हिमशिखर धर्म डेस्क
जब मन में विश्वास और उत्साह की ऊर्जा जागती है तो जीवन की यात्रा की कठिनाइयों को हम खुशी-खुशी पूरा कर लेते हैं। फिर सनातनी परंपरा में तो तीर्थ यात्रा को मानव जीवन के एकमात्र उद्देश्य भगवद् तत्व एवं भगवद् प्रेम की प्राप्ति हेतु माना गया है। भारत के सभी तीर्थों में बदरीनाथ धाम को अति पुण्यदायी कहा गया है। बदरिकाश्रम में भगवान नारायण की मूर्ति के दर्शन जन्म रहते हो जाएं, यह हर हिन्दू की कामना रहती है। दुर्गम हिमालय क्षेत्र में स्थित भगवान बद्रीनाथ के अभिषेक के लिए तिल का तेल निकालने की आदि कालीन परंपराओं का टिहरी राजपरिवार आज भी बखूबी निर्वहन कर रहा है। इस परंपरा के अनुसार राजपरिवार की महिलाओं के पारम्परिक तरीके से पीस कर निकाले गए तिलों के तेल से भगवान की मूर्ति का शीत निद्रा से जागने के बाद अभिषेक किया जाता है। इसके बाद ही भगवान के स्नान-पूजन की क्रियाएं संपन्न की जाती हैं।
द्वापर युग में देवताओं ने स्थापित की मूर्ति
बदरीनाथ को प्राचीनता और परम पवित्रता के कारण हिन्दुओं का सर्वोच्च धाम माना गया है। संसार के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में भगवान विष्णु को संसार का संरक्षक कहा गया है। सतयुग में बदरीनाथ धाम में भगवान नारायण के दर्शन सहज सुलभ थे। त्रेता युग में योगाभ्यासी ऋषियों को दर्शन होते थे। द्वापर आने पर ज्ञान निष्ठ मुनियों को भी भगवान के दर्शन दुर्लभ हो गए। ऐसे में द्वापर युग में ऋषियों की प्रार्थना पर भगवान नारायण ने नारद शिला के नीचे अलकनंदा से अपनी मूर्ति को स्थापित करने को कहा। साथ ही नारायण ने यह भी आश्वस्त किया कि जो कोई इस मूर्ति का दर्शन करेगा, उसे मेरे साक्षात दर्शन का फल प्राप्त होगा। देवगणों ने शालिग्राम शिला से बनी ध्यानमग्न भव्य मूर्ति को नारदकुंड से निकाली और विश्वकर्मा से मंदिर निर्माण करवाकर नारद मुनि को प्रधान अर्चक नियुक्त किया। उस दौरान भगवान की मूर्ति के अभिषेक के लिए देवता लोग तिलों का तेल निकालते थे।
कलियुग में आदि गुरु शंकराचार्य ने स्थापित की मूर्ति
कलियुग में धर्म की पुनः स्थापना के लिए भगवान आदि गुरु शंकराचार्य ने युधिष्ठिर शक संवत 2631 वैशाख शुक्ल पंचमी (लगभग ईसा पूर्व 507) धरती पर अवतार लिया। उस समय विधर्मियों द्वारा हिन्दू मठ और मन्दिरों को क्षत्ति पहुंचाई जा रही थी। बौद्धों ने भगवान बदरीनाथ की मूर्ति को भी नारदकुंड में फेंक दिया। उस समय आदि गुरु शंकराचार्य ने मठ-मंदिरों का जीर्णोद्धार किया। इसी क्रम में बदरिकाश्रम में पहुंचकर उन्होंने नारद कुंड से भगवान की मूर्ति को निकालकर पुनसर््थापित किया।
आदि गुरु ने कनकपाल को दी भगवान बदरीनाथ धार्मिक परम्पराओं के संरक्षण की जिम्मेदारी
