सुप्रभातम्: प्रकृति के पास है प्रत्येक प्रश्न का उत्तर !

काका हरिओम

Uttarakhand

एक उपन्यास पढ़ा था, भारत के संदर्भ में एक विदेशी लेखक का। उसमें एक ऋषि कुमार के जीवन के कई पहलुओं को चित्रण करते हुए निष्कर्ष के रूप में बताया गया था कि प्रकृति के पास आपके प्रत्येक प्रश्न का उत्तर है।

इस उपन्यास का एक विशिष्ट करेक्टर जो एक साधारण नाविक है और लोगों को नदी पार उतार मिलने वाले धन से अपना गुजर-बसर करता है। ऋषि कुमार को कहता है, “कोई नहीं दे पाएगा तुम्हारे सवालों का जवाब-नाव के चप्पू की आवाज, जल की कलकल करती ध्वनि, सूखे पत्तों का हवा के झोंके से उड़ उड़ कर अपनी कहानी सुनाना, इनमें से कोई भी तुम्हारी जिज्ञासा को शांत करने का साधन बन सकता है। पूछो, इनसे अपने प्रश्नों का उत्तर और समझने की कोशिश करो इनकी भाषा, तुम्हारा मन शांत हो जाएगा, कोई प्रश्न न रहेगा तुम्हारे चित्त में।”

और ऐसा हुआ भी। ऋषि कुमार को जिन प्रश्नों का उत्तर शास्त्रों और अपने समय के महान पुरुषों से नहीं मिल पाया, उन सभी का समाधान प्रकृति ने दिया।

श्रीमद्भागवत में भी प्रकृति के साथ तादात्म्य के संकेत मिलते हैं। महर्षि व्यास जब अपने पुत्र के वियोग में व्याकुल होकर वन के वृक्षों से पूछते हैं कि ‘कहां गया मेरा पुत्र’ तो उन्हें वहां से उत्तर मिलता है।

कुछ ऐसा ही प्रसंग रामायण में आता है। राम-लक्ष्मण को, जो सीता की खोज रहे हैं, वन के पशु-पक्षी बताते हैं कि सीता किस ओर गई है। उन्हें किस ओर ले जाया गया है।

उपरोक्त उदाहरणों का लक्ष्य है यह बताना है प्रकृति की भाषा को यदि आप समझते हैं, वह आपके हित का ही ज्ञान कराती है। और क्यों न हो, ऐसे ही उसे मां कहकर पुकारा नहीं जाता है।

प्रकृति के स्वयं के संबंधों को तलाश यदि मनुष्य करे, तो ऋषियों का चिंतन उसका अत्यंत सर दिव्य पहलू हमारे सामने खोलता है। सृष्टि की संरचना के पीछे ऋषि’ संकल्प’ को कारण मानते हैं। विराट् पुरूप अर्थात् ब्रह्म ने संकल्प किया कि ‘मैं एक हूं, बहुत ही जाऊं,’ इसी इच्छा से वह एक से अनेक नाम-रूपों में प्रकट हो गया। विभिन्न ग्रंथों में सृष्टि रचना की प्रक्रिया को देखकर ज्ञात होता है, इस जड़ चेतन का विस्तार किस प्रकार हुआ।

ऋषि इस संपूर्ण विस्तार की चर्चा करते हुए चाहते हैं कि वह विराट् ईश्वर ही एक से अनेक रूप में परिवर्तित हो गया अर्थात् यह सृष्टि विराट पुरुष अर्थात् ब्रह्म की ही सगुण-साकार रूप में अभिव्यक्ति है। इस प्रकार सब ईश्वर है। सर्व खल्विदं ब्रह्य-यह अखिल विश्व ब्रह्म ही है। इसीलिए प्रकृति को कोई भी स्वयं को अलग नहीं कर सकता। सृष्टि को देखने की यह आध्यात्मिक दृष्टि है, जबकि एक वैज्ञानिक इसे वस्तु की दृष्टि से देखता है। वस्तु की दृष्टि से जब प्रकृति को देखा जाए, तो उसमें मनुष्य उपयोगिता ढूंढता है, तब वह दिव्य और पूज्या नहीं होती, बल्कि भोग्या हो जाती है। एक भौतिकवादी की दृष्टि है यह।

