मंजू शेखावत
लाडेसर आश्रम
आहार शुद्धौ सत्वशुद्धि। यानी शुद्ध आहार से मन शुद्ध रहता है। मानव शरीर की वृद्धि और पोषण का मुख्य आधार आहार है। आहार की शक्ति से ही हम आध्यात्मिक उन्नति से लेकर रोजमर्रा के काम निपटाते हैं। यदि हमें दो दिन भी आहार न मिले तो ध्यान- भजन तक भी न हो सकेगा। इसी तथ्य को समझ कर किसी ने कहा है- “भूखे भजन न होय गुपाला, यह ले लो अपनी कण्ठी माला।”
मानव जिस क्षण से पृथ्वी पर आता है तभी से उसे किसी न किसी रूप में आहार की आवश्यकता होती है। तैत्तिरीय उपनिषद के अनुसार अन्नं ही भूतानां ज्येष्ठम्-तस्मात् सर्वोषधमुच्यते।’ अर्थात् भोजन ही प्राणियों की सर्वश्रेष्ठ औषधि है, क्योंकि आहार से शरीरस्थ सप्तधातु, त्रिदोष तथा मलों की उत्पत्ति होती है।
यदि देखा जाए तो समाज में कई व्यक्ति तो पेट भरने तक को ही जीवन का उद्देश्य मान बैठते हैं। कई लोग केवल जीभ के स्वाद के लिए अपने स्वास्थ्य और आरोग्य से भी खिलवाड़ कर बैठते हैं।
आहार का मानव जीवन के साथ ऐसा घनिष्ठ संबंध होने के बाद भी कम ही लोग उसके महत्त्व पर ध्यान देते हैं। कुछ लोग पेट भरने के लिए कुछ भी खाते हैं और कुछ समझदार लोग का ध्यान रखते हुए सुपाच्य पदार्थों चयन करते हैं। लेकिन इस बात का विचार लाखों में से एक व्यक्ति ही करता होगा कि आहार से हमारा पेट ही नहीं भरता बल्कि इसका हमारे मन से भी सीधा संबंध है और फिर उसका प्रभाव बुद्धि तक भी पहुंचता है। मन और बुद्धि ही मनुष्य की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक प्रगति की मुख्य आधार है। इसलिए जो व्यक्ति वास्तव में अपना कल्याण चाहते हैं और इस मानव जीवन को सफल बनाना चाहते हैं उन्हें आहार शुद्धि पर विशेष ध्यान देना ही चाहिए।
आज भी सनातनी लोगों के एक वर्ग में आहार-शुद्धि का नियम कड़ाई से पालन किया जाता है। उनकी रसोई घर में हर कोई नहीं घुस सकता है। यह सच है कि प्रत्येक या मनुष्य के आचार और विचारों में एक प्रकार से की शक्ति होती है। जिसका प्रभाव आस-पास के पदार्थों और वातावरण पर भी पड़ता है। कुछ लोगों के विचार तो स्वभावतः ऐसे प्रबल होते हैं कि उनकी दृष्टि जिस किसी वस्तु या पदार्थ पर पड़ती है, वह उससे प्रभावित हो जाता है। यदि ऐसा व्यक्ति दुष्टायुक्त विचारों वाला हुआ तो उससे हानि होना अवश्यम्भावी है। हम पुराने विचारों होने वाले घरों में जो नजर लगने की प्रायः बात सुना करते हैं उसका यही रहस्य है। इसलिए भोजन को बाहरी व्यक्तियों के संपर्क से अलग रखना और शुद्धता पूर्वक एकांत स्थान में ग्रहण करना किसी दृष्टि से बुरा या निरर्थक नहीं कहा जाता सकता, बल्कि वह लोग शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि पदार्थों से लाभदायक ही है।
खास बात यह है कि इस बाह्य शुद्धि में जो कुछ त्रुटि होने से उसका स्वास्थ्य पर जो कुप्रभाव पड़ता है उसका निवारण आगे और चलकर संयम, उपवास और औषधि द्वारा हो सकता है। मगर हमारा आहार जिस स्त्रोत या साधन से हमको उपलब्ध होता है वही यदि अशुद्ध है-दूषित अथवा पापयुक्त है तो उसका जो बुरा प्रभाव मन, बुद्धि और आत्मा पर पड़ेगा उससे छुटकारा पाना सहज नहीं है। उदाहरणार्थ जो धन चोरी, भ्रष्टाचार या गलत तरीके से कमाया गया हो, उससे शारीरिक पुष्टि भले ही मिले लेकिन मन और आत्मा की तुष्टि उससे कभी भी नहीं हो सकती ।