आज के संदर्भ में आद्य गुरु शंकराचार्य

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

किसी विशाल, ऊंचे, सुंदर और भव्य महल को देखकर मन अनचाहे उसकी ओर आकर्षित हो जाता है। इसकी अनुपमेयता हमें चमत्कृत करती है। लेकिन हम भूल जाते हैं कि उसकी समग्रता के पीछे छोटी-छोटी ईंटों, सीमेंट, रेत, पानी, कारीगर आदि बहुत से घटकों की महत्वपूर्ण भूमिका है। यदि दर्शन की भाषा में कहें तो व्यष्टि से ही समष्टि का निर्माण होता है। लोक में यह उक्ति बहुत प्रचलित है कि बूंद-बूंद से सागर बनता है।

आद्य शंकराचार्य का व्यक्तित्व अत्यंत विशाल है। इसीलिए उन्हें ज्ञानरूप शिव का अवतार स्वीकार किया गया है। एक भाष्यकार, योगी, दार्शनिक, कवि, तांत्रिक, तत्वज्ञानी, वैदिक सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा करने वाले आद्य शंकराचार्य के जीवन के कुछ ऐसे पहलू भी हैं, जिन्हें पढ़कर इस महान व्यक्तित्व के प्रति मस्तक अनजाने ही श्रद्धा से झुक जाता है।

लगता है कि उन्होंने जिस ‘अद्वैत’ की पुर्नस्थापना की, वह उनके जीवन का सहज स्वभाव था। उस समय लगता है कि आप गरिमामय हिमालय की ऊंची-ऊंची चोटियों की यात्रा नहीं कर रहे हैं, बल्कि एक ऐसे सुरम्य मार्ग से गुजर रहे हैं, जहां पास से प्रवाहित हो रही है कलकल करती हुई स्वच्छ जलधारा और मलय प्रदेश से आती सुगन्ध आपके तन-मन को सुवासित कर रही है।

एक सुकुमार बच्चा-शंकर, जिसके पिता का हाथ उसके सिर से हट गया है, अपनी मां के आने की प्रतीक्षा कर रहा है, क्योंकि उसकी धर्मनिष्ठा माता नित्य समीप ही प्रवाहित होने वाली नदी में स्नान करने जाती है। उस दिन मां को आने में विलंब हो गया। बालमन चिंतित हो उठा। चल दिया उधर। देखा, मां मार्ग में अचेत गिरी पड़ी है। चेतना लौटी मां की तो उन्हें वापस घर ले आया। मातृ कष्ट से वह अधीर था। भगवान के चरणों में प्रार्थना की, ‘आप तो सर्वशक्तिमान हैं, नदी को मेरे घर के पास ला दीजिए, ताकि मेरी मां को कष्ट न हो।’

कहते हैं कि उस दिन बालक की प्रार्थना सुनी गई और वर्षा ऋतु में नदी ने अपना मार्ग बदल दिया, वह कालड़ी गांव के समीप से बहने लगी। यह तो जननी का कष्ट था। पुत्र का माता के प्रति स्नेह तो स्वाभाविक है, लेकिन शंकर के ह्रदय में स्थित कोमल भावना से संबंधित एक और भी गाथा है।

कहते हैं कि जब ब्रह्मचारी के रूप में बाल शंकर गुरुगृह में शिक्षा के लिए निवास कर रहे थे तो एक दिन विचित्र घटना घटी। उन्होंने एक घर में भिक्षा के लिए गुहार लगायी। उस घर की गृहिणी जब निकल कर आई, तो उसके हाथ में भिक्षा देने के लिए मात्र एक आंवला था। उस परिवार का बखान उस आंवले ने और गृहिणी की आंखों के किनारे से प्रवाहित होते अश्रुकणों ने कर दिया था। बाल शंकर का ह्रदय व्यथित हो उठा।

उन्होंने मां लक्ष्मी की स्तुति की। मां प्रसन्न हुईं। शंकर ने जब अपने मन की बात देवी के श्रीचरणों में रखी तो उन्होंने बताया, पूर्वजन्म में कभी दान न देने के कारण इस परिवार की यह दशा है। शंकर ने कहा, तो मां! अब तो इन्होंने एक ब्रह्मचारी को दान में आंवले का फल दिया है। ‘बाल शंकर की बाल सुलभ सह्रदयता और करुणा से देवी ने प्रसन्न होकर उस रात्रि उस घर में स्वर्ण के आंवलों की वृष्टि की। परिणामस्वरूप उस परिवार की दरिद्रता नष्ट हो गई।’

