भगवान् नारायण, नरश्रेष्ठ नर तथा सरस्वती देवी को नमस्कार करके भगवदीय उत्कर्षका प्रतिपादन करने वाले इतिहास पुराण का पाठ करे।
बन्द वृन्दावनासीनमिन्दिरानन्दमन्दिरम् ।
उपेन्द्र सान्द्रकारुण्यं परानन्दं परात्परम् ॥ २ ॥
जो लक्ष्मी आनन्द निकेतन भगवान् विष्णुके अवतार- स्वरूप है, उस स्नेहयुक्त करुणा की निधि परात्पर परमानन्द- स्वरूप पुरुषोत्तम वृन्दावनवासी श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ।
ब्रह्मविष्णु महेशाख्यं यस्यांशा लोकसाधकाः।
तमादिदेवं चिद्रूपं विशुद्धं परमं भजे ॥ ३ ॥
ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जिसके स्वरूप हैं तथा लोकपाल जिसके अंश हैं, उस विशुद्ध ज्ञान स्वरूप आदिदेव परमात्मा की मैं आराधना करता हूँ ।
नैमिषारण्य नामक विशाल वन में महात्मा शौनक आदि ब्रह्मवादी मुनि मुक्ति की इच्छासे तपस्या में संलग्न थे। उन्होंने इन्द्रियों को वशमें कर लिया था। उनका भोजन नियमित था। वे सच्चे संत थे और सत्यस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति के लिये पुरुषार्थ करते थे। आदि पुरुष सनातन भगवान् विष्णु का वे बड़ी भक्ति से यजन-पूजन करते रहते थे। उनमें ईष्या का नाम नहीं था। वे सम्पूर्ण धर्माे के ज्ञाता और समस्त लोकों-पर अनुग्रह करने वाले थे। ममता और अहङ्कार उन्हें छू भी नहीं सके थे। उनका चित्त निरन्तर परमात्मा चिन्तन में तत्पर रहता था। वे समस्त कामनाओं का त्याग करके सर्वथा निष्पाप हो गये थे उनमें शम, दम आदि सद्गुणका सहज विकास था । काले मृगचर्म की चादर ओढ़े, सिर पर जटा बढ़ाये तथा निरन्तर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वे महर्षिगण सदा परब्रह्म परमात्मा का जप एवं कीर्तन करते थे। सूर्य के समान प्रतापी, धर्मशास्त्रों का यथार्थ तत्त्व जानने वाले वे महात्मा नैमिषारण्य में तप करते थे। उनमें से कुछ लोग यज्ञों द्वारा यज्ञपति भगवान् विष्णु का यजन करते थे। कुछ लोग ज्ञानयोग के साधनों द्वारा ज्ञान स्वरूप श्रीहरि की उपासना करते थे और कुछ लोग भक्ति के मार्गपर चलते हुए परा-भक्ति के द्वारा भगवान् नारायण की पूजा करते थे।
एक समय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का उपाय जानने की इच्छा से उन श्रेष्ठ महात्माओं ने एक बड़ी भारी सभा की। उसमें छब्बीस हजार ऊर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले) मुनि सम्मिलित हुए थे। उनके शिष्य-प्रशिष्यों की संख्या तो बताई नहीं जा सकती। पवित्र अंत:करण वाले ये महातपस्वी महान ऋषि लोकों पर अनुग्रह करने के लिए ही एकत्र हुए थे। उनमें राग और मात्सर्य का सरवथा अभाव था। वे शौनकादिजी से पूछना चाहते थे कि इस पृथ्वी पर कौन-कौन से पुण्यक्षेत्र एवं पवित्र तीर्थ है। त्रिविध ताप से पीड़ित मनुष्य को मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है। लोगों को भगवान् विष्णु की अविचल भक्ति कैसे प्राप्त होगी। सात्विक, राजसिक और तामसिक भेद से तीन प्रकार के करमों का किसके द्वारा पराप्त होता है ! उन मुनियों को अपने इस प्रकार प्रश्न करने के लिये उद्यत देखकर उत्तम बुद्धि वाले शौनक जी विनय से झुक गये और हाथ जोड़कर बोले।
