हिमशिखर खबर ब्यूरो
नई टिहरी। टिहरी जनपद के गीता एकेडमी के परिसर में गीता जयंती का महोत्सव अपनी गरिमा के साथ संपन्न हुआ। दीपक प्रज्जवलन एवं भगवान श्रीकृष्ण के चित्र पर माल्यार्पण करने के बाद एकेडमी के निदेशक आचार्य शिवेंद्र ने कहा कि श्रीमद्भगवद्गीता समूची मानवता के लिए एक मैन्युल की तरह है। लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि शरीर, मन का दुरुपयोग कर उसमें बिगाड़ कर लेने के बाद हम मैन्युल को देखते हैं। तब बहुत कुछ ऐसा होता है जिस पर सुधार के लिए आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता हुआ करती है। लेकिन उसके लिए समय की कमी होती है और हम स्वयं को इतना उलझा लेते हैं कि उसे सुलझा पाना असंभव नहीं तो इतना कठिन हो जाता है कि हम सोचने लगते हैं कि जैसा चल रहा है वैसा ही ठीक है। चाहिए तो यह है कि हम जीवन के प्रारंभिक क्षणों में ही अर्थात् जब अभी संभावनाओं ने अपने सिर नहीं उठाए हैं, तभी उस मैन्युल को पढ़ लें।
आचार्य शिवेंद्र ने कहा कि योग का अभ्यास शरीर को ही नहीं मन को भी लचीला और पुष्ट करता है। श्रीमद्भगवद्गीता में प्रत्येक अध्याय के बाद योग शास्त्र शब्द का प्रयोग बताता है कि श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते समय योगेश्वर की भूमिका अपना रहे हैं। इसीलिए उन्होंने एक नहीं अनेक उन मार्गों को बताया जिनके द्वारा साधक परमात्मा, प्रकृति और स्वयं से जुड़ सकता है। यह जुड़ाव ही सही अर्थों में योग है। योग के बहिरंग साधन तभी सार्थक होते हैं जब उसके द्वारा आध्यात्मिक जागरण हो। आज के दिन हम यही शुभ कामना करते हैं कि श्रीमद्भगवद्गीता का ‘योगी बन’ यह संदेश समूचे विश्व समुदाय तब पहुंचे। योग औपचारिकता नहीं है, आचरण का दूसरा नाम है।
प्रेमलता नागर ने कहा कि हमारे ऋषियों ने प्राचीन शिक्षा पद्धति में इसीलिए धर्म और आध्यात्म की शिक्षा को सहज रूप में जोड़ा था। यह प्रयोग इस प्रकार का था, जिसमें यह पता ही नहीं चलता था कि शिशु को ऐसी औषधि दी जा रही है, जो उसको निरोग करती है और अमरता के मार्ग की ओर ले जाती है। कई सूत्र भगवान ने श्रीमद्भगवद्गीता में दिए हैं, जो व्यक्ति, समाज, जाति, देश और संपूर्ण मानवता के लिए अत्यंत उपयोगी हैं।
सज्जन और इंदु बगडिया ने श्रीमद्भगवद्गीता में प्रतिपादित राजयोग की चर्चा की। इस अवसर पर गीता की जिज्ञासु इंदु ने श्रीमद्भगद्गीता के साथ जुड़ने के बाद अपने जीवन में होने वाले परिवर्तनों की विवेचना की। उन्होंने सचेत किया कि अभी भी हम सबके पास अवसर है, जिसमें हम श्रीकृष्ण की अमरवाणी को अपने जीवन का परम आश्रय बना सकते हैं। इसलिए अब गलती न हो, कि हम हाथ मलते रह जाएं।