यहां यह विचारणीय है, कि बाल शंकर ने अपने लिए या अपने परिवार के लिए कभी कुछ नहीं मांगा, यहां तक कि अपनी पूज्या मां का जन-कल्याण के लिए त्याग कर दिया और संन्यास की दीक्षा ग्रहण की-जिसमें नारायण रूप में सर्वत्र आत्मदर्शन का व्रत लिया जाता है, अर्थात् जीवित मृत्यु। समस्त उपाधियों से ऊपर उठ जाना।

बाल शंकर ने योगादि विद्याओं की विधिवत शिक्षा प्राप्त करने के बाद अद्वैत सिद्धांतों का भी अनुशीलन, मनन और निदिध्यासन किया था। इस मत के अनुसार ब्रह्म ही विभिन्न नाम रूपों में जगत के रूप में दिखाई दे रहा है। सब ब्रह्म तत्व का ही विस्तार है।

मान्यता है कि तब आचार्य शंकर ब्रह्म की शिव रूप में ही आराधना करते थे, शक्ति की नहीं। लेकिन वाराणसी में कुछ ऐसा घटा कि आचार्य ने शिव की आराधना के साथ शक्ति को भी जोड़ लिया। अब ब्रह्म सृष्टि की उत्पत्ति का स्वतंत्र कारण नहीं रह गया था, उसे इस कार्य के लिए माया की अपेक्षा थी। ये सिद्धांत उभरकर सामने आया। यही मायावाद के नाम से बाद में प्रसिव हुआ। इसके कारण ही कुछ दार्शनिकों ने आचार्य को प्रच्छन्न बौद्ध (छिपे हुए बौद्ध) कहना शुरू कर दिया।

यह घटना वाराणसी की है। आचार्य अपने शिष्यों के साथ मणिकर्णिका घाट जा रहे थे। मार्ग अवरुद्ध था। एक स्त्री अपने पति के शव को लेकर विलाप कर रही थी। आचार्य ने उसे शव को हटाने को कहा, ताकि मार्ग खुले-लेकिन उस स्त्री ने शंकर की बात का कोई जवाब नहीं दिया। आचार्य ने जब दुबारा आग्रह किया, तो वह बोली, ‘आप शव को हटने के लिए क्यों नहीं कहते?’ आचार्य ने कहा, ‘शव कैसे हट सकता है? उसमें शक्ति कहां?’ स्त्री का जवाब था, ‘जब आपका ब्रह्म शक्ति के बिना जगत की सृष्टि कर सकता है, तो फिर यह शव स्वयं हट क्यों नहीं सकता?’ इस उत्तर की तो आचार्य और उनके शिष्यों को आशा ही नहीं थी। सब विचारों के उलझाव से बाहर निकल पाते कि वहां न शव था, न स्त्री। आचार्य को समझते देर न लगी कि महामाया ने उनकी भूल को सुधारा है। इस बहाने मां ने आचार्य शंकर को अपने अस्तित्व का मानो परिचय दे दिया था। मां ने संकेत दिया था कि ‘इ’ रूपा शक्ति के बिना शिव शव से ज्यादा कुछ नहीं हैं।

यह दार्शनिक सिद्धांत नहीं है, परम व्यवहारिक सत्य है। कहते हैं न कि प्रत्येक पुरुष की सफलता के पीछे कोई स्त्री अवश्य खड़ी होती है। आचार्य ने ‘देव्यपराधक्षमापन स्तोत्र’ में स्पष्ट किया है कि समस्त अवगुणों से युक्त शिव को महादेव बनाने में तुम्हारी ही बहुत बड़ी भूमिका है। तुम्हारा हाथ थामा, तो वो महादेव हो गए। संन्यस्त होने के बाद भी देह का अभिमान बना ही रहता है। बुद्धि द्वारा स्वीकृत सत्य जीवन का स्पर्श नहीं कर पाता। संभवतया आचार्य के जीवन में ‘मैं ब्रा२ण हूं, मैं संन्यासी हूं, इसलिए मैं पवित्र हूं’ ऐसा भाव बना रहा हो, भले ही सूक्ष्म रूप में। और यह भाव अद्वैत निष्ठा में बाधक है।

