जनमेजय महाभारत के अनुसार कुरुवंश का राजा था। महाभारत युद्ध में अर्जुनपुत्र अभिमन्यु जिस समय मारा गया, उसकी पत्नी उत्तरा गर्भवती थी। उसके गर्भ से राजा परीक्षित का जन्म हुआ जो महाभारत युद्ध के बाद हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठे। जनमेजय परीक्षित का पुत्र था। बड़े होने पर जब जनमेजय ने पिता परीक्षित की मृत्यु का कारण सर्पदंश जाना तो उसने तक्षक से बदला लेने का उपाय सोचा। जनमेजय ने सर्पों के संहार के लिए ‘सर्पसत्र’ नामक महान यज्ञ का आयोजन किया।
हिमशिखर धर्म डेस्क
उग्रश्रवाजी ने कहा–’ऋषियो! परीक्षित् नन्दन जनमेजय अपने भाइयों के साथ कुरुक्षेत्र में एक लंबा यज्ञ कर रहे थे। उस यज्ञ के अवसर पर वहाँ एक कुत्ता आया। जनमेजय के भाइयों ने उसे पीटा और वह रोता-चिल्लाता अपनी माँ के पास गया। रोते-चिल्लाते कुत्ते से माँ ने पूछा, ‘बेटा! तू क्यों रो रहा है? किसने तुझे मारा है ?’ उसने कहा, ‘माँ! मुझे जनमेजय के भाइयों ने पीटा है।’ माँ बोली, ‘बेटा! तुमने उनका कुछ-न-कुछ अपराध किया होगा।’ कुत्ते ने कहा, ‘माँ! न मैंने हविष्य की ओर देखा और न किसी वस्तु को चाटा ही। मैंने तो कोई अपराध नहीं किया।’ यह सुनकर माता को बड़ा दुःख हुआ और वह जनमेजय के यज्ञ में गयी। उसने क्रोध से कहा–’मेरे पुत्र ने हविष्य को देखा तक नहीं, कुछ चाटा भी नहीं; और भी इसने कोई अपराध नहीं किया। फिर इसे पीटने का कारण ?’ जनमेजय और उनके भाइयों ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। कुतिया ने कहा, ‘तुमने बिना अपराध मेरे पुत्र को मारा है, इसलिये तुम पर अचानक ही कोई महान् भय आवेगा।’ देवताओं की कुतिया सरमा का यह शाप सुनकर जनमेजय बड़े दुःखी हुए और घबराये भी। यज्ञ समाप्त होने पर वे हस्तिनापुर आये और एक योग्य पुरोहित ढूँढ़ने लगे, जो इस अनिष्ट को शान्त कर सके। एक दिन वे शिकार खेलने गये। घूमते-घूमते अपने राज्य में ही उन्हें एक आश्रम मिला। उस आश्रम में श्रुतश्रवा नाम के एक ऋषि रहते थे। उनके तपस्वी पुत्र का नाम था सोमश्रवा। जनमेजय ने उस ऋषिपुत्र को ही पुरोहित बनाने का निश्चय किया।
उन्होंने श्रुतश्रवा ऋषि को नमस्कार करके कहा, ‘भगवन् ! आपके पुत्र मेरे पुरोहित बनें।’ ऋषि ने कहा, ‘मेरा पुत्र बड़ा तपस्वी और स्वाध्याय सम्पन्न है। यह आपके सारे अनिष्टों को शान्त कर सकता है। केवल महादेव के शाप को मिटाने में इसकी गति नहीं है। परंतु इसका एक गुप्त व्रत है। वह यह कि यदि कोई ब्राह्मण इससे कोई चीज माँगेगा तो यह उसे अवश्य दे देगा। यदि तुम ऐसा कर सको तो इसे ले जाओ।’ जनमेजय ने ऋषि की आज्ञा स्वीकार कर ली। वे सोमश्रवा को लेकर हस्तिनापुर आये और अपने भाइयों से बोले–’मैंने इन्हें अपना पुरोहित बनाया है। तुम लोग बिना विचार के ही इनकी आज्ञा का पालन करना।’ भाइयों ने उनकी आज्ञा स्वीकार की। उन्होंने तक्षशिला पर चढ़ाई की और उसे जीत लिया।
