ऐंसु इगास बग्वाल मनौण चला अपणा गौं: ‘बग्वाल’ का एक रूप ‘इगास’ भी, जानिए इसकी विशेषता

पहाड़ में दीपावली यानी बग्वाल के ठीक ग्यारह दिन बाद इगास मनाए जाने की एक विशेष परंपरा है। जो आज भी जारी है।

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हिमशिखर खबर ब्यूरो

देहरादून: पहाड़ में बग्वाल (दीपावली) के ठीक 11 दिन बाद इगास मनाने की परंपरा है। इस बार यह लोक पर्व 4 नवंबर को दिन शुक्रवार को मनाया जाएगा। देशभर में इस दिन को जहां देवउठनी या एकादशी के रूप में मनाया जाता है, वहीं गढ़वाल में इस दिन को इगास के रूप में मनाया जाता है। यह असल में दिवाली की तरह ही पूरी धूमधाम से मनाया जाता है।

इस तरह मनाया जाता है यह लोक पर्व

इस दिन भी सुबह सवेरे घरों की साफ-सफाई करके स्वाले, गुलगुले और दाल के पकौड़े बनाकर बांटे जाते हैं। साथ ही गाय व बैलों की पूजा की जाती है। इस दिन भैलो खेलने की भी परंपरा है। यह भैलो सूखी चीड़ के पेड़ की छाल से बनाया जाता है, जिस पर आग लगाकर संध्या के समय किसी खाली खेत अथवा खलिहान में जोर-जोर से हवा में घुमाया जाता है। इस मौके पर साथ देते हैं पांरपरिक वाद्य ढोल दमाऊ। इस मौके पर लोग जुटकर झुमेलो गीत भी गाते हैं। इगास पर पटाखों का प्रयोग नहीं किया जाता है।

11वें दिन इसलिए मनाई जाती है इगास

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एक मान्यता ये भी है कि जब मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे, तो लोगों ने घी के दीये जलाकर उनका स्वागत किया था। लेकिन, गढ़वाल क्षेत्र में भगवान राम के लौटने की सूचना दीपावली के ग्यारह दिन बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को मिली थी, इसलिए ग्रामीणों ने खुशी जाहिर करते हुए एकादशी को दीपावली का उत्सव मनाया था।

ये है दूसरी मान्यता

दूसरी मान्यता है कि दिवाली के वक्त गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट और तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की थी और दिवाली के ठीक 11वें दिन गढ़वाल सेना अपने घर पहुंची थी। युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दिवाली मनाई गई थी।

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इस साल इगास बग्वाल पर सरकार ने छुट्टी भी घोषित कर दी है, तो फिर अपने पैतृक गांव और अपने शहर में इगास मनाइए और देवभूमि की लोक परंपरा जीवंत कीजिए। पिछले कुछ सालों से इगास पर्व को पुनर्जीवित करने की कई लोगों ने मुहिम भी छेड़ी हुई है।

सुबह से लेकर दोपहर तक होती है गोवंश की पूजा

इस दिन सुबह से लेकर दोपहर तक गोवंश की पूजा की जाती है। मवेशियों के लिए भात, झंगोरा, बाड़ी, मंडुवे आदि से आहार तैयार किया जाता है। जिसे परात में कई तरह के फूलों से सजाया जाता है।
सबसे पहले मवेशियों के पांव धोए जाते हैं और फिर दीप-धूप जलाकर उनकी पूजा की जाती है। माथे पर हल्दी का टीका और सींगों पर सरसों का तेल लगाकर उन्हें परात में सजा अन्न ग्रास दिया जाता है। इसे गोग्रास कहते हैं। बग्वाल और ईगास को घरों में पूड़ी, स्वाली, पकोड़ी, भूड़ा आदि पकवान बनाकर उन सभी परिवारों में बांटे जाते हैं, जिनकी बग्वाल नहीं होती।
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