सुप्रभातम्: भारतवर्ष में अनादि काल से चल रही यात्रा, जानिए तीर्थ विधान

Uttarakhand

आचार्य चक्रधर जोशी

भारतवर्ष में अनादि काल से यात्रा का परम पावन विधान चला आ रहा है। वैदिक काल में महर्षियों के द्वारा अनेक तीर्थों पर शोध एवं रचनाएं हुई। मन्वन्तरकाल से पुराण काल तक रामायण महाभारत में अनन्त तीर्थाें का विवरण प्राप्त होता है। स्कन्द पुराण के मुख्य चार विभागों-काशी खण्ड, हेमाद्रि खण्ड, रेवाखण्ड और केदारखण्ड में क्रमशः पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं के तीर्थों का विस्तारपूर्वक भौगोलीय-नदी, पर्वत-आधारों पर तीर्थों का परिचय दिया गया है। जिनमें अभी बहुत से अज्ञात भी हैं।

समस्त भारत के परिचय के प्रतीक प्राचीन महर्षियों ने चारधाम-पूर्व में जगन्नाथ, दक्षिण में रामेश्वर, पश्चिम में द्वारिका और उत्तर में बदरीनाथ स्थापित किए। इसके अतिरिक्त सप्तुपरी-अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांची, उज्जैन और द्वारिका तथा द्वादश ज्योतिर्लिंगों-सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकाल, ओंकारेश्वर, वैद्यनाथ, भीमाशंकर, रामेश्वर, नागेश्वर, विश्वनाथ, त्रयंबकेश्वर, केदारनाथ और घृणेश्वर की स्थापना का उद्देश्य समस्त भारत-आर्यावर्त की पूर्ण दर्शन की योजना बनाई। जिनकी यात्रा से समस्त भारत के मूर्तरूप दर्शन हो जाते हैं। इसी प्रकार वैष्णव तीर्थों के रूप में-श्रीरंग, श्रीमुष्ट, तिरुपतिबालाजी, शालग्राम, नैमिषारण्य, तोताद्रि, पुष्कर और नरनारायण क्षेत्र (बदरीनाथ) इस प्रकार अष्ट भूवैकुंठ कहे गए हैं। सनातन धर्म के प्रमुख तीर्थों में गंगोत्री और यमुनोत्री को भी माना गया है।

 

ऐसे ही 18 शक्तिपीठों का जिसमें 64 प्रधान हैं। उनमें कई प्रकट या गुप्त हैं। तात्पर्य यह है कि भारत में विष्णुपीठ, शिवपीठ, शक्तिपीठ, गणपति, सूर्य, कार्तिकेय, भैरवादियों के अनेक पीठ विद्यमान हैं। इनके दर्शन कर उसके उपासक अपने को कृतकृत्य और धन्यजीवन मानते हैं। ये हैं भारत की पवित्र परम्पराऔर जीवन कृतार्थता, इसी पवित्र परम्परा की रक्षा के लिए बीच-बीच में आचार्यों का जन्म हुआ। प्रथम श्री शंकराचार्य हुए, जिन्होंने भारत में चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित कर लुप्तप्राय चार कुंभ पर्वों का पुनरुद्धार किया। हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक। यहां सब साधु समाज एवं आचार्य विद्वत वर्ग मिल कर राष्ट्र की आध्यात्मिक उन्नति के विषय में चर्चा करते थे, जो परम्परा आज तक चली आ रही है।

इसी प्रकार आचार्य रामानुज, आचार्य निम्बार्क एवं आचार्य बल्लभ इन महान तेजस्वी आचार्यों ने अपने वैष्णव मठों की स्थापना कर भारत को एक सूत्र में ग्रथित किया। जिसकी परम्परा आज भी भारत के प्रत्येक धामों में विद्यमान है। इस प्रकार प्राचीन अर्वाचीन तीर्थों के मिश्रण से समस्त राष्ट्र ही तीर्थ हो गया। ऐसा कोई स्थल नहीं जहां कोई तीर्थ न हो। इससे प्रत्यके भारतीय को वेददर्शन के उद्देश्य से तीर्थयात्रा नितान्त का दिग्दर्शन न कर लें तब तक हम स्वदेश और विदेश की तुलना कर भी कैसे सकते हैं? अर्थात् अधिकार भी तो नहीं हो सकता। चाहे वह नैसर्गिक (प्राकृतिक) दृष्टि से हो या आध्यात्मिक।

सर्वप्रथम तीर्थयात्रा को जाने वाले तीर्थयात्री को मनोबल संपादन करना चाहिए, क्योंकि मनोबल ही पहले है। उसके लिए सत्य, क्षमा, इन्द्रियनिग्रह, सर्वप्राणि पर दया, प्रियवादिता, ज्ञान और तप, इनका आचरण होना परम आवश्यक है। इनके आचरण से ही मनोबल की प्राप्ति होती है। मनोबल प्राप्त होने पर कोई भी यात्रा की कठिनाई कष्टप्रद प्रतीत नहीं होती। अब तीर्थों में देखिए-प्रकृति की नैसर्गिक छटा, पर्वत, नदियां, मंदिर उनमें देखिए मानवरचित कला-सौंदर्य का परिय और जीवन की प्रतिदिन प्रतिदिन होने वाली घटनाओं से बाहर निकल कुछ समय के लिए आंतरिक शक्ति का दर्शन, जो हमारे देवालयों के पीछे या एक कल्याणकारी उद्देश्य, जिसके दर्शन से यात्री अपनी प्रसुप्त चेतना की दिव्यता का विकास कर सके। फिर तीर्थ में स्नान कर तीर्थकृत्य एवं श्रद्धायुक्त होकर तर्पण-श्राद्ध अपने पूर्वजों की पुण्यस्मृति में करें।

प्रधान तीर्थों में-काशी, प्रयाग, गया, देवप्रयाग, बदरीनाथ प्रभृति में श्राद्ध परम कर्तव्य है। वैदिक शोधन करने वाले भारतीय विद्वानों के अतिरिक्त विदेशी विद्वानों ने भी श्राद्ध करने पर जोर दिया है। एक विदेशी विद्वान लिखता है कि-‘‘पिता के मरने के बाद श्रद्धा मार्ग से पिता का ऋण चुकाना चाहिए’’। इस उक्त श्रद्धामार्ग का विवेचन इस प्रकार है कि-भारत का वैदिक धर्म पूर्ण विज्ञान के आधार पर है, भले ही आज हम उसे न समझते हों। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि धर्म भी निर्मूल है। वैदिक सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी चलती है और सूर्य स्थिर है, जिसे हजारों वर्ष पूर्व आर्यभट्ट ने सिद्धान्त गणित के आधार पर उस काल में सिद्ध करके बताया है। सूर्य के चारों ओर पृथ्वी घूमती है और पृथ्वी के चारों ओर चन्द्रमा, पृथ्वी और चन्द्रमा का भ्रमण उत्तर ध्रुव से ही आरम्भ होता है। चन्द्रमा में जो केन्द्र स्थान है उस सथान के ऊपर के भाग में जो रश्मि ऊपर की ओर जाती है, उसी रश्मि के साथ पितृगण भी व्याप्त रहते हैं।

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