उन्हीं दिनों उस देश में आयोदधौम्य नाम के एक ऋषि रहा करते थे। उनके तीन प्रधान शिष्य थे—आरुणि, उपमन्यु और वेद। इनमें आरुणि पांचालदेश का रहने वाला था। उसे उन्होंने एक दिन खेत की मेड़ बाँधने के लिये भेजा। गुरु की आज्ञा से आरुणि खेत पर गया और प्रयत्न करते-करते हार गया तो भी उससे बाँध न बँधा। जब वह तंग आ गया तो उसे एक उपाय सूझा। वह मेड़ की जगह स्वयं लेट गया। इससे पानी का बहना बंद हो गया। कुछ समय बीतने पर आयोदधौम्य ने अपने शिष्यों से पूछा कि, ‘आरुणि कहाँ गया ?’ शिष्यों ने कहा, ‘आपने ही तो उसे खेत की मेड़ बाँधने के लिये भेजा था।’ आचार्य ने शिष्यों से कहा कि ‘चलो, हम लोग भी जहाँ वह गया है वहीं चलें।’ वहाँ जाकर आचार्य पुकारने लगे, ‘आरुणि ! तुम कहाँ हो ? आओ बेटा!’ आचार्य की आवाज पहचानकर आरुणि उठ खड़ा हुआ और उनके पास आकर बोला, ‘भगवन्! मैं यह हूँ। खेत से जल बहा जा रहा था। जब उसे मैं किसी प्रकार नहीं रोक सका तो स्वयं ही मेड़ के स्थान पर लेट गया। अब यकायक आपकी आवाज सुन मेड़ तोड़कर आपकी सेवा में आया हूँ। आपके चरणों में मेरे प्रणाम हैं। आज्ञा कीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?’ आचार्य ने कहा, ‘बेटा! तुम मेड़ के बाँध को उद्दलन (तोड़-ताड़) करके उठ खड़े हुए हो, इसलिये तुम्हारा नाम ‘उद्दालक’ होगा।’ फिर कृपादृष्टि से देखते हुए आचार्य ने और भी कहा, ‘बेटा! तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया है; इसलिये तुम्हारा और भी कल्याण होगा। सारे वेद और धर्मशास्त्र तुम्हें ज्ञात हो जायँगे।’ अपने आचार्य का वरदान पाकर वह अपने अभीष्ट स्थान पर चला गया।
आयोदधौम्य के दूसरे शिष्य का नाम था उपमन्यु। आचार्य ने उसे यह कहकर भेजा कि ‘बेटा! तुम गौओं की रक्षा करो।’ आचार्य की आज्ञा से वह गाय चराने लगा। दिन भर गाय चराने के बाद सायंकाल आचार्य के आश्रम पर आया और उन्हें नमस्कार किया। आचार्य ने कहा, ‘बेटा! तुम मोटे और बलवान् दीख रहे हो। खाते-पीते क्या हो ?’ उसने कहा, ‘आचार्य! मैं भिक्षा माँगकर खा-पी लेता हूँ।’ आचार्य ने कहा, ‘बेटा! मुझे निवेदन किये बिना भिक्षा नहीं खानी चाहिये।’ उसने आचार्य की बात मान ली। अब वह भिक्षा माँगकर उन्हें निवेदित कर देता और आचार्य सारी भिक्षा लेकर रख लेते। वह फिर दिन भर गाय चराकर सन्ध्या के समय गुरुगृह में लौट आता और आचार्य को नमस्कार करता। एक दिन आचार्य ने कहा, ‘बेटा! मैं तुम्हारी सारी भिक्षा ले लेता हूँ। अब तुम क्या खाते-पीते हो ?’ उपमन्यु ने कहा, ‘भगवन्! मैं पहली भिक्षा आपको निवेदित करके फिर दूसरी माँगकर खा-पी लेता हूँ।’ आचार्य ने कहा, ‘ऐसा करना अन्तेवासी (गुरु के समीप रहने वाले ब्रह्मचारी) के लिये अनुचित है। तुम दूसरे भिक्षार्थियों की जीविका में अड़चन डालते हो और इससे तुम्हारा लोभ भी सिद्ध होता है।’ उपमन्यु ने आचार्य की आज्ञा स्वीकार कर ली और वह फिर गाय चराने चला गया। सन्ध्या समय वह पुनः गुरुजी के पास आया और उनके चरणों में नमस्कार किया। आचार्य ने कहा, ‘बेटा उपमन्यु ! मैं तुम्हारी सारी भिक्षा ले लेता हूँ, दूसरी बार तुम माँगते नहीं, फिर भी तुम खूब हट्टे-कट्टे हो; अब क्या खाते-पीते हो ?’ उपमन्यु ने कहा, ‘भगवन्! मैं इन गौओं के दूध से अपना जीवन निर्वाह कर लेता हूँ।’ आचार्य ने कहा, ‘बेटा! मेरी आज्ञा के बिना गौओं का दूध पी लेना उचित नहीं है।’ उसने उनकी वह आज्ञा भी स्वीकार की और फिर गौएँ चराकर शाम को उनकी सेवा में उपस्थित होकर नमस्कार किया। आचार्य ने पूछा–’बेटा! तुमने मेरी आज्ञा से भिक्षा की तो बात ही कौन, दूध पीना भी छोड़ दिया; फिर क्या खाते-पीते हो ?’ उपमन्यु ने कहा, ‘भगवन्! ये बछड़े अपनी माँ के थन से दूध पीते समय जो फेन उगल देते हैं, वही मैं पी लेता हूँ।’ आचार्य ने कहा, ‘राम-राम ! ये दयालु बछड़े तुम पर कृपा करके बहुत सा फेन उगल देते होंगे; इस प्रकार तो तुम इनकी जीविका में अड़चन डालते हो! तुम्हें वह भी नहीं पीना चाहिये।’ उसने आचार्य की आज्ञा शिरोधार्य की। अब खाने-पीने के सभी दरवाजे बंद हो जाने के कारण भूख से व्याकुल होकर उसने एक दिन आक के पत्ते खा लिये। उन खारे, तीते, कड़वे, रूखे और पचने पर तीक्ष्ण रस पैदा करने वाले पत्तों को खाकर वह अपनी आँखों की ज्योति खो बैठा। अंधा होकर वन में भटकता रहा और एक कूएँ में गिर पड़ा। सूर्यास्त हो गया, परंतु उपमन्यु आचार्य के आश्रम पर नहीं आया। आचार्य ने शिष्यों से पूछा–’उपमन्यु नहीं आया ?” शिष्यों ने कहा–’भगवन् ! वह तो गाय चराने गया है।’
आचार्य ने कहा–’मैंने उपमन्यु के खाने-पीने के सभी दरवाजे बंद कर दिये हैं। इससे उसे क्रोध आ गया होगा। तभी तो अब तक नहीं लौटा। चलो, उसे ढूँढें।’ आचार्य शिष्यों के साथ वन में गये और जोर से पुकारा, ‘उपमन्यु ! तुम कहाँ हो ? आओ बेटा!’ आचार्य की आवाज पहचानकर वह जोर से बोला, ‘मैं इस कूएँ में गिर पड़ा हूँ।’ आचार्य ने पूछा कि ‘तुम कूएँ में कैसे गिरे ?’ उसने कहा, ‘आक के पत्ते खाकर मैं अंधा हो गया और इस कूएँ में गिर पड़ा।’ आचार्य ने कहा, ‘तुम देवताओं के चिकित्सक अश्विनीकुमार की स्तुति करो। वे तुम्हारी आँखें ठीक कर देंगे।’ तब उपमन्यु ने वेद की ऋचाओं से अश्विनीकुमार की स्तुति की।
