श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण: श्रीराम के पूछने पर विश्वामित्रजी ने गंगाजी की उत्पत्ति की कथा सुनाई

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

आज की कथा में:–शोणभद्र पार करके विश्वामित्र आदि का गंगाजी के तट पर पहुँचकर वहाँ रात्रिवास करना तथा श्रीराम के पूछने पर विश्वामित्रजी का उन्हें गंगाजी की उत्पत्ति की कथा सुनाना

महर्षियों सहित विश्वामित्र ने रात्रि के शेषभाग में शोणभद्र के तट पर शयन किया। जब रात बीती और प्रभात हुआ, तब वे श्रीरामचन्द्रजी से इस प्रकार बोले–‘श्रीराम ! रात बीत गयी। सबेरा हो गया। तुम्हारा कल्याण हो, उठो, उठो और चलने की तैयारी करो।’

मुनि की बात सुनकर पूर्वाह्नकाल का नित्यनियम पूर्ण करके श्रीराम चलने को तैयार हो गये और इस प्रकार बोले–‘ब्रह्मन्! शुभ जल से परिपूर्ण तथा अपने तटों से सुशोभित होने वाला यह शोणभद्र तो अथाह जान पड़ता है। हम लोग किस मार्ग से चलकर इसे पार करेंगे ?’

श्रीराम के ऐसा कहने पर विश्वामित्र बोले–‘जिस मार्ग से महर्षिगण शोणभद्र को पार करते हैं, उसका मैंने पहले से ही निश्चय कर रखा है, वह मार्ग यह है।’ बुद्धिमान् विश्वामित्र के ऐसा कहने पर वे महर्षि नाना प्रकार के वनों की शोभा देखते हुए वहाँ से प्रस्थित हुए। बहुत दूर का मार्ग तै कर लेने पर दोपहर होते-होते उन सब लोगों ने मुनिजन सेवित, सरिताओं में श्रेष्ठ गंगाजी के तट पर पहुँचकर उनका दर्शन किया। हंसों तथा सारसों से सेवित पुण्यसलिला भागीरथी का दर्शन करके श्रीरामचन्द्रजी के साथ समस्त मुनि बहुत प्रसन्न हुए।

उस समय सबने गंगाजी के तट पर डेरा डाला। फिर विधिवत् स्नान करके देवताओं और पितरों का तर्पण किया। उसके बाद अग्निहोत्र करके अमृत के समान मीठे हविष्य का भोजन किया। तदनन्तर वे सभी कल्याणकारी महर्षि प्रसन्नचित्त हो महात्मा विश्वामित्र को चारों ओर से घेरकर गंगाजी के तट पर बैठ गये। जब वे सब मुनि स्थिरभाव से विराजमान हो गये और श्रीराम तथा लक्ष्मण भी यथायोग्य स्थान पर बैठ गये, तब श्रीराम ने प्रसन्नचित्त होकर विश्वामित्रजी से पूछा–‘भगवन्! मैं यह सुनना चाहता हूँ कि तीन मार्गों से प्रवाहित होने वाली नदी ये गंगाजी किस प्रकार तीनों लोकों में घूमकर नदों और नदियों के स्वामी समुद्र में जा मिली हैं ?’ श्रीराम के इस प्रश्न द्वारा प्रेरित हो महामुनि विश्वामित्र ने गंगाजी की उत्पत्ति और वृद्धि की कथा कहना आरम्भ किया।

विश्वामित्र बोले–‘श्रीराम ! हिमवान् नामक एक पर्वत है, जो समस्त पर्वतों का राजा तथा सब प्रकार के धातुओं का बहुत बड़ा खजाना है। हिमवान् की दो कन्याएँ हैं, जिनके सुन्दर रूप की इस भूतल पर कहीं तुलना नहीं है। मेरु पर्वत की मनोहारिणी पुत्री मेना हिमवान् की प्यारी पत्नी है। सुन्दर कटिप्रदेश वाली मेना ही उन दोनों कन्याओं की जननी हैं।

रघुनन्दन ! मेना के गर्भ से जो पहली कन्या उत्पन्न हुई, वहीं ये गंगाजी हैं। ये हिमवान् की ज्येष्ठ पुत्री हैं। हिमवान् की ही दूसरी कन्या, जो मेना के गर्भ से उत्पन्न हुईं, उमा नाम से प्रसिद्ध हैं। कुछ काल के पश्चात् सब देवताओं ने देवकार्य की सिद्धि के लिये ज्येष्ठ कन्या गंगाजी को, जो आगे चलकर स्वर्ग से त्रिपथगा नदी के रूप में अवतीर्ण हुईं, गिरिराज हिमालय से माँगा।

हिमवान् ने त्रिभुवन का हित करने की इच्छा से स्वच्छन्द पथ पर विचरने वाली अपनी लोकपावनी पुत्री गंगा को धर्मपूर्वक उन्हें दे दिया। तीनों लोकों के हित की इच्छा वाले देवता त्रिभुवन की भलाई के लिये ही गंगाजी को लेकर मन-ही-मन कृतार्थता का अनुभव करते हुए चले गये।

रघुनन्दन! गिरिराज की जो दूसरी कन्या उमा थीं, वे उत्तम एवं कठोर व्रत का पालन करती हुई घोर तपस्या में लग गयीं। उन्होंने तपोमय धन का संचय किया। गिरिराज ने उग्र तपस्या में संलग्न हुई अपनी वह विश्ववन्दिता पुत्री उमा अनुपम प्रभावशाली भगवान् रुद्र को ब्याह दी। रघुनन्दन! इस प्रकार सरिताओं में श्रेष्ठ गंगा तथा भगवती उमा–ये दोनों गिरिराज हिमालय की कन्याएँ हैं। सारा संसार इनके चरणों में मस्तक झुकाता है।

गतिशीलों में श्रेष्ठ तात श्रीराम ! गंगाजी की उत्पत्ति के विषय में ये सारी बातें मैंने तुम्हें बता दीं। ये त्रिपथ-गामिनी कैसे हुई ? यह भी सुन लो। पहले तो ये आकाश मार्ग में गयी थीं। तत्पश्चात् ये गिरिराज कुमारी गंगा रमणीया देवनदी के रूप में देवलोक में आरूढ़ हुई थीं। फिर जलरूप में प्रवाहित हो लोगों के पाप दूर करती हुई रसातल में पहुँची थीं।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदि काव्य के बालकाण्ड में पैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥३५। ।

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