शौनकजीने कहा- महर्षियो ! पवित्र सिद्धाश्रम तीर्थ में पौराणिकों में श्रेष्ठ सूतजी जी रहते हैं। वे वहाँ अनेक प्रकार के यज्ञों द्वारा विश्वरूप भगवान् विष्णु का यजन किया करते हैं। महामुनि सूतजी व्यासजी के शिष्य हैं। यह सब विषय अच्छी तरह जानते हैं। उनका नाम रोमहर्षण है। वे बड़े शान्त स्वभाव के हैं और पुराण संहिता के वक्ता हैं। भगवान् मधुसुदन प्रत्येक युग में धमाें का ह्रास देखकर वेदव्यास रूपसे प्रकट होते और एक ही वेद के अनेक विभाग करते हैं। विपर गण ! हमने सब शास्त्रों में यह सुना है कि वेदव्यास मुनि साक्षात भगवान् नारायण ही हैं। उन्हीं भगवान् व्यास ने सूतजी को पुराणों का उपदेश दिया है। परम बुद्धिमान् वेदव्यास- जी के द्वारा भली भाँति उपदेश पाकर सूतजी सब धर्मों के ज्ञाता हो गये हैं। संसार में उनसे बढ़कर दूसरा कोई पुराणों का ज्ञाता नहीं है; क्योंकि इस लोक में सूतजी ही पुराणों के तात्विक अर्थ को जाननेवाले सर्वज्ञ और बुद्धिमान् हैं। उनका स्वभाव शान्त है वे मोक्षधर्म के ज्ञाता तो हैं ही, कर्म और भक्तिके विविध साधन को भी जानते हैं। मुनीश्वरो ! वेद, वेदाङ्ग और शास्त्रों का जो सारभूत तत्त्व है, वह सब मुनिवर व्यास ने जगत् के हितके लिये पुराणों में बता दिया है और ज्ञानसागर सूतजी उन सब का यथार्थ तत्व जानने में कुशल हैं, इसलिये हम लोग उन्हीं से सब बातें पूछें।
इस प्रकार शौनकजीने मुनियों से जब अपना अभिप्राय निवेदन किया, तब वे सब महर्षि विद्वानों में श्रेष्ठ शौनकजी को आलिङ्गन करके बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें साधुवाद देने लगे। तदनन्तर सब मुनि वन के भीतर पवित्र सिद्धाश्रम तीर्थ में गये और वहाँ उन्होंने देखा कि सूतजी अग्निष्टोम यज्ञ के द्वारा अनन्त अपराजित भगवान् नारायण का यजन कर रहे हैं। सूतजी ने उन विख्यात तेजस्वी महात्माओं का यथोचित स्वागत-सत्कार किया। तत्पश्चात् उनसे नैमिषारण्य निवासी मुनियों ने इस प्रकार पूछा-
ऋषि बोले- उत्तम व्रत का पालन करनेवाले सूतजी ! हम आपके यहाँ अतिथि रूप में आये हैं, अतः आप से आतिथ्य. सत्कार पाने के अधिकारी हैं। आप ज्ञान-दान रूपी पूजन- सामग्री के द्वारा हमारा पूजन कीजिये । मुने! देवता लोग चन्द्रमा की किरणों से निकला हुआ अमृत पीकर जीवन धारण करते हैं; परंतु इस पृथ्वीके देवता ब्राह्मण आपके मुख से निकले हुए ज्ञानरूपी अमृत को पीकर तृप्त होते हैं । तात! हम यह जानना चाहते हैं कि यह सम्पूर्ण जगत् किससे उत्पन्न हुआ ? इसका आधार और स्वरूप क्या है ? यह किस में स्थित है और किसमें इसका लय होगा ? भगवान् विष्णु किस साधन से प्रसन्न होते हैं ? मनुष्यों द्वारा उनकी पूजा कैसे की जाती है ? भिन्न-भिन्न वर्गों और आश्रमों का आचार क्या है ? अतिथि की पूजा कैसे की जाती है, जिससे सब कर्म सफल हो जाते हैं ? वह मोक्ष का उपाय मनुष्यों को कैसे सुलभ हैं, पुरुषों को भक्ति से कौन-सा फल प्राप्त होता है और भक्ति का स्वरूप क्या है ? मुनि श्रेष्ठ सूतजी ! ये सब बातें आप हमे इस प्रकार समझाकर बतावें कि फिर इनके विषय में कोई संदेह न रह जाय, आपके अमृत के समान वचनों को सुनने के लिये किसके मन में श्रद्धा नहीं होगी ?