उपमन्यु की स्तुति से प्रसन्न होकर अश्विनीकुमार उसके पास आये और बोले, ‘तुम यह पुआ खा लो।’ उपमन्यु ने कहा, ‘देववर ! आपका कहना ठीक है। परंतु आचार्य को निवेदन किये बिना मैं आपकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकता।’ अश्विनीकुमारों ने कहा, ‘पहले तुम्हारे आचार्य ने भी हमारी स्तुति की थी और हमने उन्हें पुआ दिया था। उन्होंने तो उसे अपने गुरु को निवेदन किये बिना ही खा लिया था। सो जैसा उपाध्याय ने किया, वैसा ही तुम भी करो।’ उपमन्यु ने कहा–’मैं आप लोगों से हाथ जोड़कर विनती करता हूँ। आचार्य को निवेदन किये बिना मैं पुआ नहीं खा सकता।’
अश्विनीकुमारों ने कहा, ‘हम तुम पर प्रसन्न हैं तुम्हारी इस गुरुभक्ति से। तुम्हारे दाँत सोने के हो जायँगे, तुम्हारी आँखें ठीक हो जायँगी और तुम्हारा सब प्रकार कल्याण होगा।’ अश्विनीकुमारों की आज्ञा के अनुसार उपमन्यु आचार्य के पास आया और सब घटना सुनायी। आचार्य ने प्रसन्न होकर कहा, ‘अश्विनी कुमार के कथनानुसार तुम्हारा कल्याण होगा और सारे वेद और सारे धर्मशास्त्र तुम्हारी बुद्धि में अपने आप ही स्फुरित हो जायँगे।’
आयोदधौम्य का तीसरा शिष्य था वेद। आचार्य ने उससे कहा, ‘बेटा! तुम कुछ दिनों तक मेरे घर रहो। सेवा शुश्रूषा करो, तुम्हारा कल्याण होगा।’ उसने बहुत दिनों तक वहाँ रहकर गुरुसेवा की। आचार्य प्रतिदिन उस पर बैल की तरह भार लाद देते और वह गर्मी-सर्दी, भूख-प्यास का दुःख सहकर उनकी सेवा करता। कभी उनकी आज्ञा के विपरीत न चलता। बहुत दिनों में आचार्य प्रसन्न हुए और उन्होंने उसके कल्याण और सर्वज्ञता का वर दिया। ब्रह्मचर्याश्रम से लौटकर वह गृहस्थाश्रम में आया। वेद के भी तीन शिष्य थे, परंतु वे उन्हें कभी किसी काम या गुरु-सेवा का आदेश नहीं करते थे। वे गुरुगृह के दुःखों को जानते थे और शिष्यों को दुःख देना नहीं चाहते थे। एक बार राजा जनमेजय और पौष्य ने आचार्य वेद को पुरोहित के रूप में वरण किया। वेद कभी पुरोहिती के काम से बाहर जाते तो घर की देख-रेख के लिये अपने शिष्य उत्तंक को नियुक्त कर जाते थे। एक बार आचार्य वेद ने बाहर से लौटकर अपने शिष्य उत्तंक के सदाचार-पालन की बड़ी प्रशंसा सुनी। उन्होंने कहा–’बेटा ! तुमने धर्म पर दृढ़ रहकर मेरी बड़ी सेवा की है। मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम्हारी सारी कामनाएँ पूर्ण होंगी। अब जाओ।’ उत्तंक ने प्रार्थना की, ‘आचार्य! मैं आपको कौन सी प्रिय वस्तु भेंट में दूँ ?’ आचार्य ने पहले तो अस्वीकार किया, पीछे कहा कि ‘अपनी गुरुआनी से पूछ लो।’ जब उत्तंक ने गुरुआनी से पूछा तो उन्होंने कहा, ‘तुम राजा पौष्य के पास जाओ और उनकी रानी के कानों के कुण्डल माँग लाओ। मैं आज के चौथे दिन उन्हें पहनकर ब्राह्मणों को भोजन परसना चाहती हूँ। ऐसा करने से तुम्हारा कल्याण होगा, अन्यथा नहीं।’
