पंडित हर्षमणि बहुगुणा
जाको राखे साइयां, मार सके ना कोय। बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय ।।
यह कहानी भी कुछ यही बयां करती है..
एक राजा था, उसका कोई पुत्र नहीं था। राजा बहुत दिनों से पुत्र की प्राप्ति के लिए आशा लगाए बैठा था, लेकिन पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई, उसके सलाहकारों ने तांत्रिकों से सहयोग लेने को कहा। तांत्रिकों की तरफ से राजा को सुझाव मिला कि यदि किसी बच्चे की बलि दे दी जाए, तो राजा को पुत्र की प्राप्ति हो सकती है।
राजा ने राज्य में ढिंढोरा पिटवाया कि जो अपना बच्चा बलि चढ़ाने के लिये राजा को देगा, उसे राजा की तरफ से बहुत सारा धन दिया जाएगा।
एक परिवार में कई बच्चे थे, गरीबी भी बहुत थी। एक ऐसा बच्चा भी था, जो ईश्वर पर आस्था रखता था तथा सन्तों के सत्संग में अधिक समय देता था।
राजा की मुनादी सुनकर परिवार को लगा कि क्यों ना इसे राजा को दे दिया जाए ? क्योंकि ये निकम्मा है, कुछ काम -धाम भी नहीं करता है और हमारे किसी काम का भी नहीं है।
और इसे देने पर, राजा प्रसन्न होकर, हमें बहुत सारा धन देगा। ऐसा ही किया गया, बच्चा राजा को दे दिया गया।
राजा ने बच्चे के बदले ,उसके परिवार को काफी धन दिया। राजा के तांत्रिकों द्वारा बच्चे की बलि देने की तैयारी हो गई।
राजा को भी बुला लिया गया, बच्चे से पूछा गया कि तुम्हारी आखिरी इच्छा क्या है ? ये बात राजा ने बच्चे से पूछी और तांत्रिकों ने भी पूछी।
बच्चे ने कहा कि, मेरे लिए रेत मँगा दी जाए, राजा ने कहा, बच्चे की इच्छा पूरी की जाय । अतः रेत मंगाया गया।
बच्चे ने रेत से चार ढेर बनाए, एक-एक करके बच्चे ने रेत के तीन ढेरों को तोड़ दिया और चौथे के सामने हाथ जोड़कर बैठ गया और उसने राजा से कहा कि अब जो करना है , आप लोग कर लें।
यह सब देखकर तांत्रिक डर गए और उन्होंने बच्चे से पूछा पहले तुम यह बताओ कि यह तुमने क्या किया है?
राजा ने भी यही सवाल बच्चे से पूछा । तो बच्चे ने कहा कि पहली ढेरी मेरे माता-पिता की थी। मेरी रक्षा करना उनका कर्त्तव्य था, परंतु उन्होंने अपने कर्त्तव्य का पालन न करके, पैसे के लिए मुझे बेच दिया, इसलिए मैंने ये ढेरी तोड़ दी।
दूसरी ढ़ेरी, मेरे सगे-सम्बन्धियों की थी, परंतु उन्होंने भी मेरे माता-पिता को नहीं समझाया। अतः मैंने दूसरी ढ़ेरी को भी तोड़ दिया।
और तीसरी ढ़ेरी! हे राजन् ये आपकी थी क्योंकि राज्य की प्रजा की रक्षा करना, राजा का ही धर्म होता है,परन्तु जब राजा ही, मेरी बलि देना चाह रहा है तो, ये ढेरी भी मैंने तोड़ दी।
और चौथी ढ़ेरी, हे राजन, मेरे ईश्वर की है। *अब सिर्फ और सिर्फ,अपने ईश्वर पर ही मुझे भरोसा है। इसलिए यह एक ढेरी मैंने छोड़ दी है।*
*बच्चे का उत्तर सुनकर, राजा अंदर तक हिल गया। उसने सोचा,कि पता नहीं बच्चे की बलि देने के पश्चात भी, पुत्र की प्राप्ति होगी भी या नहीं होगी? इसलिये क्यों न इस बच्चे को ही अपना पुत्र बना लिया जाय?*
*इतना समझदार और ईश्वर-भक्त -बच्चा है । इससे अच्छा बच्चा और कहाँ मिलेगा ?*
*काफी सोच विचार के बाद,राजा ने उस बच्चे को अपना पुत्र बना लिया और राजकुमार घोषित कर दिया।*
*जो व्यक्ति ईश्वर पर विश्वास रखते हैं,उनका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता, यह एक अटल सत्य है।*
*जो मनुष्य हर मुश्किल में, केवल और केवल, ईश्वर का ही आसरा रखते हैं,उनका कहीं से भी,किसी भी प्रकार का,कोई अहित नहीं हो सकता।*
*संसार में सभी रिश्ते झूठे हैं। वही प्रभु माता, पिता, सगा, सम्बन्धी सब कुछ है। केवल और केवल, एक प्रभु का रिश्ता ही सत्य है*।
” *यह यथार्थ भी है, संसार में कतिपय लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने आप ही सर्वश्व भोगने की इच्छा से अन्य अपने ही सजातियों को देखना भी नहीं चाहते हैं। तभी तो ठिठुरन भरी सर्दी में शनिवार का चयन कर अपने जन्म दिन को मनाने के बाद किसी परिवार को समूल नष्ट करने के उद्देश्य से तान्त्रिक प्रक्रिया को अंजाम देने का प्रयास कर भयभीत तो कर ही देते हैं। क्या मिलता है ऐसा कुत्सित कर्म से? और कितना उपभोग करने की अभिलाषा। जबकि भूख मात्र दो रोटी की! शनिवार भी कितना डरावना लगता है, चुनाव भी शनि या मंगल का। पर ईश्वर सर्वत्र है अतः बुरा शायद किसी का नहीं करता। कलियुग का कुछ प्रभाव भी हो सकता है, जो जितना पाप रत, संसार की दृष्टि में उतना ही सु सम्पन्न। ऐसा क्यों होता है? क्यों किया जाता है? समझ से परे है, अतः उस सर्व व्यापक परमात्मा पर भरोसा रखकर जीवन निर्वाह करना चाहिए। क्या फर्क पड़ता है कि मानव मानवता का हत्यारा हो जाय। सोचिए भलाई का बदला कहीं न कहीं अवश्य मिलेगा। और यह याद तो रखना ही होगा कि “नेकी कर कुएं में डाल” तथा कुछ कष्ट भोगने से आने वाला जन्म पुण्यों से भरा होगा। परीक्षा तो सत्य वादियों की ही होती है।