हिमशिखर धर्म डेस्क
समस्या को यदि उसके बढ़ने से पहले, शुरू-शुरू में ही सुलझा लिया जाए, तो वह समझदारी है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि किसी भी तरह के उद्वेग के प्रारंभिक लक्षणों में ही यदि उस पर नियंत्रण पा लिया जाए, तो ऐसा रूप नहीं हो पाता है। जिस पर बाद में काबू पाना मुश्किल, यहां तक कि कभी-कभी असंभव हो जाए। जिस तरह से अग्नि को यदि घी-तेल का साथ मिल जाए, तो वह भड़क उठती है, उसी प्रकार यदि संभावना को उसका अनुकूल संग मिल जाए, तो वह अपनी सीमा का विस्तार कर लेती है। आज के युवा की स्थिति काफी हद तक इसी तरह की है।
नीतिकारों ने कहा है कि जवानी हो, धन सम्पत्ति, पद-प्रतिष्ठा हो, लेकिन सही-गलत का यदि ज्ञान न हो, तो स्थिति ऐसी हो जाती है मानो स्वभाव से चंचल बंदर शराब पी ले। फिर उसे बिच्छु डंक मार दे और फिर उसमें भूत प्रवेश कर जाए। यही दशा आज देखने को मिल रही है।
युवा ऊर्जा से भरा होता है, वह कुछ करना चाहता है, लेकिन अति उत्साह के कारण कभी-कभी न चाहते हुए भी अपराध के संसार में प्रवेश कर जाता है। इसका कारण है संग। आपने समाचार-पत्रों में ऐसे कई युवकों के बारे में पढ़ा होगा, जिनके बारे में जानकर आपके मन में विचार आता है कि उसे अपराध के क्षेत्र में आने की क्या जरूरत थी। अपराधी जिसके लिए आमतौर पर इस क्षेत्र को चुनता है, वह सब कुछ था, उसके पास।
पंडित रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में इसका जिक्र किया है। उनका कहना था कि क्रांतिकारी बनने के लिए ज्यादातर युवक इसलिए उत्साहित होते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि उन्हें पार्टी की ओर से रिवाल्वर या माउजर मिलेगा। अपने साथियों के बीच वह यह सिद्ध करना चाहते थे कि वह भी कुछ हैं। एक तरह का एक्साइटमेंट होता है युवा में। वह परिणाम के बारे में बेपरवाह होता है। उसे तब पछतावा होता है, जब वह उलझ जाता है। ‘बिस्मिल’ ने वहां यह भी कहा है कि जब आत्मानुशासन, धैर्य, तकलीफों का मुकाबला करने आदि के बारे में उन्हें बताया जाता, तो उन्हें लगता कि यहां तो देश के लिए कुर्बानी की बात होती है, तो वह निराश हो जाते, उनका मोह भंग हो जाता।
आजकल का युवा कई तरह का प्रेशर झेल रहा है। उसे समझ नहीं आता कि कैसे आसानी से वह अपने सपनों को साकार रूप दे, इसीलिए वह गलत लोगों के संग के कारण अपराध की दुनिया में उतर जाता है, जिससे उसकी दुनिया तबाह हो जाती है।
कई बार अपराध करने वाले युवा को इस परिणाम का अंदाजा नहीं होता। उसने या तो यह कहावत नहीं सुनी होगी कि अपराध एक सीधी खड़ी ट्रेन की तरह है, इंजन के सामने खड़े होकर जब आप उसे देखें, तो डिब्बों की लंबी कतार दिखाई नहीं देती है। मैंने एक बुजुर्ग और अनुभवी पहलवान से यह भी सुना था कि पहलवान के लिए जितना जरूरी है खुराक को पचाना, उतना ही जरूरी हो जाता है उस ताकत को पचाना जो उसे उस खुराक से मिलती है।
इस समझ को पैदा करने की जिम्मेदारी घर-परिवार, मित्रों और बड़ों की भी है, कि वे शुरू में गलत को गलत कहने की हिम्मत दिखाएं। अपने स्वार्थों के लिए मौन रहना सुयोधन को दुर्योधन बनाता है। आंखें मूंदने से बिल्ली का अस्तित्व नहीं समाप्त हो जाता।
ऐसे में याद आता है कवि रहीम का यह दोहा-
कहो रहीम कैसे निभे बेर केर को संग।
वो डोलत रस आपने, तिनके फारत अंग।।
इसलिए दूर रहें बेर से। उसका कुछ न बिगड़ेगा, तार-तार होंगे केले के सुकोमल पत्ते।
एक बात और ध्यान में रखिएगा कि बेर बाहर से जैसा कोमल दिखाई देता है, वैसा होता नहीं है, भीतर से बहुत कठोर होता है-‘‘बहिरेव मनोहराः’’।।