सुप्रभातम् : प्रकृति अर्थात् परमात्मा की अनुपम और अतिविशिष्ट कृति

 

Uttarakhand

काका हरिओम्

प्रकृति की रचना के लिए परमात्मा-ब्रह्म को ईश्वर बनना पड़ा. उसमें कोई संकल्प नहीं है फिर भी उसे संकल्प करना पड़ा एक से बहुत होने का और ऐसा ही हुआ. उसने माया का, अपनी शक्ति का आश्रय लेकर सृष्टि को रचा. ध्यान रहे शक्ति और शक्तिमान् में कोई भेद नहीं होता, इस प्रकार उसने स्वयं से ही संसार को बनाया.

पांच महाभूतों की क्रमशः उत्पत्ति का शास्त्रों में वर्णन आता है. सर्वप्रथम आकाश फिर वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी यह क्रम है. यह संसार की निर्मिति का मूल है. इसीलिए तुलसीदास इस जगत को पंचरचित कहते हैं. इसमें फिर मन, बुद्धि और अहंकार को भी जोड़ दिया गया. अब इनकी संख्या हो गई 8. श्री कृष्ण गीता में इसे ही अष्टधा अर्थात् 8 प्रकार की प्रकृति कहते हैं-
भूमिरापोनलोवायुः
खं मनोबुद्धिरेव च
अहंकार इतीयं मे
भिन्ना प्रकृतिरष्टधा.

मां दुर्गा को प्रकृति का प्रतीक माना गया है. इसीलिए उन्हें अष्टभुजा के रूप में दर्शाया गया है. वह समस्त देवताओं का तेज हैं. उनके दिव्य आयुधों धारण करती हैं. जो उन्हें बलपूर्वक परजित करना चाहता है, वह उसे नष्ट कर देती हैं.जो मातृरूप में उनसे याचना करता है वह उसे अपना सर्वस्व दे देती हैं.

हम क्या कर रहे हैं, जरा निरीक्षण करें अपना. प्रकृति की उपेक्षा करके क्या हम ईश्वर का अपमान नहीं कर रहे हैं? क्या जबर्दस्ती मां का दोहन नहीं कर रहे हैं? देवताओं का निरादर यदि हम करेंगे, तो दैवीय प्रकोप तो हमें झेलना ही होगा?

किसी ने सही कहा है कि बीज बोने से लेकर फसल काटने के बीच में समय की दूरी इतनी होती है कि हमें याद नहीं रहता कि बीज कौन-सा और किसका डाला था. बबूल के बीज से आम तो नहीं उगेगा.

कहते हैं, बुद्धिमान के लिए इशारा काफी होता है. इसलिए आप अब तो समझ जाइए.

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