हिमशिखर धर्म डेस्क
नारदजी कहते हैं–‘महर्षियो! मैं रामायण के पाठ और श्रवण के माहात्म्य का वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। रामायण का माहात्म्य समस्त पापों को हर लेने वाला, पुण्य जनक तथा सम्पूर्ण दुःखों का निवारण करने वाला है। वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र–इन सबको समस्त मनोवाञ्छित फल प्रदान करने वाला है। उससे सब प्रकार के व्रतों का फल भी प्राप्त होता है। वह दुःस्वप्न का नाशक, धन की प्राप्ति कराने वाला तथा भोग और मोक्षरूप फल देने वाला है। अतः उसे प्रयत्न पूर्वक सुनना चाहिये।
इसी विषय में विज्ञ पुरुष एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण देते हैं। वह इतिहास अपने पाठकों और श्रोताओं के समस्त पापों का नाश करने वाला है। प्राचीन कलियुग में एक कलिक नाम वाला व्याध रहता था। वह सदा पराये धन के अपहरण में ही लगा रहता था। दूसरों की निन्दा करना उसका नित्य का काम था। वह सदा सभी जन्तुओं को पीड़ा दिया करता था। उसने कितने ही गौओं की हत्या कर डाली थी।
पराये धन का तो वह नित्य अपहरण करता ही था, देवता के धन को भी हड़प लेता था। उसने अपने जीवन में अनेक बड़े-बड़े पाप किये थे। उसके पापों की गणना करोड़ों वर्षों में भी नहीं की जा सकती थी। एक समय वह महापापी व्याध, जो जीव-जन्तुओं के लिये यमराज के समान भयंकर था, सौवीरनगर में गया। वह नगर सब प्रकार के वैभव से सम्पन्न, वस्त्राभूषणों से विभूषित युवतियों द्वारा सुशोभित, स्वच्छ जल वाले सरोवरोंहसे अलंकृत तथा भाँति-भाँति की दूकानों से सुसज्जित था। देवनगर के समान उसकी शोभा हो रही थी। व्याध उस नगर में गया।
सौवीरनगर के उपवन में भगवान् केशव का बड़ा सुन्दर मन्दिर था, जो सोने के अनेकानेक कलशों से ढका हुआ था। उसे देखकर व्याध को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने यह निश्चय कर लिया कि मैं यहाँ से बहुत-सा सुवर्ण चुराकर ले चलूँगा। ऐसा निश्चय करके वह चोरी पर लट्टू रहने वाला व्याध श्रीराम के मन्दिर में गया।
वहाँ उसने शान्त, तत्त्वार्थवेत्ता और भगवान् की आराधना में तत्पर उत्तंक मुनि का दर्शन किया, जो तपस्या की निधि थे। वे अकेले ही रहते थे। उनके हृदय में सबके प्रति दया भरी थी। वे सब ओर से निःस्पृह थे। उनके मन में केवल भगवान् के ध्यान का ही लोभ बना रहता था। उन्हें वहाँ उपस्थित देख व्याध ने उनको चोरी में विघ्न डालने वाला समझा।
तदनन्तर जब आधी रात हुई, तब वह देवता सम्बन्धी द्रव्य समूह लेकर चला। उस मदोन्मत्त व्याध ने उत्तंक मुनि की छाती को अपने एक पैर से दबाकर हाथ से उनका गला पकड़ लिया और तलवार उठाकर उन्हें मार डालने का उपक्रम किया। उत्तंक ने देखा व्याध मुझे मार डालना चाहता है तो वे उससे इस प्रकार बोले–उत्तंक ने कहा–‘ओ भले मानुष ! तुम व्यर्थ ही मुझे मारना चाहते हो। मैं तो सर्वथा निरपराध हूँ। लुब्धक! बताओ तो सही, मैंने तुम्हारा क्या अपराध किया है ? संसार में लोग अपराधी की ही प्रयत्न पूर्वक हिंसा करते हैं। सौम्य! सज्जन निरपराध की व्यर्थ हिंसा नहीं करते हैं। शान्तचित्त साधु पुरुष अपने विरोधी तथा मूर्ख मनुष्यों में भी सद्गुणों की स्थित देखकर उनके साथ विरोध नहीं रखते हैं।
जो मनुष्य बारम्बार दूसरों की गाली सुनकर भी क्षमाशील बना रहता है, वह उत्तम कहलाता है। उसे भगवान् विष्णु का अत्यन्त प्रियजन बताया गया है। दूसरों के हित-साधन में लगे रहने वाले साधुजन किसी के द्वारा अपने विनाश का समय उपस्थित होने पर भी उसके साथ वैर नहीं करते। चन्दन का वृक्ष अपने को काटने पर भी कुठार की धार को सुवासित ही करता है।
अहो! विधाता बड़ा बलवान् है। वह लोगों को नाना प्रकार से कष्ट देता रहता है। जो सब प्रकार के संग से रहित है, उसे भी दुरात्मा मनुष्य सताया करते हैं। अहो! दुष्टजन इस संसार में बहुत-से जीवों को बिना किसी अपराध के ही पीड़ा देते हैं। मल्लाह मछलियों के, चुगलखोर सज्जनों के और व्याध मृगों के इस जगत् में अकारण वैरी होते हैं।
