बुद्ध पूर्णिमा विशेष : अति नहीं, मध्यम मार्ग

Uttarakhand

हिमशिखर धर्म डेस्क 

काका हरिओम्

सिद्धार्थ का अर्थ है, जिसने अपने लक्ष्य को साध लिया हो. जन्म के समय ही ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी कर दी थी कि शिशु सम्राट् बनेगा या महान योगी. राजकुमार सिद्धार्थ के जीवन में कुछ ऐसा हुआ कि वह जीवन के परम सत्य को जानने के लिए बेचैन हो उठा.  सब छोड़ दिया-राजपाठ, पिता, पत्नी और पुत्र भी. कठोर तप किया. शरीर क्षीण हो गया. रह गया मात्र अस्थि पंजर. लेकिन एकाएक वह पंजर प्रकाश पुंज के रूप में परिवर्तित हो गया. जब यह पावन घटना घटी उस दिन वैशाख पूर्णिमा थी. जन्म और बुद्धत्व की प्राप्ति की तिथि एक ही थी. संयोग ही है यह.

कथा है कि बुद्धत्व की अनुभूति होने के बाद सुजाता की खीर के ग्रास ने तथागत के शरीर में प्राणों का संचार किया था. उस समय उनके कानों में वीणा स्वर ध्वनि सुनाई दी जिसने उनके सामने जीवन की परम साधना का प्रारूप उपस्थित कर दिया. ‘सम्यक्’ की साधना ही बुद्ध की साधना का आधार है. अर्थात् तारों को इतना न खींचो कि वह टूट जाएं और इतना भी ढीला न छोड़ दो कि उनमें स्वर ही झंकृत न हों.

श्रीकृष्ण गीता में ‘युक्त’ शब्द का प्रयोग करके अर्जुन को अति से बचने का ही उपदेश देते हैं. इसी की छाया है मानो यह सम्यक् शब्द.

बुद्ध ने अपने उपदेशों में इन 4  आर्य सत्यों की भी चर्चा की है-

-सब क्षणिक है

-सब दुःखरूप है

-दुःख का कारण है

-कारण के नाश से कार्य का नाश होता है

बौद्ध-चिन्तकों की 2 धाराएं देखने को मिलती हैं. एक के अनुसार निर्वाण की स्थिति को प्राप्त करने वाले का कोई सामाजिक उत्तरदायित्व नहीं रह जाता है जबकि अन्य का मानना है कि बिना समाज में जागृति लाए लक्ष्य पूर्ण नहीं होता है. इसीलिए पहले को हीनयान और दूसरे को महायान की श्रेणी में रखा गया है.

इन दिनों बौद्धों की ध्यान पद्धति ‘विपस्सना’ साधकों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है. कई मायने में यह काफी उपयोगी है. आत्मविश्लेषण और सदैव अपने प्रति जागृत रहना इसका आधार है.

मुझे लगता है कि बुद्ध जैसे महान और विलक्षण व्यक्तित्व को राजनीति और सामाजिक बदलाव के तथाकथित आंदोलन के दायरे सीमित करने की जगह आध्यात्मिक चेतना के विस्तारक के रूप स्थापित किया जाए, इससे आज के ‘बौद्धों’ का ज्यादा उपकार होगा.

बुद्ध के जीवन-दर्शन और साधना पर सकारात्मक रूप से चिन्तन करने की आज ज्यादा आवश्यकता है. इसके बिना ‘बुद्धं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि’ का घोष सार्थक नहीं हो पाएगा.

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