सुप्रभातम्: वर्तमान काल में श्रीहनुमदुपासना की आवश्यकता

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं, दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं, रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ।।

जो अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्यरूपी वन को ध्वंस करने के लिये अग्निरूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, सम्पूर्ण गुणों के निधान, वानरोंके स्वामी और श्रीरघुनाथजी के प्रिय भक्त हैं, उन पवनपुत्र श्रीहनुमानजी को मैं प्रणाम करता हूँ।

इस पवित्र भारत भूमि पर जन्म-प्राप्त प्रत्येक धर्माभिमानी व्यक्ति श्रीमद् रामायण को अवश्य जानता है, साथ ही वह उसके प्रतिपाद्य मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जीवनी भी न्यूनाधिक रूप से जानता ही है। यह पवित्र ग्रन्थ हमारा मार्गदर्शक है। श्रीरामजी की जीवनी हमारे लिये आदर्श है। हमारे सारे उत्तम संस्कार और आचरणों पर रामायणका प्रभाव है ही। हमारी माताएँ बचपनमें ही हमें श्रीराम-कथा सुनाती हैं।

कीर्तनमण्डलियाँ भी श्रीरामजीके भजन गाकर लोगों को आनन्द-सागर में निमग्न कर देती हैं। एक ही रामायणमें माता-पिता, पति-पत्नी, पिता-पुत्र, सहोदर-बन्धु, राजा-प्रजा एवं स्वामी-सेवक-इन सबको अपने एवं दूसरों के प्रति कर्तव्यता के लिये जो कुछ सीखना होता है, मिल जाता है। यद्यपि श्रीरामायण के प्रधान नायक मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम ही हैं, तथापि इसमें सुन्दरकाण्ड से आगे तो श्रीरामभक्त हनुमानजी की ही जीवनी- चरित्रचित्रण अधिक विस्तार से देखने को मिलता है। रामायणमें कुल सात काण्ड है। उसके चौथे किष्किन्धाकाण्ड के आरम्भमें ही श्रीहनुमानजी आते हैं। वहाँ पर उनके गुणोंका अच्छा परिचय मिलता है।

इस धरा पर अर्थ काम के धर्म-नियन्त्रित न होने से अमर्यादित एषणाएँ पल्लवित, पुष्पित एवं फलित हो रही हैं। लोग अभक्ष्यभक्षण आदि प्रवृत्तियोंमें फैसकर – विमोहित होकर व्यक्ति, समाज, देश एवं राष्ट्रके प्रति अपने कर्तव्य से परिभ्रष्ट हो रहे हैं। जहाँ धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता के अंश विद्यमान भी हैं, वहाँ भी उनके आवरण में दम्भ, पाखण्ड आदि दुष्प्रवृत्तियाँ कार्य कर रही है। इस विषम विमोहक दुःस्थिति में अञ्जनी-नन्दन, कैसरी-कुमार बालब्रह्मचारी श्रीहनुमान जी की उपासना परमावश्यक है; क्योंकि उनके चरित्रसे हमें ब्रह्मचर्य व्रत-पालन, चरित्र-रक्षण, बल-बुद्धिका विकास, अपने इष्ट भगवान् श्रीराम के प्रति अभिमानरहित दास्य-भाव आदि गुणों की शिक्षा प्राप्त होती है।

देवो भूत्वा देवं यजेत्‘ – यह उपासना का मुख्य सिद्धान्त है और इसका ‘उप’ अर्थात् समीप, ‘आसना’ अर्थात् स्थित होना अर्थ है। जिस उपासना द्वारा अपने इष्टदेव में उनकी गुण-धर्म-रूप शक्तियों में सामीप्य-सम्बन्ध स्थापित होकर तदाकारता हो जाय, अभेद-सम्बन्ध हो जाय, यही उसका तात्पर्य एवं उद्देश्य है।

आज की इस विषम परिस्थिति में मनुष्यमात्र के लिये, विशेषतया युवकों एवं बालकों के लिये भगवान् हनुमान की उपासना अत्यन्त आवश्यक है। हनुमानजी बुद्धि-बल प्रदान करके भक्तों की रक्षा करते हैं। भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस आदि उनके नामोच्चारणमात्र से ही भाग जाते हैं और उनके स्मरण मात्र से अनेक रोगों का प्रशमन होता है। मानसिक दुर्बलताओं के संघर्ष में उनसे सहायता प्राप्त होती है। गोस्वामी तुलसीदासजीको श्रीराम के दर्शन में उन्हीं से सहायता प्राप्त हई थी। वे आज भी जहाँ श्रीराम कथा होती है, वहाँ पहुंचते हैं और मस्तक झुकाकर रोमाञ्च-कण्टकित होकर, नेत्रों में अश्रु भरकर श्रीराम-कथा का सादर श्रवण करते हैं। इस प्रकार वे एवं भगवद्भक्तों में अव्यक्त रूप से उपस्थित होकर उनकी भक्ति-भावनाओं का पोषण करते हैं। आज भी अधिकांश श्री भक्तों को उनके अनुग्रह का प्रसाद मिलता है। अतः उनकी ही कृपा की उपलब्धि के लिये शास्त्रों में प्रतिपादित उपासना-पद्धति के अनुसार, जिसमें श्रीहनुमदुपासना विस्तारसे वर्णित है, उपासनामें ना संलग्न होने से अनेकों प्रकार की लौकिक-पारलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं। भारत को समुन्नत बनाने के लिये भौतिक क्षेत्र में भी अनेकों कार्य किये जा रहे हैं, किंतु जितना आध्यात्मिक पक्ष पर बल दिया जाना चाहिये, उतना नहीं दिया जा रहा है। फलतः भौतिक समृद्धि मनुष्य के लिये वरदान न बनकर अभिशाप होने जा रही है। ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रको जिस आदर्श की आवश्यकता है, वह मूर्तिमान् होकर हनुमच्चरित्र में उपलब्ध होता है। हनुमानजी भगवत्तत्त्व विज्ञान, पराभक्ति और सेवा के ज्वलन्त उदाहरण हैं। विचारों की उत्तमताके साथ भगवदनुरक्ति और सेवा व्यक्तित्व के पूर्ण विकास की द्योतक हैं, जो हनुमानजी के चरित्र में देखी जा सकती हैं। भारतके भटकते हुए नवयुवकोंको हनुमानजीसे बहुत बड़ी प्रेरणा प्राप्त हो सकती है।

हनुमानजी बालब्रह्मचारी हैं। उनके ध्यान एवं ब्रह्मचर्यानुष्ठान निर्मल अन्तःकरण में भक्ति का समुदय भली प्रकार होता है हनुमानजीके चरित्र में शक्तिसंचय, उसक भक्ति, निरभिमानिता आदि का पूर्ण विकास होने के कारण उनकी आराधना से इन गुणों की उपलब्धि साधक युवकों और बालकों को भी प्राप्त हो सकेगी।

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