गीता के श्लोक एवं भावार्थ : गीता प्रथम अध्याय का प्रथम और द्वितीय श्लोक

पाण्डवों ने बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास समाप्त होने पर जब प्रतिज्ञा के अनुसार अपना आधा राज्य माँगा, तब दुर्योधन ने आधा राज्य तो क्या, तीखी सूई की नोक जितनी जमीन भी बिना युद्ध के देनी स्वीकार नहीं की। अतः पाण्डवों ने माता कुन्ती की आज्ञा के अनुसार युद्ध करना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार पाण्डवों और कौरवों का युद्ध होना निश्चित हो गया और दोनों ओर से युद्ध की तैयारी होने लगी।

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महर्षि वेदव्यासजी का धृतराष्ट्र पर बहुत स्नेह था। उस स्नेह के कारण उन्होंने धृतराष्ट्र के पास आकर कहा कि ‘युद्ध होना और उसमें क्षत्रियों का महान् संहार होना अवश्यम्भावी है, इसे कोई टाल नहीं सकता। यदि तुम युद्ध देखना चाहते हो तो मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि दे सकता हूँ, जिससे तुम यहीं बैठे-बैठे युद्ध को अच्छी तरह से देख सकते हो।’ इस पर धृतराष्ट्र ने कहा कि ‘मैं जन्मभर अन्धा रहा, अब अपने कुल के संहार को मैं देखना नहीं चाहता; परन्तु युद्ध कैसे हो रहा है- यह समाचार जरूर सुनना चाहता हूँ।’ तब व्यासजी ने कहा कि ‘मैं सञ्जय को दिव्य दृष्टि देता हूँ, जिससे यह सम्पूर्ण युद्ध को, सम्पूर्ण घटनाओं को, सैनिकों के मन में आयी हुई बातों को भी जान लेगा, सुन लेगा, देख लेगा और सब बाते तुम्हें सुना भी देगा।’ ऐसा कहकर व्यासजी ने सञ्जय को दिव्य दृष्टि प्रदान की।

निश्चित समय के अनुसार कुरुक्षेत्र में युद्ध आरम्भ हुआ। दस दिन तक सञ्जय युद्ध-स्थल में ही रहे। जब पितामह भीष्म बाणों के द्वारा रथ से गिरा दिये गये, तब सञ्जय ने हस्तिनापुर में (जहाँ धृतराष्ट्र विराजमान थे) आकर धृतराष्ट्र को यह समाचार सुनाया। इस समाचार को सुनकर धृतराष्ट्र को बड़ा दुःख हुआ और वे विलाप करने लगे। फिर उन्होंने सञ्जय से युद्ध का सारा वृत्तान्त सुनाने के लिये कहा। भीष्मपर्व के चौबीसवें अध्याय तक सञ्जय ने युद्ध-सम्बन्धी बातें सुनायीं। महाभारत में कुल 18 पर्व हैं। उन पर्वों के अंतर्गत कई अवांतर पर्व भी हैं। उनमें से भीष्म पर्व के अंतर्गत ‘श्रीमद्भगवदगीता’ है, जो भीष्म पर्व के 13 वें अध्याय से शुरू होकर 42 वें अध्याय में समाप्त होता है। सञ्जय का जन्म गवल्गणात सूत से हुआ था। ये मुनियों के समान ज्ञानी और धर्मात्मा थे। ये धृतराष्ट्र के मंत्री थे। श्रीमद्भगवदगीता के आरम्भ में धृतराष्ट्र सञ्जय से पूछते हैं-


धृतराष्ट्र उवाच।

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।1।। 

धृतराष्ट्रः उवाच-धृतराष्ट्र ने कहा; धर्म-क्षेत्र धर्मभूमिः कुरू-क्षेत्र-कुरुक्षेत्र समवेता:-एकत्रित होने के पश्चात; युयुत्सवः-युद्ध करने को इच्छुक; मामकाः-मेरे पुत्रों; पाण्डवाः-पाण्डु के पुत्रों ने; च तथा; एव-निश्चय ही; किम्-क्या; अकुर्वत-उन्होंने किया; संजय हे संजय।

(हिंदी अनुवाद) धृतराष्ट्र ने कहाः हे संजय! कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि पर युद्ध करने की इच्छा से एकत्रित होने के पश्चात, मेरे और पाण्डु पुत्रों ने क्या किया?

सञ्जय उवाच।
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥2॥

संजयः उवाच – संजय ने कहा ; दृष्ट्वा – देखने पर ; तू – और; पाण्डवानीकं – पाण्डव सेना को ; व्यूढं – वज्र व्यूह से खड़ी हुई; दुर्योधनः – राजा दुर्योधन ; तदा – उस समय; आचार्यम् – द्रोणाचार्य ; उपसंगम्य – पास जाकर; राजा – राजा ; वचनम् – शब्द ; अब्रावित् – बोला

(हिंदी अनुवाद) संजय ने कहा : पांडव सेना को सैन्य संरचना में खड़ा देखकर, राजा दुर्योधन अपने शिक्षक द्रोणाचार्य के पास गए, और निम्नलिखित शब्द बोले।

व्याख्या:

संजय धृतराष्ट्र की चिंता को समझते थे, जो यह आश्वासन चाहते थे कि युद्ध होगा। संजय ने यह बताकर उनकी चिंता को दूर करने की कोशिश की कि पांडव सेना एक सैन्य संरचना में युद्ध के लिए तैयार खड़ी थी। फिर वह उन्हें यह बताने के लिए आगे बढ़े कि उनका पुत्र दुर्योधन युद्ध के मैदान में क्या कर रहा था।

दुर्योधन सम्मान देने के बहाने अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास गया, लेकिन उसका वास्तविक उद्देश्य अपनी घबराहट को शांत करना था। अपने गुरु के प्रति उसके कदम से यह भी पता चलता है कि पांडव सेना की विशाल सैन्य संरचना ने उसे घबरा दिया था और अब वह इस युद्ध के परिणाम से भयभीत था।

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