हिमशिखर धर्म डेस्क
तमिलनाडु में जन्में स्वामी शिवानन्द सरस्वती सनातन धर्म के विख्यात नेता थे. इन्होंने योग, अध्यात्म, वेदांत, दर्शन और अन्य विषयों पर लगभग 300 से अधिक पुस्तकें लिखी. स्वामी शिवानन्द का जीवन आध्यात्मिकता के साथ सरलता का उदाहरण है. इन्होंने डॉक्टरी छोड़ आध्यात्म की राह चुनी और संन्यास लेने के बाद ऋषिकेष में अपना जीवन व्यतीत किया. जानते हैं स्वामी शिवानन्द के जीवन परिचय के बारे में.
कहा जाता है कि, शिवानन्द सरस्वती को एक साधु ने एक आध्यात्मिक पुस्तक दी. उन्होंने इस पुस्तक को पूरा पढ़ा और इसका असर यह हुआ कि उनके मन में वैराग्य का भाव उदय हुआ. हालांकि इससे पहले वे श्री शंकराचार्य, स्वामी रामतीर्थ और स्वामी विवेकानंद के साहित्य भी पढ़ा करते थे और नियमित पूजा-पाठ भी करते थे. लेकिन इस किताब को पढ़ने के बाद अचानक इनके मन में साधना का भाव उदय हो गया और वे 1922 में अपनी नौकरी छोड़कर मलाया से भारत वापस आ गए. घर पर अपना सामान रखा और घर के भीतर प्रवेश किए बिना ही तीर्थ स्थानों के भ्रमण पर निकल पड़े.
कुप्पु स्वामी से कैसे बनें स्वामी शिवानन्द सरस्वती
तीर्थ भ्रमण करते हुए स्वामी शिवानन्द ऋषिकेश पहुंचे. यहां वे कैलाशाश्रम के महंत स्वामी विश्वानन्द सरस्वती से मिले और इनके शिष्य बन गए. स्वामी विश्वानन्द ने इन्हें सन्यास की दीक्षा दी और इस तरह कुप्पु स्वामी का नाम बदलकर स्वामी शिवानन्द सरस्वती रखा.
ऋषिकेश में स्वामी शिवानन्द ने कठिन आध्यात्मिक साधना की. वर्षा और धूप में बैठना, मौन धारण करना, व्रत करना और तपस्या जैसे कई साधना करने लगे. सन् 1932 में उन्होने शिवानन्दाश्रम और 1936 में दिव्य जीवन संघ (Dicine Life Society) संस्था की स्थापना की. आध्यात्म, दर्शन और योग पर उन्होने लगभग 300 पुस्तकों की रचना की. 14 जुलाई 1963 को स्वामी शिवानन्द सरस्वती ने महासमाधि ले ली.
डॉक्टर से योगी बने स्वामी शिवानंद उन आध्यात्मिक गुरुओं में से एक थे, जिन्होंने संपूर्ण विश्व में योग के सिद्धांत का प्रचार किया. निष्काम कर्मयोग के प्रतिपादक होने के नाते उन्होंने स्वार्थरहित सेवा के आदर्श पर बल दिया, जो उच्चतर चेतना प्राप्त करने हेतु शुद्धीकरण की तैयारी है. उन्होंने एक नए योग पैकेज का प्रचार किया, जिसमें कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, राजयोग और मंत्रयोग सज्मिलित किए गए थे.
8 सितंबर, 1887 को दक्षिण भारत के पट्टामदायी गाँव में जनमे स्वामी शिवानंद ने तंजौर चिकित्सा महाविद्यालय से डॉक्टर बनने के बाद तिरुचि में डॉक्टरी का काम शुरू किया. उनका बचपन का नाम कुप्पुस्वामी अय्यर था. सन् 1913 में अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् वे एक रबर इस्टेट के अस्पताल के प्रभारी की हैसियत से काम करने मलेशिया चले गए. वहाँ एक घुमंतू साधु के सान्निध्य में उन्होंने हिंदू धर्मग्रंथों का अध्ययन शुरू किया. सन् 1923 में अपना सब कुछ दान कर डॉक्टर वापस भारत आए और एक वर्ष तीर्थयात्रा में व्यतीत किया. ऋषिकेश में स्वामी विश्वानंद सरस्वती ने उन्हें स्वामी शिवानंद सरस्वती के रूप में दीक्षा दी.वे कई वर्षों तक डॉक्टर के तौर पर रोगग्रस्त भिक्षुओं और तीर्थयात्रियों की सेवा में लगे रहे। सन् 1927 में बीमा पॉलिसी से प्राप्त धन से उन्होंने निःशुल्क आरोग्यशाला की स्थापना की और बद्रीनाथ आने-जानेवाले यात्रियों का मुज्त इलाज करना शुरू कर दिया.
सन् 1932 में शिवानंद आश्रम की स्थापना की और चार वर्ष बाद डिवाइन लाइफ सोसाइटी बनाई और एक पत्रिका ‘द डिवाइन लाइफ’ का प्रकाशन शुरू किया. सन् 1945 में हिमालय की दुर्लभ जड़ी-बूटी से औषधि बनाने के लिए उन्होंने शिवानंद आयुर्वेदिक फार्मेसी की स्थापना की. अपने शिष्यों और आम जनता को प्रशिक्षण देने के लिए उन्होंने सन् 1948 में योग-वेदांत उपवन एकेडमी की स्थापना की. शिवानंद नेत्र अस्पताल की नींव सन् 1957 में रखी गई. भारत, अमेरिका, कनाडा, बर्मा, दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप और दक्षिण अफ्रीका में 137 शाखाओं में फैले संपूर्ण विश्व में स्वामी शिवानंद के हजारों अनुयायी हैं.
स्वामी शिवानन्द सरस्वती के अनमोल सुविचार
- यदि मन को नियंत्रित किया जाता है, तो यह चमत्कार कर सकता है. यदि इसे वश में नहीं किया जाता है, तो यह अंतहीन दर्द और पीड़ा पैदा करता है.
- छोटे-छोटे कामों में भी दिल, दिमाग और आत्मा सब कुछ लगा दो. यही सफलता का राज है.
- आज आप जो कुछ भी हैं वह सब आपकी सोचका परिणाम है. आप आपके विचारों से बने है.
- अपनी पिछली गलतियों और असफलताओं पर बिलकुल भी न उलझे क्योंकि यह केवल आपके मन को दुःख, खेद और अवसाद से भर देगी. बस भविष्य में उन्हें दोहराएं नहीं.
- यह संसार तुम्हारा शरीर है. यह संसार एक महान विद्यालय है, यह संसार आपका मूक शिक्षक है.