उत्तंक ने वहाँ से चलकर देखा कि एक बहुत लंबा-चौड़ा पुरुष बड़े भारी बैल पर चढ़ा हुआ है। उसने उत्तंक को सम्बोधन करके कहा कि ‘तुम इस बैल का गोबर खा लो।’ उत्तंक ने ‘ना’ कर दिया। वह पुरुष फिर बोला, ‘उत्तंक ! तुम्हारे आचार्य ने पहले इसे खाया है। सोच-विचार मत करो। खा जाओ।’ उत्तंक ने बैल का गोबर और मूत्र खा लिया और शीघ्रता के कारण बिना रुके कुल्ला करता हुआ ही वहाँ से चल पड़ा। उत्तंक ने राजा पौष्य के पास जाकर उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा कि ‘मैं आपके पास कुछ माँगने के लिये आया हूँ।’ पौष्य ने उत्तंक का अभिप्राय जानकर उसे अन्तःपुर में रानी के पास भेज दिया। परंतु उत्तंक को रनिवास में कहीं भी रानी दिखायी नहीं दी। वहाँ से लौटकर उसने पौष्य को उलाहना दिया कि ‘अन्तःपुर में रानी नहीं है।’ पौष्य ने कहा—’भगवन् ! मेरी रानी पतिव्रता है। उसे उच्छिष्ट या अपवित्र मनुष्य नहीं देख सकता।’ उत्तंक ने स्मरण करके कहा कि ‘हाँ, मैंने चलते-चलते आचमन कर लिया था।’ पौष्य ने कहा–’ठीक है, चलते-चलते आचमन करना निषिद्ध है। इसलिये आप जूठे हैं।’ अब उत्तंक ने पूर्वाभिमुख बैठकर, हाथ-पैर-मुँह धोकर शब्द, फेन और उष्णता से रहित एवं हृदय तक पहुँचने योग्य जल से तीन बार आचमन किया और दो बार मुँह धोया।
इस बार अन्तःपुर में जाने पर रानी दीख पड़ी और उसने उत्तंक को सत्पात्र समझकर अपने कुण्डल दे दिये। साथ ही यह कहकर सावधान भी कर दिया कि नागराज तक्षक ये कुण्डल चाहता है। कहीं तुम्हारी असावधानी से लाभ उठाकर वह ले न जाय!’
मार्ग में चलते समय उत्तंक ने देखा कि उसके पीछे-पीछे एक नग्न क्षपणक चल रहा है, कभी प्रकट होता है और कभी छिप जाता है। एक बार उत्तंक ने कुण्डल रखकर जल लेने की चेष्टा की। इतने ही में वह क्षपणक कुण्डल लेकर अदृश्य हो गया। नागराज तक्षक ही उस वेष में आया था। उत्तंक ने इन्द्र के वज्र की सहायता से नागलोक तक उसका पीछा किया। अन्त में भयभीत होकर तक्षक ने उसे कुण्डल दे दिये। उत्तंक ठीक समय पर अपनी गुरुआनी के पास पहुँचा और उन्हें कुण्डल देकर आशीर्वाद प्राप्त किया। अब आचार्य से आज्ञा प्राप्त करके उत्तंक हस्तिनापुर आया। वह तक्षक पर अत्यन्त क्रोधित था और उससे बदला लेना चाहता था।
उस समय तक हस्तिनापुर के सम्राट् जनमेजय तक्षशिला पर विजय प्राप्त करके लौट चुके थे। उत्तंक ने कहा, ‘राजन्! तक्षक ने आपके पिता को डँसा है। आप उससे बदला लेने के लिये यज्ञ कीजिये। काश्यप आपके पिता की रक्षा करने के लिये आ रहे थे परंतु उन्हें उसने लौटा दिया। अब आप सर्प-सत्र कीजिये और उसकी प्रज्वलित अग्नि में उस पापी को जलाकर भस्म कर डालिये। उस दुरात्मा ने मेरा भी कम अनिष्ट नहीं किया है। आप सर्प-सत्र करेंगे तो आपके पिता की मृत्यु का बदला चुकेगा और मुझे भी प्रसन्नता होगी।’