सूतजी ने कहा– महर्षियो ! आप सब लोग सुनें। आप लोगों को जो अभीष्ट है, वह में बतलाता हूँ । सनकादि मुनीश्वरों ने महात्मा नारदजीसे जिसका वर्णन किया था, वह नारद पुराण आप सुनें। यह वेदार्थ से परिपूर्ण है- इसमें वेद के सिद्धान्तों का ही प्रतिपादन किया गया है। यह समस्त पापों की शान्ति तथा दुष्ट ग्रहों की बाधा का निवारण करने वाला है। दुःस्वप्नों का नाश करने वाला, धर्मसम्मत तथा भोग एवं मोक्ष को देने वाला है। इसमें भगवान् नारायण की पवित्र कथा का वर्णन है। यह नारद-पुराण सब प्रकार के कल्याण की प्राप्ति का हेतु है। धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का भी कारण है। इसके द्वारा महान् फलों की भी प्राप्ति होती है, यह अपूर्व पुण्य फल प्रदान करने वाला है। आप सब लोग एकाग्रचित्त होकर इस महापुराण को सुनें । महापातकों तथा उपपातकों से युक्त मनुष्य भी महर्षि व्यायोक्त इस दिव्य पुराण का श्रवण करके शुद्धि को प्राप्त होते हैं। इसके एक अध्याय का पाठ करनेसे अश्वमेध यज्ञ का और दो अध्यायों के पाठसे राजसूय यज्ञ का फल मिलता है। ब्राह्मणों ! ज्येष्ठ के महीने में पूर्णिमा तिथि को मूल नक्षत्र का योग होने पर मनुष्य इन्द्रिय-संयमपूर्वक मथुरा- पुरी की यमुना के जलमें स्नान करके निराहार व्रत रहे और विधिपूर्वक भगवान् श्रीकृष्ण का पूजन करे तो इससे उसे जिस फल की प्राप्ति होती है, उसी को वह इस पुराण के तीन अध्यायों- का पाठ करके प्राप्त कर लेता है। इसके दस अध्याय का भक्ति भाव से श्रवण करके मनुष्य निर्वाण मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यह पुराण कल्याण-प्राप्ति के साधनों में सबसे श्रेष्ठ है। पवित्र ग्रन्थों में इसका स्थान सर्वोत्तम है। यह बुरे स्वप्न का नाशक और परम पवित्र है। ब्रह्मर्षियों ! इसका यत्नपूर्वक श्रव करना चाहिये। यदि मनुष्य श्रद्धापूर्वक इसके एक या आधे श्लोक का भी पाठ कर ले तो वह महापातकों के समूह से तत्काल मुक्त हो जाता है।
साधु पुरुषों के समक्ष ही इस पुराणका वर्णन करना चाहिये क्योंकि यह गोपनीय से भी अत्यन्त गोपनीय है। भगवान् विष्णु के समक्ष, किसी पुण्य क्षेत्र में तथा ब्राह्मण आदि द्विजातियों के निकट इस पुराण की कथा बाँचनी चाहिये। जिन्होंने काम क्रोध आदि दोषों को त्याग दिया है, जिनका मन भगवान् विष्णुकी भक्ति में लगा है तथा जो सदाचार परायण हैं, उन्हीं को यह मोक्षसाधक पुराण सुनाना चाहिये । भगवान् विष्णु सर्वदेवमय हैं। वे अपना स्मरण करने वाले भक्तों की समस्त पीडाओं का नाश कर तथा उनकी स्नेह-धारा सदा प्रवाहित होती रहती है। ब्राह्मणो! भगवान विष्णु केवल भक्ति से ही संतुष्ट होते हैं। दूसरे किसी उपाय नहीं। उनके नाम का बिना श्रद्धा के भी कीर्तन अथवा श्रवण कर लेने पर मनुष्य सब पापों से मुक्त हो अविनाशी वैकुण्ठ धाम को प्राप्त कर लेता है। भगवान् मधुसूदन संसाररूपी भयङ्कर एवं दुर्गम वन को दग्ध करने के लिये दावानल हैं। महर्षियो! भगवान् श्रीहरि अपना स्मरण करने वाले पुरुषों के सब पाप का उसी क्षण नाश कर देते हैं। उनके तत्त्व का प्रकाश करने वाले इस उत्तम पुराण का श्रवण अवश्य करना चाहिये। सुनने अथवा पाठ करने से भी यह पुराण सब पापों का नाश करने वाला है। ब्राह्मणो! जिनकी बुद्धि भक्ति पूर्वक इस पुराण के सुनने में लग आती है वहीं कृतकृत्य है। वही सम्पूर्ण शास्त्रों का मर्मज्ञ पण्डित है तथा उसी के द्वारा किये हुए तप और पुण्य को मैं सफल मानता हूँ; क्योंकि बिना तप और पुण्य के इस पुराण को सुनने में प्रेम नहीं हो सकता। जो संसार का हित करने वाले साधु पुरुष है, ये ही उत्तम कथाओं के