विश्व के प्रबुद्ध वर्ग को भी यह बात समझ नहीं आती थी, वह उपहास उड़ाते थे भारतीय ऋषियों का जब वे आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी पंच महाभूतों की देवता कहकर उपासना करने की सलाह देते थे। वेद मंत्रों में ऐसे विभिन्न देवी-देवताओं से संबंधित अनेक प्रार्थनाएं और स्तुतियां हैं। एक भौतिकवादी व्यक्ति को यह सब कुछ समझ नहीं आता। वह सोचता है ‘मेरी वजह से सब कुछ है।’ उसे लगता है कि प्रकृति की उसके जीवन में कोई भूमिका नहीं है। वह मानता है, प्रकृति तो सौंदर्यविहीन है, जीवंत नहीं है, वहीं उसे तराशता है, सुंदर बनाता है, प्राणवान बनाता है। जबकि ‘देवता’ इसे विशेष संबोधन से पुकार कर एक आध्यात्मिक व्यक्ति कहना चाहता है कि इन्हीं से हमें जीवन मिल रहा है। ये दे रहे हैं, तभी तो देवता है। देवता का अर्थ है-‘दिव्य’ और ‘देने वाला’। इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि जिसका सान्निध्य पाकर, जिससे जुड़कर ही हम दिव्य बन सकते हैं। अर्थात् यदि दिव्यता का अनुभव करना है, तो इससे जुड़ना एक तरह से, पहली शर्त है।

वेदांत ग्रंथों में ‘अहं ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ब्रह्म हूं। इस अनुभूति को ‘परम’ माना गया है। यह ज्ञान ही मुक्ति का परम साधन है। इसी अनुभव से गुजरने के लिए, इसे आत्मसात् करने के लिए ही धर्म, अर्थ और काम-इन पुरूषार्थों को साधना पड़ता है। मुक्ति, मोक्ष परम पुरुषार्थ है, इसलिए पुरुषार्थों का लक्ष्य है यह।

यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि ‘मैं ब्रह्म हूं’ इस ज्ञान को आत्मसात् करने से पहले जिज्ञासु साधक को ‘सर्व खल्विदं ब्राह्म’ अर्थात् यह समस्त चराचर जगत् ब्रह्म का स्वरूप है, इस अनुभव से गुजरना पड़ता है। ब्रह्म की एकता अर्थात्, अद्वैत दर्शन की घटना बाहर से भीतर की ओर घटित होती है।

परमहंस स्वामी रामतीर्थ ने इस उच्च दार्शनिक सिद्धांत को बड़ी सरल भाषा में, रोजमर्रा के जीवन से उदाहरण के तौर पर समझाया है। नव वेदांत अर्थात् वैज्ञानिक अध्यात्मवाद अर्थात् व्यावहारिक वेदांत के चिंतक मनीषियों ने अपनी बात को कहने के लिए धर्मग्रंथों के वाक्यों, संदर्भों को तो उधृत किया ही है, ज्यादा जोर उन अनुभवों पर दिया है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति जाने-अनजाने में नित्यप्रति दो-चार होता है। प्राण हमारी जीवनी शक्ति है। इसे हम अपने वातावरण से प्राप्त करते हैं। वातावरण में, पर्यावरण में यदि प्रदूषण है, तो वह हमारे शरीर को अस्वस्थ करेगा। बाहर का प्रदूषण हमारे शरीर पर नकारात्मक प्रभाव डालेगा। यह स्थिति काफी कुछ उसी प्रकार है, जैसे फेफड़ों के रोगी के होने का दुष्प्रभाव शरीर के अन्य अंगों पर अर्थात् समूचे शरीर पर पड़ता है। इसके प्रभाव से अन्य अंग भी निष्क्रिय होने लगते है। इस प्रकार बाह्य प्रक्ति से मनुष्य की आंतरिक प्रकृति का संबंध स्पष्ट है, अपने निश्चय से भटका देती है। रूप से सिद्ध होता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि शरीर में जो भूमिका अंगों-उपांगों की है, वहीं प्रकृति में हमारी है। अर्थात् यहां भी सह-अस्तित्व का नियम लागू होता है। अर्थात् हमारा अस्तित्व एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। यदि हमें अस्तित्व में रहना है, दूसरों को बनाए रखना हमारी विवशता है। यदि इस नियम का हम उल्लंघन करते हैं, तो जिस शाखा पर बैठे हैं, उसी को काटने की मूर्खता कर रहे हैं।