अहो! माया बड़ी प्रबल है। यह सम्पूर्ण जगत् को मोह में डाल देती है तथा स्त्री, पुत्र और मित्र आदि के द्वारा सबको सब प्रकार के दुःखों से संयुक्त कर देती है। मनुष्य पराये धन का अपहरण करके जो अपनी स्त्री आदि का पोषण करता है, वह किस काम का; क्योंकि अन्त में उन सबको छोड़कर वह अकेला ही परलोक की राह लेता है।
मेरी माता, मेरे पिता, मेरी पत्नी, मेरे पुत्र तथा मेरा यह घरबार–इस प्रकार ममता व्यर्थ ही प्राणियों को कष्ट देती रहती है। मनुष्य जब तक कमाकर धन देता है, तभी तक लोग उसके भाई-बन्धु बने रहते हैं और उसके कमाये हुए धन को सारे बन्धु-बान्धव सदा भोगते रहते हैं; किन्तु मूर्ख मनुष्य अपने किये हुए पाप के फलरूप दुःख को अकेला ही भोगता है।’
उत्तंक मुनि जब इस प्रकार कह रहे थे, तब उनकी बातों पर विचार करके कलिक नामक व्याध भय से व्याकुल हो उठा और हाथ जोड़कर बारम्बार कहने लगा–‘प्रभो! मेरे अपराध को क्षमा कीजिये।’
उन महात्मा के संग के प्रभाव से तथा भगवान् का सांनिध्य मिल जाने से उस लुब्धक के सारे पाप नष्ट हो गये तथा उसके मन में निश्चय ही बड़ा पश्चात्ताप होने लगा। वह बोला–‘विप्रवर! मैंने जीवन में बहुत-से बड़े-बड़े पाप किये हैं; किन्तु वे सब आपके दर्शन मात्र से नष्ट हो गये। प्रभो! मेरी बुद्धि सदा पाप में ही डूबी रहती थी। मैंने निरन्तर बड़े-बड़े पापों का ही आचरण किया है। उनसे मेरा उद्धार किस प्रकार होगा ? मैं किसकी शरण में जाऊँ।
पूर्वजन्म के किये हुए पापों के फल से मुझे व्याध होना पड़ा है, यहाँ भी मैंने पापों के ही जाल बटोरे हैं। ये पाप करके मैं किस गति को प्राप्त होऊँगा ?’
महामना कलिक की यह बात सुनकर ब्रह्मर्षि उत्तंक इस प्रकार बोले–उत्तंक ने कहा–‘महामते व्याध ! तुम धन्य हो, धन्य हो, तुम्हारी बुद्धि बड़ी निर्मल और उज्ज्वल है; क्योंकि तुम संसार सम्बन्धी दुःखों के नाश का उपाय जानना चाहते हो। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में तुम्हें भक्तिभाव से आदर पूर्वक रामायण की नवाह कथा सुननी चाहिये। उसके श्रवण मात्र से मनुष्य समस्त पापों से छुटकारा पा जाता है।’
उस समय कलिक व्याध के सारे पाप नष्ट हो गये। वह रामायण की कथा सुनकर तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो गया। व्याध को धरती पर पड़ा हुआ देख दयालु उत्तम मुनि बड़े विस्मित हुए। फिर उन्होंने भगवान् कमलापति का स्तवन किया।
रामायण की कथा सुनकर निष्पाप हुआ व्याध दिव्य विमान पर आरूढ़ हो उत्तंक मुनि से इस प्रकार बोला–‘विद्वन्! आपके प्रसाद से मैं महापातकों के संकट से मुक्त हो गया। अतः मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ। मैंने जो किया है, मेरे उस अपराध को आप क्षमा कीजिये।’
सूतजी कहते हैं–‘ऐसा कहकर कलिक ने मुनिश्रेष्ठ उत्तंक पर देवकुसुमों की वर्षा की और तीन बार उनकी परिक्रमा करके उन्हें बारम्बार नमस्कार किया। तत्पश्चात् अप्सराओं से भरे हुए सम्पूर्ण मनोवाञ्छित भोगों से सम्पन्न विमान पर आरूढ़ हो वह श्रीहरि के परम धाम में जा पहुँचा। अतः विप्रवरो ! आप सब लोग रामायण की कथा सुनें। चैत्रमास के शुक्ल पक्ष में प्रयत्न पूर्वक रामायण की अमृतमयी कथा का नवाह-पारायण अवश्य सुनना चाहिये। इसलिये रामायण सभी ऋतुओं में हितकारक है। इसके द्वारा भगवान् की पूजा करने वाला पुरुष मन से जो-जो चाहता है, उसे निःसन्देह प्राप्त कर लेता है।
सनत्कुमार! तुमने जो रामायण का माहात्म्य पूछा था, वह सब मैंने बता दिया। अब और क्या सुनना चाहते हो ?’
इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के उत्तरखण्ड में नारद-सनत्कुमार–संवाद के अन्तर्गत रामायण माहात्म्य के प्रसंग में चैत्र मास में रामायण सुनने के फल का वर्णन नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ॥४॥