कहने-सुनने में प्रवृत्त होते हैं। पापपरायण दुष्ट पुरुष तो सदा दूसरों की निन्दा और दूसरे के साथ कलह करने में ही लगे रहते हैं। द्विजवरो ! जो नराधम पुराणों में अर्थवाद होने की शङ्का करते हैं, उनके किये हुए समस्त पुष्य नष्ट हो जाते हैं। विश्वरो ! मोहग्रस्त दूसरे-दूसरे कार्यों के साधन में लगे रहते हैं, परंतु पुराण श्रवणरूप पुण्य कर्मका अनुष्ठान नहीं करते हैं । श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! जो मनुष्य बिना किसी परिश्रमके यहाँ अनन्त पुण्य प्राप्त करना चाहता हो, उसको भक्तिभावसे निश्चय ही पुराणोंका श्रवण करना चाहिये। जिस पुरुषकी चित्तवृत्ति पुराण सुनने में लग जाती है, उसके पूर्वजन्मोपार्जित समस्त पाप निस्संदेह नष्ट हो जाते हैं। जो मानव सत्सङ्ग) देवपूजा, पुराणकथा और हितकारी उपदेशमें तत्पर रहता है। वह इस देहका नाश होनेपर भगवान् विष्णुके समान तेजस्वी स्वरूप धारण करके उन्हीं के परम धाम चला जाता है। अतः चिप्रवरो ! आप लोग इस परम पवित्र नारद पुराण का श्रवण करें। इसके श्रवण करने से मनुष्य का मन भगवान विष्णु में संंलग्न होता है और वह जन्म-मृत्यु तया जय आदि के बन्धन से छूट जाता है।
आदिदेव भगवान् नारायण भे चरणीय, वरदाता तथा पुराण पुरुष हैं। उन्होंने अपने परभाव सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त कर रखा है। वे भक्त जनों के मनोवाञ्छित पदार्थ को देने वाले हैं। उनका स्मरण
करके मनुष्य मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है । जो ब्रह्मा, शिव तथा विष्णु आदि भिन्न-भिन्न रूप धारण करके इस जगत् की सृष्टि, संहार और पालन करते हैं, उन आदिदेव परम पुरुष परमेश्वर को अपने हृदय में स्थापित करके मनुष्य मुक्ति पा लेता है। जो नाम और जाति आदि की कल्पनाओं से रहित हैं, सर्वश्रेष्ठ तत्त्वों से भी परम उत्कृष्ट हैं, परात्पर पुरुष हैं, उपनिषदों के द्वारा जिनके तत्त्व का ज्ञान होता है तथा जो अपने प्रेमी भक्तोंके समक्ष ही सगुण-साकार रूपमें प्रकट होते हैं, उन्हीं परमेश्वर की समस्त पुराणों और वेदों के द्वारा स्तुति की जाती है। अतः जो सम्पूर्ण जगत् के ईश्वर, मोक्षस्वरूप, उपासना के योग्य, अजन्मा, परम रहस्यरूप तथा समस्त पुरुषार्थों के हेतु हैं, उन भगवान् विष्णु का स्मरण करके मनुष्य भवसागर से पार हो जाता है। धर्मात्मा, श्रद्धालु, मुमुक्षु, यति तथा वीतराग पुरुष ही यह पुराण सुनने के अधिकारी हैं। उन्हींको इसका उपदेश करना चाहिये। पवित्र देश में, देवमन्दिर के सभामण्डप में, पुण्य क्षेत्र में, पुण्यतीर्थ में तथा देवताओं और ब्राह्मणों के समीप पुराण का प्रवचन करना चाहिये जो मनुष्य पुराण-कथा के बीच में दूसरे से बातचीत करता है, वह भयङ्कर नरक में पड़ता है। जिसका चित्त एकाग्र नहीं है, वह सुनकर भी कुछ नहीं समझता। अतः एकचित्त होकर भगवत्कथामृत का पान करना चाहिये। जिसका मन इधर-उधर भटक रहा हो उसे कथा-रस का आस्वादन कैसे हो सकता है? संसार में चञ्चल चित्त वाले मनुष्य को क्या सुख मिलता है? अतः दुःख की साधनभूत समस्त कामनाओं का त्याग करके एकाग्रचित्त हो भगवान् विष्णु का चिन्तन करना चाहिये जिस किसी उपाय से भी यदि अविनाशी भगवान् नारायण का स्मरण किया जाय तो वे पातकी मनुष्य पर भी निस्संदेह प्रसन्न हो जाते हैं। सम्पूर्ण जगत् के स्वामी तथा सर्वत्र व्यापक अविनाशी भगवान् विष्णु में जिसकी भक्ति है, उसका जन्म सफल हो गया और मुक्ति उसके हाथ में है। विप्रवरो ! भगवान् विष्णु के भजन में संलग्न रहने वाले पुरुषों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- चारों पुरुषार्थ प्राप्त होते हैं।