निर्वाण दिवस पर विशेष: स्वामी रामतीर्थ ने आत्महत्या नहीं की थी, मौत को दी थी खुली चुनौती

पंजाब के गुजरांवाला जिले के मुरारीवाला गांव में जन्मे स्वामी रामतीर्थ ने पुरानी टिहरी को अपनी कर्म स्थली चुना था। 33 साल की आयु में 17 अक्टूबर 1906 को पुरानी टिहरी में परमहंस स्वामी रामतीर्थ ने मृत्यु के नाम संदेश लिखकर समाधि ले ली। बेहद कम उम्र में उन्होंने दुनिया के समक्ष संन्यासी जीवन का ऐसा दृष्टांत प्रस्तुत किया, जो पीढ़ियों तक लोगों को प्रेरित करती रहेगी। आज इस महा मानव का 118 वां निर्वाण दिवस है। 

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हवामंशिखर धर्म डेस्क

श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 6 के अंतिम श्लोकों की व्याख्या करते हुए भगवान के इस कथन को स्पष्ट किया गया, जिसमें वह कहते हैं-तस्माद्योगी भवार्जुन, अर्थात् अर्जुन तू योगी हो. यहां भगवान तीन लोगों का नाम लेते हैं-तपस्वी, ज्ञानी और सकाम कर्म करने वाले का. तपस्वी वह है, जो चिपक गया है किसी साधन से. द्वार तक पहुंच तो गया पर भीतर नहीं जा पा रहा है. और ज्ञानी जानकर भी उससे जुड़ नहीं पा रहा है, जिसे उसने जाना है. थोथा ज्ञान है उसका. रट्टू तोता है वह. जबकि सकाम कर्म करने वाला उलझन को खुद बुलावा दे रहा है. वह सुलझाना ही नहीं चाह रहा है जीवन को. और आखिर में खुद शिकार हो जाता है मकड़ी की तरह खुद के बुने जाले का.

अर्जुन तू इसलिए योगी हो, क्योंकि यह इन सबसे श्रेष्ठ है. यहां बनने और होने के अन्तर को भी समझना होगा. बनने में बनावट है. जबकि होने में सहजता है. बनने में पोल खुलने का खतरा है. जबकि होना अस्तित्व में स्थिति है.

बादशाह राम ने महा निर्वाण अर्थात् जलसमाधि ली थी. स्वामी जी ने आत्महत्या की ऐसा मानने वालों को तत्वज्ञानी की अलग अलग भूमिकाओं की सम्भवतया जानकारी नहीं है. वह इस बात की कल्पना नहीं कर सकते कि जिसने सब पा लिया, जो देहों की आसक्ति से ऊपर उठ गया उसमें जिजीविषा भी नहीं रहती है. वह जीने के लिए संघर्ष नहीं करता है.एक साधारण बुद्धि को यह बात समझ नहीं आती है. उसका तो अपना गणित है.

पूरन जी ने लिखा है, जब स्वामी जी दीपावली के दिन स्नान करने भिलंगना में गए, तो वह बहुत कमजोर थे. कई दिनों से उन्होंने अन्न नहीं खाया था. लिक्विड पर रह रहे थे. उनके घुटने पर चोट लगी थी. उन्होंने डुबकी लगाई और पैर फिसल गया. कोशिश की लेकिन भंवर में फंस गए. बस उन्होंने भावी को स्वीकार कर लिया.

पूरनजी ने स्वामी जी से अपने आखिरी मिलन का जिक्र करते हुए लिखा है कि उन्हें इस बात का आभास हो गया था कि शरीर अब ज्यादा दिनों तक साथ देने वाला नहीं है. ऐसा इसलिए था कि अब विश्वानुभूति की स्थिति से नीचे उतर पाना उनके बस से बाहर हो गया था. शरीर भी उन्हें भाररूप लगने लगा था. स्वामी जी ने किस सहजता से मृत्यु को स्वीकार किया, उसे जानने के लिए उन वाक्यों, दिव्यभावों को पढ़ना चाहिए जिन्हें लिखते हुए बीच में उठकर वह दीप पर्व पर स्नान करने गए थे.

यह विवरण भी मिलता है कि बाद में जब उनका पार्थिव शरीर मिला, तो उनके होंठों की आकृति कुछ इस प्रकार की थी, मानो वे उसे समय भी अपने उस प्रिय महामंत्र ॐ का गान कर रहे हों जब घटाकाश महाकाश में विलीन हो रहा था.

विदित हो कि महान पुरुषों का जन्म और जीवन जितना रहस्यमय होता है उससे भी रहस्यमय होता है उनका अपनी जीवन लीला समेटना अर्थात् महा-निर्वाण. इसीलिए उस पर जब विचार किया जाता है, जब उसकी चर्चा की जाती है तो उसे कहा जाता है पुण्यस्मरण.

जल समाधि लेने के कुछ क्षण पूर्व स्वामी राम ने मृत्यु को आह्वान करते हुए संकेत किया, जिसका उल्लेख कई पुस्तकों में मिलता है.

ब्रह्मा, विष्णु, शिव, चंद्र, गंगा, भारत !

‘ऐ मौत ! बेशक उड़ा दे इस एक जिस्म को, मेरे और अजसाम (शरीर) ही कुछ कम नहीं. सिर्फ चांद की किरणें, चांदी की तारें पहनकर चैन से काट सकता हूं. पहाड़ी नदी नालों के वेश में गीत गाता फिरूंगा, बहरे मव्वाजके (लहराते समुद्र के) लिबास में मैं ही लहराता फिरूंगा. मैं ही बादे खुश खर्राम नसीमे मस्ताना गाम (प्रातः की त्रिविध वायु) मेरी यह सूरते-सैलानी (सैर करने वाली मूर्ति) हर वक्त रवानी में (बदलती) रहती है. इस रूप में पहाड़ों से उतरा, मुरझाते पौधों को ताजा किया, गुलों को हंसाया, बुलबुलों को रुलाया, दरवाजों को खटखटाया, सोतों को जगाया, किसी का आंसू पोंछा, किसी का घूंघट उड़ाया. इसको छेड़, उसको छेड़, तुझको छेड़. वह गया, वह गया. न कुछ साथ रखा, न किसी के हाथ आया.

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