पंडित हर्षमणि बहुगुणा
आज कल प्राय: हर व्यक्ति की जुबान से सुना जाता है कि मीठी वाणी का प्रयोग किया जाना चाहिए। उद्वेग कारी वाणी न बोलें , सत्य बोलें वह भी मधुर शब्दों में वाणी को बोलना चाहिए अमृत में घोलकर , ‘सत्यं प्रियहितं च यत् ‘।
समाज में देखिए
मोर बड़ा मीठा बोलता है और खाने के लिए सांप भी खा जाता है। इससे हम क्या समझते हैं? केवल मीठा बोलना ही ठीक नहीं है, हृदय भी मधुर होना आवश्यक है, जुबान भी मधुर होनी आवश्यक है। मीठी वाणी का आशय है – हित की भावना से ओत-प्रोत । छल-कपट से रहित मीठी वाणी उपकार करने वाली ही होगी । मुंह में राम बगल में छुरी वाली मीठी वाणी नहीं।
आज भी छल का धृतराष्ट्र जब कभी मिलने की इच्छा प्रकट करें तो उसके सम्मुख लोहे का भीमसेन ही खड़ा करना चाहिए। ऐसे लोगों की कमी नहीं है ।
अतः अपनी तरफ से ऐसा प्रयास किया जाना चाहिए कि दूसरे के मन में उद्वेग करने वाली वाणी न कही जाय , अहित की वाणी , व्यर्थ की बात , झूठ , अप्रिय न कहा जाए ( यह सब पाप के कारक हैं ) इन सबसे वाणी को बचाने की आवश्यकता है ।
आज आवश्यकता है वाणी के सदुपयोग की, मन की शुद्धता की, व्यवहार में सतर्कता की, आचरण में पवित्रता की, भोजन में साधारणता की, ईश्वर में विश्वास व आस्था की और यदि सम्भव हो तो पर उपकार की भावना की, स्वार्थ तो सब सिद्ध करते ही हैं, यदि इनका पालन करेंगे तो यह जन्म धन्य हो जायेगा, मानव जीवन फिर मिलता है या नहीं। अतः मानवता का गुण सर्व प्रथम सीढ़ी हो तो सर्वोपरि है ।
“तो आइए आज से ही एक प्रयोग करें निश्छल व निष्कपट जीवन जीने का क्या रखा है इस संसार में, कुछ साथ नहीं जाएगा। “
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि —
“स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वांग्मयं तप उच्यते” ।
मंगलमय जीवन की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ सुप्रभात