भारतीय संस्कृति में प्रकृति के प्रति जागरुकता आदि काल से ही रही है। पंच तत्वों (भूमि, जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु) की उपासना हमारे ऋषि-मुनि करते रहे हैं। वेद-पुराण, श्रीमद्भावगत, रामायण, महाभारत आदि में प्रकृति की पूजा के प्रमाण मिलते हैं। लेकिन आधुनिक युग में पृथ्वी पर जनंसख्या वृद्धि के कारण तीव्र गति से मनुष्य की आवश्यकताएं भी बढ़ रही हैं। यहीं से शुरू होती है प्रकृति के साथ सहयोग की जगह संघर्ष की दास्तां। चिपको आंदोलन वनों के संरक्षण की दिशा में बड़ा कदम है। योग वशिष्ठ में भगवान श्रीराम को गुरु वशिष्ठ उनके द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं, ‘‘जो व्यक्ति अपनी प्रवृत्ति को प्रकृति के साथ तालमेल कर लेता है, उसी का जीवन सफल होता है।’’ आइए जानते हैं इस लेख में प्रसिद्ध चिपको आंदोलन के बारे में रोचक बातें …
हिमशिखर पर्यावरण डेस्क
क्या हैं जंगल के उपकार-मिट्टी, पानी और बयार…। साधारण सी दिखने वाली इन पंक्तियों ने ही चिपको आंदोलन को धार देने का काम किया। 1960 के दशक में जब पहाड़ में जगह-जगह प्राकृतिक आपदाएं सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रही थी। तो उस समय गांधीवादी सुंदर लाल बहुगुणा पैदल यात्रा पर निकल पड़े। उन्होंने पाया कि प्राकृतिक आपदाएं वन विनाश का ही दुष्परिणाम हैं। फिर क्या था चिपको आंदोलन के उदय के बाद सुंदर लाल बहुगुणा वनों को कटने से बचाने के लिए उतर आए। उनका आंदोलन रंग लाया तो अदवाणी, बड़ियार गढ़, कांगड़, लासी, खुरेत के जंगलों का कत्लेआम होने से बच गया। वहीं जंगल के ठेकेदारों को भी उल्टे पांव लौटने को भी मजबूर होना पड़ा।
यह बात 1970 के दशक की है जब सुंदर लाल बहुगुणा ने हिमालय की पगडंडियों को पैदल नापना शुरू किया। उनका लक्ष्य था वन विनाश के परिणामों और वन संरक्षण के फायदों को समझना। उन्होंने देखा कि पेड़ों में मिट्टी को बांधे रखने और जल संरक्षण की क्षमता है। अंग्रेजों के फैलाए चीड़ और इसी से जुड़ी वन विभाग की वनों की परिभाषा जंगलों की देन लकड़ी और लीसा और व्यापार भी उनके गले नहीं उतरी।
इस तरह हुआ चिपको आंदोलन के नारे का जन्म
उनका मानना था कि वनों का पहला उपयोग लोगों के पास रहना चाहिए। उससे उन्हें जरूरी चीजों के साथ ही चारा, लकड़ी, घास घर के पास ही सुलभ हो जाएगी। उन्होंने कहा कि वनों की असली देन तो मिट्टी पानी और हवा है। उनकी इसी सोच से बाद में चिपको आंदोलन के नारे ‘‘ क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी पानी और वयार, मिट्टी पानी और बयार जिंदा रहने के आधार’’ का जन्म हुआ।
शहादत दिवस को वन दिवस के रूप में मनाने का लिया फैसला
सुंदर लाल बहुगुणा ने वन अधिकारों के लिए बड़कोट के तिलाड़ी में शहीद हुए ग्रामीणों के शहादत दिवस 30 मई को वन दिवस के रूप मे मनाने का 30 मई 1967 में निश्चय किया। इसमें अपने सर्वोदयी साथियों के अलावा सभी से शामिल होने की उन्होंने अपील की। 1968 में सुंदर लाल बहुगुणा ने इस दिवस को मनाने के लिए पुस्तिका निकाली जिसे नाम दिया गया पर्वतीय क्षेत्र का विकास और वन नीति। इसमें कहा गया था कि वन, कृषि, पशुपालन और कुटीर उद्योग से लोगों को वर्ष भर में कम से कम 300 दिन का रोजगार मिलना चाहिए।
शराबबंदी आंदोलन में कूद गए बहुगुणा
1969 में तिलाड़ी में शहीद स्मारक की स्थापना के साथ ही सुंदर लाल बहुगुणा ने अपने साथियों के साथ वन संरक्षण की शपथ ली। इस बीच सुंदर लाल बहुगुणा 1969 से 1971 तक सफल शराब बंदी के लिए गढ़वाल से लेकर कुमाऊं के बीच दौड़-भाग करते रहे। 1971 के सफल आंदोलन के बाद जब पहाड़ में सरकार ने शराबबंदी लागू कर दी तो बहुगुणा ने वन आंदोलन का बीड़ा दोबारा से उठाया।