आपने हिंदुओं द्वारा किए जाने वाले आयोजनों के बाद में की जाने वाली एक सामूहिक प्रार्थना जरूर सुनी होगी, जिसमें सब सुखी हो, यह कामना की जाती है। ऋषि कहते हैं- ‘सब सुखी हों, सब निरोगी हों, सब (सदैव) कल्याण (शुभ) को ही देखें, किसी को कभी कोई दुःख न हो।’ यह प्रार्थना मानव से समूचे विश्व के संबंधों की ओर संकेत करती है। ऋषि जय सबके सुख, निरोगी होने, कल्याणयुक्त होने की कामना करते हैं तो उन्हें वह सब सहजरूप में, बिना किसी प्रयास के, स्वतः मिल जाता है, जिसे वह सबके लिए चाह रहे हैं।

प्रकृति के साथ एकत्व की यह वैदिक भावना ही हमारी भारतीयों की मूल भावना है। इसमें परस्पर त्याग है। हम यदि वृक्षों को कार्बनडाइऑक्साइड देते हैं, जो उनके अस्तित्व के लिए जरूरी है। तो वो बदले में हमें ऑक्सीजन देते हैं, जिसके बिना अपने अस्तित्व की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। हम यदि यह सोचें कि उन्हें देंगे कुछ नहीं, बस लेंगे ही लेंगे, तो यह मूर्खता नहीं तो और क्या है। और अभी पिछले कुछ वर्षों में हमने खूब जम कर ऐसा किया है। जंगल, पहाड़, खेत सभी इस बात साक्षी है कि हमने उनके साथ क्या-क्या किया है। बीच-बीच में जब प्रकृक्ति अपने तरीके सबक सिखा कर भविष्य के लिए सावधान करती है, तो कुछ समय के लिए सहम जाते हैं, लेकिन फिर ‘भोगदृष्टि’, जिसमें व्यक्ति सिर्फ अपने बारे में ही सोचता है, हमें भ्रमित कर देती हैं, अपने निश्चय से भटका देती है।

समूचे विश्व में आ रही प्राकृतिक आपदाओं ने बता दिया है कि हम जो कुछ कर रहे हैं, वह आटे में नमक की तरह नहीं है, क्योंकि इतनी सहनशीलता तो प्रकृति में है, लेकिन हमने सारा गणित ही मानो उलट दिया है। ऐसे में स्वाभाविक है कि प्रकृक्ति भी अपनी तरह से काम करे और उसने वैसा किया। उसने सब उथल-पुथल कर दिया। जो यह मान रहे थे कि प्रकृति को उन्होंने अपनी मुट्ठी में कर लिया है, उन्हें मुंह की खानी पड़ी। वो भी विवश होकर प्रकृति का जोरदार तांडव देखते रहे।

भारतीय चिंतन के अनुसार यदि इसका विवेचन करें तो यह ईश्वर ही प्रकोप था। साथ हम सब जानते हैं कि उसकी लाठी की आवाज नहीं होती। वह अपने नियमों और अनुशासन के अंतर्गत गुनहगार को दंड देती है। उसने दिया भी। यहां एक बात और समझने की आवश्यकता है कि प्रकृति के संतुलन को जब हम सभी बिगाड़ रहे हैं, तो फिर उसे दोषमुक्त करने के लिए किसी एक डिपार्टमेंट या एक वर्ग विशेष से अपेक्षा क्यों करें। क्या इस बारे में हमें मिलकर काम नहीं करना चाहिए। विकास के नाम पर प्रकृति के साथ किए जा रहे अत्याचार के परिणामों के बारे में पहले हम स्वयं समझें, फिर अपने परिवार के सदस्यों को जानकारी दें। अपने-अपने और क्षमता के क्षेत्र में पूरी ईमानदारी से प्रयास करें, तो यह कार्य बिना किसी हल्ले-गुल्ले, नारेबाजी, तामझाम के पूर्ण हो सकता है। मैं अक्सर यह सोचता हूं कि ‘राजनीति’ की जिससे बात करो, वह इससे बचना चाहता है, लेकिन फिर भी वह प्रत्येक समस्या का हल इसी में ढूंढता है। जो बिना पेंदे के लोटे के स्वयं ही इधर-उधर लुढ़कती रहती है, जिसमें टिकाव नहीं है, उससे ‘मानवता’ के कल्याण की उम्मीद भला कैसे की जा सकती है। यहां मैं एक बात फिर से दोहरा रहा हूं कि प्रकृति के इस विराट् शरीर में आप जो भी डालेंगे, प्रकृति को आप को कुछ भी देंगे, वह उसे उसी रूप में आपको वापस कर देगी। इसलिए सावधान हो जाइए, कुछ भी करने से पहले…।

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