हिमशिखर धर्म डेस्क
‘गुरु बिना गति नहीं,’ आम धारणा है यह ! इसीलिए लोग गुरु धारण करते हैं, दीक्षा ले लेते हैं लोग, बिना जांचे-परखे। तर्क होता है कि शिष्य कैसे गुरु को परख सकता है। परखने के लिए जांचने वाले का स्तर भी गुरु की कोटि का होना चाहिए। लेकिन यह एक तरह का कुतर्क है, क्योंकि शास्त्रों ने इस बारे में कुछ स्पष्ट निर्देश दिए हैं। जैसे कि शिष्य का मानसिक स्तर जिस रूप में विकसित होता है, उसका आकर्षण वैसे ही गुरु के प्रति होता है। यह प्रकृति का भी नियम है।
ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैं। महर्षि विश्वामित्र अपने दिव्यास्त्रों को श्रीराम को देकर कृतकृत्य के भाव से भर गए। श्रीराम के अलावा और भी राजकुमार थे, लेकिन गुरु ने योग्य शिष्य का चुनाव किया। इस मान्यता के अनुसार योग्य शिष्य को योग्य गुरु की प्राप्ति सहज रूप से हो जाती है, उसे खोजने की आवश्यकता नहीं है।
उपनिषदों के ऋषि कहते हैं कि जब प्रबल जिज्ञासा हो, तो उसकी शांति के लिए गुरु के पास जाएं। जिज्ञासा ही योग्यता है सबसे बड़ी शिष्य की। कैसे गुरु के पास जाएं? उत्तर दिया, ‘श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाएं।’ श्रोत्रिय का अर्थ है, जिसने परंपरा से शास्त्र चिंतन किया है। जिसका अध्ययन साधना से युक्त है। क्योंकि मात्र पढ़ने से, शास्त्रज्ञाता होने से निष्ठा नहीं पनपती। साधना से निष्ठा का अंकुरण होता है।
यह निष्ठा ही शिष्य में विश्वास पैदा करती है कि जो कहा जा रहा है, वह शब्दाडंबर मात्र नहीं है, वह व्यावहारिक है। गुरु स्वयं उसका जीता जागता रूप है। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि जिज्ञासु शिष्य के सामने वही गुरु ठहर पाता है, जिसमें उस सिद्धान्त के प्रति परमनिष्ठा होती है, जिसे वह शब्दों के द्वारा व्यक्त कर चुका है।
नरेंद्र ने पूछा परमहंस से, ‘‘उस ईश्वर को देखा है, जिसकी बात करते हो?’’ ‘‘देखा नहीं, देख रहा हूं।’’ रामकृष्ण देव ने बिना एक क्षण गंवाए जवाब दे दिया। ऐसा उत्तर वही दे सकता है, जो निष्ठा युक्त हो।
आज इस संदर्भ में जो कुछ हो रहा है, उसमें कोई और दोषी नहीं है, हम स्वयं दोषी हैं। यह बात सही है कि ‘गुरु के बिना गति नहीं,’ लेकिन यह भी एक यथार्थ है-‘पानी पीओ छानकर, गुरु बनाओ जानकर’।
ध्यान रहे, बुराई जब भी अपना काम करती है, तो सहारा अच्छाई का ही लेती है। हम ठगे जाने के लिए खुद तैयार हैं, इसलिए किसी को दोषी कहने का हमारा कोई अधिकार नहीं बनता है।