आदि गुरु शंकराचार्य ने तत्कालीन चांदपुर गढ़ी के शासक कनक पाल की सहायता से इस क्षेत्र से सभी बौद्धों को निष्कासित किया। इसी के बाद आदि गुरु शंकराचार्य ने भगवान बदरीनाथ की धार्मिक परम्पराओं के संरक्षण की जिम्मेदारी तत्कालीक शासक को दी, जिसका आज भी पालन किया जा रहा है। इतिहासकार ठाकुर भवानी प्रताप सिंह के अनुसार राजा कनक का शासन गढ़वाल में 823 ईस्वी के आस-पास रहा। उस समय राजा रतनपाल चांदपुर गढ़ी से शासन करते थे। बताते हैं कि वर्तमान बद्रीनाथ मंदिर का निर्माण 500 से 600 ईसा पूर्व कुनींद राजवंश केे समय हुआ था। आगे बताते हैं कि आदि गुरु शंकराचार्य की बनाई परम्पराओं का आज भी पीढ़ी दर पीढ़ी टिहरी राजपरिवार निर्वहन कर रहा है।
वसंत पंचमी के दिन निकाला जाता है कपाट खोलने का शुभ मुहूर्त
वसंत पंचमी के दिन नरेंद्रनगर राजमहल में टिहरी महाराजा की जन्म कुंडली और भगवान बद्रीविशाल की कुंडली का मिलान कर कपाट खोलने का शुभ मुहूर्त और गाड़ू घड़ा यात्रा का समय निकाला जाता है। राजपुरोहित पंडित कृष्ण प्रसाद उनियाल ने बताया कि टिहरी महाराजा की कुंडली के आधार कपाट खोलने का शुभ निर्धारण किया जाता है। जिसकी घोषणा स्वयं महाराजा करते हैं। इसी दिन गाड़ू घड़ा यात्रा का भी दिन निकाला जाता है। निर्धारित तिथि पर डिमरी पंचायत पदाधिकारी नरेंद्रनगर में पिरोए गए तेल कलश (गाड़ू घड़ा) को लेने के लिए पहुंचते हैं। इसके बाद तेल कलश यात्रा डिमरी पुजारियों के मूल गांव डिम्मर के लक्ष्मी नारायण मंदिर होते हुए बदरीनाथ धाम के कपाट खोलने से पूर्व पहुंच जाती है।
राजमहल में निकाला जाता है तिल का तेल
वसंत पंचमी के दिन पंचांग गणना के आधार पर तिल का तेल निकालने का शुभ मुहूर्त निकाला जाता है। निकाली गई शुभ तिथि के दिन टिहरी राजपरिवार की महिलाएं पारम्परिक तरीके से पीस कर निकाले गए तिलों के तेल को निकालती है। इस परंपरा के अनुसार नरेंद्रनगर स्थित राजमहल में पीले वस्त्रों में सजी-धजी राज परिवार से जुड़ी सुहागिन महिलाएं महारानी की अगुवाई में बड़ी ही पवित्रता से तिलों का तेल निकालती हैं। तेल कलश (गाडू घड़ा) को भरने के लिए ये महिलाएं पूरे दिन बिना कुछ खाए-पीए पीले रंग का कपड़ा मुंह पर बांध कर तेल निकालने का करती हैं। इस दौरान महिलाहएं व्रत भी रखती हैं। खास बात ये है कि ये तेल बिना किसी मशीन के प्रयोग से तरीके ढंग से निकाला जाता है।
शीत निद्रा से जागने के बाद तिलों के तेल से किया जाता है अभिषेक
भू-वैकुंठ बदरीनाथ धाम में विराजमान भगवान बदरीनाथ की मूर्ति को साक्षात् नारायण कहा जाता है। बदरीनाथ धाम के धर्माधिकारी पंडित भुवन उनियाल बताते हैं कि उच्च हिमालयी क्षेत्र में विराजमान होने से अत्यधिक ठंडा प्रदेश होने के कारण भगवान को ठंड से बचाने के लिए रोजाना ब्रह्म मुहूर्त में तिलों के तेल से अभिषेक किया जाता है। भगवान बद्री विशाल की शीत निद्रा से जागने के बाद भगवान की मूर्ति का रोज सुबह इसी तिल के तेल से ही अभिषेक किया जाता है। इसके बाद ही भगवान का स्नान-पूजन किया जाता है।