनों सुनना चाहते हैं। इसके लिये हमारे मन में बड़ी उत्कण्ठा है।’ उन दोनों का यह वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र हँसते हुए बोले–‘राम! यह आश्रम पहले जिसके अधिकार में रहा है, उसका परिचय देता हूँ, सुनो–विद्वान् पुरुष जिसे काम कहते हैं, वह कन्दर्प पूर्वकाल में मूर्तिमान् था–शरीर धारण करके विचरता था। उन दिनों भगवान् स्थाणु (शिव) इसी आश्रम में चित्त को एकाग्र करके नियम पूर्वक तपस्या करते थे।

एक दिन समाधि से उठकर देवेश्वर शिव मरुद्गणों के साथ कहीं जा रहे थे। उसी समय दुर्बुद्धि काम ने उन पर आक्रमण किया। यह देख महात्मा शिव ने हुंकार करके उसे रोका। रघुनन्दन! भगवान् रुद्र ने रोषभरी दृष्टि से अवहेलना पूर्वक उसकी ओर देखा; फिर तो उस दुर्बुद्धि के सारे अंग उसके शरीर से जीर्ण-शीर्ण होकर गिर गये। वहाँ दग्ध हुए महामना कन्दर्प का शरीर नष्ट हो गया। देवेश्वर रुद्र ने अपने क्रोध से काम को अंगहीन कर दिया।

राम! तभी से वह ‘अनंग’ नाम से विख्यात हुआ। शोभाशाली कन्दर्प ने जहाँ अपना अंग छोड़ा था, वह प्रदेश अङ्गदेश के नाम से विख्यात हुआ। यह उन्हीं महादेवजी का पुण्य आश्रम है। वीर! ये मुनि लोग पूर्वकाल में उन्हीं स्थाणु के धर्म परायण शिष्य थे। इनका सारा पाप नष्ट हो गया है।

शुभदर्शन राम ! आज की रात में हम लोग यहीं इन पुण्यसलिला सरिताओं के बीच में निवास करें। कल सबेरे इन्हें पार करेंगे। हम सब लोग पवित्र होकर इस पुण्य आश्रम में चलें। यहाँ रहना हमारे लिये बहुत उत्तम होगा। नरश्रेष्ठ! यहाँ स्नान करके जप और हवन करने के बाद हम रात में बड़े सुख से रहेंगे।’

वे लोग वहाँ इस प्रकार आपस में बातचीत कर ही रहे थे कि उस आश्रम में निवास करने वाले मुनि तपस्या द्वारा प्राप्त हुई दूर दृष्टि से उनका आगमन जानकर मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उनके हृदय में हर्षजनित उल्लास छा गया। उन्होंने विश्वामित्रजी को अर्घ्य, पाद्य और अतिथि सत्कार की सामग्री अर्पित करने के बाद श्रीराम और लक्ष्मण का भी आतिथ्य किया।

यथोचित सत्कार करके उन मुनियों ने इन अतिथियों का भाँति-भाँति की कथा-वार्ताओं द्वारा मनोरञ्जन किया। फिर उन महर्षियों ने एकाग्रचित्त होकर यथावत् सन्ध्यावन्दन एवं जप किया। तदनन्तर वहाँ रहने वाले मुनियों ने अन्य उत्तम व्रतधारी मुनियों के साथ विश्वामित्र आदि को शयन के लिये उपयुक्त स्थान में पहुँचा दिया। सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति करने वाले उस पुण्य आश्रम में उन विश्वामित्र आदि ने बड़े सुख से निवास किया।

धर्मात्मा मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र ने उन मनोहर राजकुमारों का सुन्दर कथाओं द्वारा मनोरञ्जन किया। इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदि काव्य के बालकाण्ड में तेईसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२३॥

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