व्यक्ति को समझने में अकसर हम भूल कर जाते हैं। बुद्धि सही निर्णय लेने में अकसर चूक जाती है। सामान्य दृष्टि द्वारा विशिष्ट को भला कैसे परखा जा सकता है। भगवान श्रीकृष्ण ने संकेत दिया है- ‘मनुष्य रूप में अवतरित मुझे समझने में अविवेकी लोग हमेशा भूल करते हैं। वो मेरी भगवत्ता को नहीं जान पाते।’ किसी भी व्यक्ति की सही पहचान इस बात पर निर्भर करती है कि उसके संदर्भों की कोई कड़ी टूट तो नहीं रही या उपेक्षा तो नहीं हो रही है।
हिमशिखर धर्म डेस्क
भारत भूमि मेरा शरीर है, कन्याकुमारी मेरे पैर हैं और हिमालय मेरा सिर” एक ऐसा उदघोष जो सत्य से उपजा हो जिसने करोड़ों निरुत्साहित लोगों के हृदय में उत्साह भरा हो, जिनके सिद्धांत, जिनके वचनों ने करोड़ों-करोड़ों उदास और हताश हृदय में फिर से उम्मीद जगाई हो।
हम बात कर रहे हैं, भारत के एक महान गणितज्ञ संत, महान फिलॉसफर स्वामी रामतीर्थ जी की। स्वामी रामतीर्थ की गिनती सनातन धर्म के उन महान प्रतिनिधियों में होती है, जिन्होंने भारत के बाहर विदेशों में भी सनातन धर्म की ध्वजा लहराई हो। स्वामी रामतीर्थ का जन्म 22 अक्टूबर 1873 में दीपावली के दिन पंजाब के गुजरावालां जिले के मुरारीवाला ग्राम में हुआ था। बचपन में इनका नाम तीर्थराम था। तीर्थराम बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे उन्होंने गणित विषय में एम.ए. की पढ़ाई की थी तथा उसके बाद उसी कॉलेज में प्रोफेसर के रूप में नियुक्त हुए थे, वे अपने वेतन का एक बहुत बड़ा हिस्सा गरीब विद्यार्थियों की पढ़ाई के लिए खर्च करते थे। लाहौर में उन्हें स्वामी विवेकानंद के प्रवचन सुनने तथा सानिध्य प्राप्त करने का अवसर मिला। 1901 में प्रोफेसर रामतीर्थ ने लाहौर से अंतिम विदा ले हिमालय की ओर प्रस्थान किया तथा उसके बाद टिहरी में उन्होंने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य आत्म साक्षात्कार को प्राप्त कर लिया, जिसके बाद वे तीर्थराम से स्वामी रामतीर्थ हो गए और अपना जीवन उन्होंने लोक सेवा के लिए समर्पित कर दिया।
स्वामी रामतीर्थ ने भारत के साथ-साथ जापान, अमेरिका तथा मिस्र में भी ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। वे जहां भी गए वहां उन्होंने यही एक बात कही कि “आप लोग देश और ज्ञान के लिये सहर्ष प्राणों का उत्सर्ग कर सकते हैं। यह वेदान्त के अनुकूल है। पर आप जितना सुख साधनों पर भरोसा करते हैं उसी अनुपात में इच्छाएँ बढ़ती हैं। शाश्वत शान्ति का एकमात्र उपाय है आत्मज्ञान। अपने आप को पहचानो, तुम स्वयं ईश्वर हो ।” सन् 1904 में स्वदेश लौटने पर लोगों ने स्वामी राम से अपना एक समाज खोलने का आग्रह किया। राम ने बाँहें फैलाकर कहा, भारत में जितनी सभा समाजें हैं, सब राम की अपनी हैं । राम मतैक्य के लिए हैं, मतभेद के लिए नहीं; देश को इस समय आवश्यकता है एकता और संगठन की, राष्ट्रधर्म और विज्ञान साधना की, संयम और ब्रह्मचर्य की। भारत के साथ तादात्म्य होने वाली भविष्यवाणी उन्होंने की थी-“चाहे एक शरीर द्वारा, चाहे अनेक शरीरों द्वारा काम करते हुए रामप्रतिज्ञा करता है कि बीसवीं शताब्दी के अर्धभाग के पूर्व ही भारत स्वतन्त्र होकर उज्ज्वल गौरव को प्राप्त करेगा । 1906 में दीपावली के दिन ही उन्होंने मृत्यु के नाम संदेश लिखकर गंगा में जलसमाधि ले ली । रामतीर्थ के जीवन का प्रत्येक पक्ष आदर्शमय था वे एक आदर्श विद्यार्थी, आदर्श गणितज्ञ, अनुपम समाज-सुधारक व देशभक्त, दार्शनिक कवि और प्रज्ञावान सन्त थे । स्वामी रामतीर्थ जी का एक संदेश था जोकि अत्यंत मार्मिक है उन्होंने कहा था कि “हिन्दी में प्रचार कार्य प्रारम्भ करो। वही स्वतन्त्र भारत की राष्ट्रभाषा होगी।”
इस वचन से ही पता चलता है कि उनके हृदय में हिंदी भाषा का क्या महत्व था, लेकिन आज ये भारत का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि यहां के लोगों को हिंदी बोलने में शर्म महसूस होती है और भारतवासी अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। ऐसी महान संस्कृति है हमारी जिसके सिद्धांतों का पालन करके तीर्थराम, स्वामी रामतीर्थ बन गए और आज सारा विश्व उन्हें वंदन करता है, उनके सिद्धांतों को मानता है। भारतीय संस्कृति की महिमा ही अद्भुत है, आजकल अधिकतर लोग जो थोड़ा बहुत पढ़ लिख लेते हैं तो स्वयं को ज्ञानी मान, अपनी संस्कृति से किनारा कर लेते हैं और अपने धर्म का अपमान करते हैं, उन्हें रामतीर्थ जी के जीवन से शिक्षा लेनी चाहिए। स्वामी रामतीर्थ ने गणित जैसे विषय के प्रोफेसर होने के बावजूद अपनी संस्कृति का अपमान नहीं किया वरन उसका प्रचार-प्रसार किया। आज जहां भारत के लोग अपनी संस्कृति की महत्ता को भूल पाश्चात्य से प्रभावित हो रहे हैं वहीं पश्चिम के लोग भारतीय संस्कृति के सिद्धांतों और नियमों का पालन करते हैं। हम बार-बार यही कहते आए हैं कि इमारत की नींव जितनी मजबूत होती है, इमारत उतना ही मजबूत होता है, ठीक ऐसे ही आध्यत्म सुखी जीवन का मूल है, जो व्यक्ति जितना आध्यत्मिक होता, उतना ही सुखी तथा उन्नत होगा। हमारी संस्कृति में ऐसे ही कई बड़े-बड़े और महान संत हुए हैं जिनके आगे दुनिया झुकी है, लेकिन उनकी कद्र नहीं हो पाई…