नर में नारायण की दृष्टि का विकास नहीं होने देता यह। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का विकास ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ के रूप में नहीं हो पाता। इसे भी टूट ही जाना चाहिए। शायद इसीलिए भगवान शिव को यह लीला करनी पड़ी। आचार्य के मार्ग को एक चाण्डाल ने रोक लिया। अमर्यादित आचरण था यह। आचार्य ने चाण्डाल के इस कार्य पर उसे फटकारा, तो उसने श्लोकबद्ध भाषा में आचार्य से पूछा, ‘किसे हटने को कह रहे हो? देह को या आत्मा को? शुद्ध-अशुद्ध कौन है-देह या आत्मा? क्या तुममें और मुझ में भेद है? अभेद नहीं?’ आचार्य सोच पाते कि चाण्डाल ने कहा, ‘एकमेवाद्वितीयम् की प्रतिष्ठा करने चले हो, देहाभिमान को साथ लेकर!’ आचार्य को चाण्डाल के इस उद्बोधन ने झकझोर दिया। आत्मचिंतन में उनकी आखें मुंद गईं थीं। जब वह खुलीं तो सामने कुछ न था। आचार्य को समझते देर न लगी कि भगवान विश्वनाथ ने उन्हें उनके कर्तव्य के प्रति सचेत किया है। मान्यता है कि इस घटना के बाद आचार्य ने ब्रह्म सूत्र पर भाष्य लिखा। इस महान कार्य के लिए उन्होंने बदरिकाश्रम की ओर प्रस्थान किया।

ऐसी ही और भी कई गाथाएं हैं, जो आचार्य के व्यक्तित्व को अलौकिक सिद्ध करती हैं, लेकिन साथ में वह ये भी बताती हैं कि व्यक्तित्व का विकास एक सुनिश्चित प्रक्रिया में होता है। इन घटनाओं से यदि कोई सीख ली तो वह व्यक्तित्व में जुड़ जाती है और तब वह घटना विशिष्ट हो जाती है, अन्यथा तो वह सामान्य है ही। यहां एक बात का उल्लेख करना विशेष रूप से सार्थक होगा कि स्त्री जाति के लिए आचार्य में किसी प्रकार का घृणा भाव नहीं है। हां, वे साधना के बीच में आने वाले अवरोधोंको हटाने के संदर्भ में कुछ इस तरह की चर्चा अवश्य करते हैं। स्त्री का मातृरूप ही उन्हें स्वीकार्य है। ऐसा संन्यासी के कर्तव्य की सीमा में भी आता है। जो महापुरुष किसी के दुख को देखकर करुणा से वि५ल हो जाए, उसके प्रति इस प्रकार की धारणा बनाना कि वह स्त्री विरोधी हैं, उपयुक्त नहीं है।

क्या ऐसा नहीं है कि सौम्यमूर्ति आचार्य अपनी माता के अंतिम संस्कार के समय क्रांतिकारी हो गए थे। वहां उन्होंने उस माता के प्रति कृतज्ञता का ज्ञापन करने के लिए, जिसने उन्हें शरीर दिया, प्राण दिए, जीवन दिया और पूर्ण रूप से स्वतंत्र कर दिया, उन कर्तव्यों से जिनसे ऋण मुक्त होना मानुष रूप में अवतरित होने वाले ईश्वर के वश की भी बात नहीं है, संन्यास की मर्यादा को भी एक ओर रख दिया। वे अपनी माता के प्राण त्याग के समय उसके समक्ष पहुंचे, उन्हें श्रीविष्णु के दर्शन कराए और उनका अंतिम संस्कार भी अपने हाथों से किया, क्योंकि उनकी माता की यही अंतिम इच्छा थी। शास्त्रों का हवाला देकर उनके ग्रामवासियों और परिजनों ने जैसा व्यवहार उस समय उनके साथ किया, उसके लिए आचार्य ने उन्हें शाप भी दे डाला। मेरा व्यक्तिगत मानना है कि आचार्य का व्यक्तित्व और कृतित्व असाधारण है, लेकिन आवश्यकता है उन्हें किसी विशेष सम्प्रदाय से बाहर निकालने की है। महापुरुष किसी एक के नहीं होते।

आचार्य ने जगत्गुरु पद पर प्रतिष्ठित होने के लिए कोई संघर्ष नहीं किया। उनकी लड़ाई तो उनसे थी, जो समाज की धारा को गलत दिशा में मोड़ रहे थे। सनातन धर्म की स्थापना उनके जीवन का उद्देश्य था। अपने इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए उन्होंने समस्त वैभवों और सुख-सुविधाओं का त्याग किया। यहां एक बात और विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि आचार्य ने जिनका विरोध किया, उनके प्रति भी उनके मन में मातृवत् वात्सल्य था। वहां किसी प्रकार के द्वेष की भावना नहीं थी। आज इसी भावना की आवश्यकता है, जो आचार्य के समूचे व्यक्तित्व की आत्मा थी- ‘नेह नानास्ति किंचन, सर्वं खल्विदं ब्रह्म, सर्वभूत हितेरता, मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।’

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