सुप्रभातम् : गंगा में अस्थि विसर्जन आस्था ही नहीं, वैज्ञानिक भी…

हिमशिखर धर्म डेस्क 

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काका हरिओम्

पिछले दिनों एक समाचार लोगों के बीच काफी चर्चित रहा. समाचार के अनुसार, बीजेपी सरकार के एक राज्यमंत्री ने धर्माचार्यों से अपील की कि वे अपने अनुयायियों को समझाएं कि अस्थियों का गंगा जी में विसर्जन शास्त्र सम्मत नहीं है. इससे गंगा प्रदूषित होती हैं. इसकी जगह लोगों को चाहिए कि वह गतात्मा के नाम से एक वृक्ष लगाएं और उसे मिट्टी में मिला दें.

सुनने-पढ़ने में यह बात अच्छी लगती है. उनके अनुसार गंगा में अस्थि विसर्जन का सम्बंध केवल आस्था से जुड़ा है. काश, मंत्री महोदय ने यह स्टेटमेंट देते हुए आस्था महत्व का आकलन भी किया होता, हिन्दू वोटों पर अपना एकाधिकार मानने वालों की निष्ठा तो अपनी परंपराओं पर होनी ही चाहिए. उन्हें तो उन पर प्रश्नचिह्न नहीं ही लगाना चाहिए.

मंत्री महोदय यह स्टेटमेंट देते समय गंगावतरण की कथा को शायद भूल गए. भगीरथ के कठोर तप के पीछे क्या यह कामना नहीं थी कि उनके पूर्वजों की अस्थियों का गंगा के पवित्र जल से स्पर्श हो ताकि उन्हें सद्गति प्राप्त हो. और ऐसा ही हुआ, पुराणों में यह कथा वर्णित है. इसीलिए गंगा का एक नाम भागीरथी भी है.

वर्षों-वर्षों की इस आस्था के पीछे ऐसा नहीं है कि कोई ठोस आधार न हो, जिसे आज की भाषा में वैज्ञानिक दृष्टि कहते हैं. हमारे पूर्वजों ने प्रत्येक परंपरा के पीछे इस दृष्टि की उपेक्षा कभी नहीं की है. अस्थियों में कैल्शियम और  फास्फोरस विशेष मात्रा में होता है, जो भूमि की ऊर्वरा शक्ति को बढ़ाता है. गंगा और इसके जैसी पवित्र नदियों में डाली गई अस्थियां किस प्रकार देश की भौतिक समृद्धि का आधार बनती हैं, इस बारे में भी तथाकथित आधुनिक विचारकों को विचार अवश्य करना चाहिए.

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हमने दूसरों का अंधानुकरण करके, स्वयं को सही प्रकार से न समझने के फलस्वरूप क्या खोया-पाया है, इसका मूल्यांकन करना भी हमारे लिए आवश्यक है. किसी परंपरा को नकारने से पहले उसकी उपयोगिता के बारे में जानना भी तो जरूरी होता है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे पूर्वजों के पास व्यापक दृष्टि थी. उऩ्होंने उन प्रभावकों पर भी सूक्ष्मरूप से विचार किया, जो प्रत्यक्ष नहीं हैं

अस्थियों में कैल्शियम और फास्फोरस विशेष मात्रा में होता है, जो भूमि की ऊर्वरा शक्ति को बढ़ाता है. गंगा और इसके जैसी पवित्र नदियों में डाली गई अस्थियां किस प्रकार देश की भौतिक समृद्धि का आधार बनती हैं,इस बारे में भी तथाकथित आधुनिक विचारकों को विचार अवश्य करना चाहिए. हमने दूसरों का अंधानुकरण करके, स्वयं को सही प्रकार से न समझने के फलस्वरूप क्या खोया-पाया है, इसका मूल्यांकन करना भी हमारे लिए आवश्यक है. किसी परंपरा को नकारने से पहले उसकी उपयोगिता के बारे में जानना भी तो जरूरी होता है.

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे पूर्वजों के पास व्यापक दृष्टि थी. उऩ्होंने उन प्रभावकों पर भी सूक्ष्मरूप से विचार किया, जो प्रत्यक्ष नहीं हैं.

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सरकारी तंत्र उस नीति पर रोक क्यों नहीं लगाता, जो धर्मस्थानों को पर्यटक स्थल बनाने को तुली हुई है. इस चक्कर में इन स्थानों की पवित्रता नष्ट हो गयी है/हो रही है. आवश्यकता है वहां आनेवालों से, यदि वह मर्यादाओं का पालन नहीं करते हैं तो, सख्ती से निपटा जाए. साथ ही गंगा के किनारे कारखानों को बनाने की इजाजत किसी भी तरह से न दी जाए तथा आने वालों की सुविधा के लिए जो आवास आदि का निरमाण होता है उनमें निकासी की व्यवस्था पर कड़ी नजर रखी जाए.

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