सुप्रभातम्: मोटे अनाजों को थाली और खेत में वापस लाने की जरूरत

स्वामी कमलानंद (डा. कमल टावरी)

Uttarakhand

पूर्व सचिव, भारत सरकार


खानपान के इतिहास पर गौर करें तो ज्यादा नहीं, आज से सिर्फ 50 साल पहले हमारे खाने की परंपरा  बिल्कुल अलग थी। हम मोटा अनाज खाने वाले लोग थे। मोटा अनाज मतलब- ज्वार, बाजरा, रागी (मंडुआ), कोदा और इसी तरह के मोटे अनाज। पारंपरिक तौर पर पौष्टिकता, पानी व खाद की कम आवश्यकता और जटिल परिस्थितियों में भी आसानी से उपजने की खूबी के कारण मोटे अनाजों की खेती की जाती है। एक समय भारत में लगभग हर घर में खाने की थाली में कोई न कोई मोटा अनाज अवश्य मिल जाता था। जिस अनाज को हम सदियों से खा रहे थे, उससे हमने मुंह मोड़ लिया और आज पूरी दुनिया उसी मोटे अनाज की तरफ वापस लौट रही है।

देश में पैदा की जाने वाली मुख्य मिलेट फसलों में ज्वार, बाजरा और रागी का स्थान आता है। छोटी मिलेट फसलों में कोदा, कुटकी आदि की खेती की जाती है। जलवायु परिवर्तन के दृष्टिकोण से भी ये फसलें अत्यंत उपयोगी हैं जो कि सूखा सहनशील, अधिक तापमान, कम पानी की दशा में और कम उपजाऊ जमीन में भी आसानी से पैदा कर इनसे अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है। इसलिए इनको भविष्य की फसलें और सुपर फूड तक कहा जा रहा है।

मोटा अनाज इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनके उत्पादन में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती। ये अनाज कम पानी और कम उपजाऊ भूमि में भी उग जाते हैं। धान और गेहूं की तुलना में मोटे अनाज के उत्पादन में पानी की खपत बहुत कम होती है। इसकी खेती में यूरिया और दूसरे रसायनों की जरूरत भी नहीं पड़ती। इसलिए ये पर्यावरण के लिए भी बेहतर है।

जलवायु परिवर्तन के इस दौर में मोटे अनाज से काफी उम्मीदें की जा रही हैं। मोटे अनाज चावल और गेहूं की अपेक्षा जलवायु परिवर्तन से कम प्रभावित होते हैं। मोटे अनाज पर बारिश की पानी पर ज्यादा निर्भर भी नहीं होते। यह सभी जानते हैं कि मानसूनी बारिश में लगातार कमी आ रही है।

मोटे अनाज की तुलना में चावल की पैदावार बारिश के कम या ज्यादा होने से अधिक प्रभावित होती हैं। ऐसे में जहां चावल खेती ज्यादा प्रभावित होती है वहां मोटे अनाज की खेती विकल्प हो सकती है। खाद्य आपूर्ति बनाए रखने के लिए मोटे अनाज की खेती जरूरी है।

ज्वार, बाजरा और रागी की खेती में धान के मुकाबले 30 फीसदी कम पानी की जरूरत होती है। एक किलो धान के उत्पादन में करीब 4 हजार लीटर पानी की खपत होती है, जबकि मोटे अनाजों के उत्पादन नाममात्र के पानी की खपत होती है। मोटे अनाज खराब मिट्टी में भी उग जाते हैं। ये अनाज जल्दी खराब भी नहीं होते। 10 से 12 साल बाद भी ये खाने लायक होते हैं। मोटे बारिश जलवायु परिवर्तन को भी सह जाती हैं। ये ज्यादा या कम बारिश से प्रभावित नहीं होती।

साबुत अनाज, नट्स, फलियां अत्यधिक पोषक होते हैं और ये हमें मधुमेह, कैंसर और हृदय रोगों जैसी गैर-संचारी बीमारियों से बचाते हैं। मिलेट्स यानी मोटा अनाज स्वास्थ्यकर और अधिक गुणकारी विकल्प के रूप में होता है। मोटा अनाज पारंपरिक अनाज है, जो पिछले पांच हजार वर्ष से भी ‘ज्यादा समय से भारतीय उपमहाद्वीप में उगाया जाता रहा है और खाद्यान्न के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। अन्य फसलों की तुलना में इसमें पानी और रासायनिक इनपुट की कम जरूरत पड़ती है। श्री अन्न के रूप में भी चर्चित मोटे अनाज की ‘ज्यादातर फसलें देशज हैं और इन्हें लोकप्रिय पोषक अनाज के रूप में जाना जाता है। मोटा अनाज सूखा-सहिष्णु, जलवायु-लचीली फसल है। समय की मांग है कि हम यह समझें कि इसकी उत्पादकता बढ़ाना महत्त्वपूर्ण है। अनुसंधान एवं विकास, फसलों की अच्छी देखभाल और एक मजबूत आपूर्ति शृंखला भी जरूरी है।

भारत, नाइजीरिया और चीन दुनिया के सबसे बड़े मोटा अनाज उत्पादक देश हैं। दुनिया की लगभग 55 फीसदी मिलेट्स की पैदावार इन देशों में होती है। कई वर्षों तक भारत मोटे अनाज का एक प्रमुख उत्पादक देश था। हमारे पूर्वज मौजूदा पीढ़ी की तुलना में इसके लाभों से ज्यादा अवगत थे। मोटे अनाज में स्वास्थ्य को बढ़ावा देने वाले कई गुण हैं, विशेषकर यह उच्च फाइबर से युक्त है। मोटा अनाज इसीलिए रोगियों के लिए गेहूं या ग्लूटेन युक्त अनाज का विकल्प हो सकता है।

मोटे अनाज को आहार में नियमित इस्तेमाल करने के अत्यधिक लाभ हैं। ग्लाइसेमिक इंडेक्स कम होने, खनिज, फाइबर से युक्त होने और एंटीऑक्सीडेंट के कारण यह मोटापा, मधुमेह और जीवनशैली से जुड़ी चुनौतियों से निपटने में मदद करता है। यह अनाज अत्यधिक पौष्टिक होता है और अपने उच्च पोषक तत्वों के लिए जाना जाता है। इन तत्वों में प्रोटीन, आवश्यक फैटी एसिड, आहार फाइबर, विटामिन बी, कैल्शियम, आयरन, पोटेशियम और मैग्नीशियम आदि शामिल होते हैं। ये पोषण संबंधी सुरक्षा तो प्रदान करते ही हैं, विशेषकर बच्चों और महिलाओं में पोषण संबंधी कमी को भी दूर कर सकते हैं। मोटे अनाज का वैश्विक उत्पादन बढ़ाने, प्रसंस्करण और फसल चक्र को बेहतर बनाने और खाद्य टोकरी के प्रमुख घटक के रूप में मोटे अनाज को बढ़ावा देने के प्रयासों को आगे भी जारी रखने चाहिए।

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