छोटी दिवाली को नरक चतुर्दशी के रूप में मनाया जाता है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण और यमराज की पूजा की जाती है। आखिर छोटी दिवाली को क्यों नरक चतुर्दशी कहा जाता है?
- छोटी दिवाली को नरक चतुदर्शी के नाम से भी जाना जाता है
- छोटी दिवाली के दिन भगवान कृष्ण और यमराज की पूजा की जाती है
- छोटी दिवाली आज 23 अक्टूबर को मनाई जाएगी
पंडित उदय शंकर भट्ट
दीपावली से एक दिन पहले मतलब कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की तिथि को नरक चतुर्दशी, नरक चौदस, नर्क चतुर्दशी, रूप चौदस आदि नाम से जाना जाता है। मान्यता है कि इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर नामक दैत्य का संहार किया था। इस दिन सूर्योदय से पूर्व ब्रह्म बेला में उठकर, स्नानादि से निपट कर यमराज का तर्पण कर तीन अंजलि जल अर्पित करने का विधान है। संध्या के समय दीपक जलाए जाते हैं। विधि-विधान से पूजा करने वाले व्यक्ति पापों से मुक्त हो स्वर्ग को प्राप्त करते हैं। इस दिन शाम को यमराज के लिए दीपदान की प्रथा है। दीपावली से ठीक एक दिन पहले नरक चतुर्दशी को दीपावली की रात्रि की तरह ही रात के समय दीये की रोशनी से रात के तिमिर को प्रकाश पुंज से दूर भगा दिया जाता है, यही कारण है कि इस तिथि अर्थात रात को छोटी दीपावली का नाम से जाना जाता है।
पौराणिक मान्यतानुसार भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर को क्रूर कर्म करने से रोका और कृष्ण और सत्यभामा ने नरकासुर मर्दन कर दिया। उन्होंने सोलह हजार कन्याओं को उस दुष्ट की कैद से छुड़ाकर अपनी शरण दी और नरकासुर को यमपुरी पहुँचाया। नरकासुर वासनाओं के समूह और अहंकार का प्रतीक है। श्रीकृष्ण ने जिस भांति उन कन्याओं को अपनी शरण देकर नरकासुर को यमपुरी पहुँचाया, उसी प्रकार मनुष्यों को भी अपने चित्त में विद्यमान नरकासुररूपी अहंकार और वासनाओं के समूह को श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए, ताकि मनुष्य का अहं यमपुरी पहुँच जाय और मनुष्य की असंख्य वृत्तियाँ श्री कृष्ण के अधीन हो जायें। नरक चतुर्दशी पर्व का यही उद्देश्य है।
इन दिनों में अंधकार में उजाला किया जाता है। मनुष्य के अपने जीवन में चाहे जितना अंधकार दिखता हो, चाहे जितना नरकासुर अर्थात वासना और अहं का प्रभाव दिखता हो, उसे अपने आत्मकृष्ण को स्मरण कर उसकी गुण- गान करनी चाहिए। श्रीकृष्ण रुक्मिणी को आहुति देकर अर्थात अपनी ब्रह्मविद्या को आगे करके नरकासुर को ठिकाने लगा सकेंगे। स्त्रियों की शक्ति अर्थात मातृ शक्ति से भी यह दिवस परिचित कराता है। नरकासुर के साथ केवल श्रीकृष्ण ही नहीं लड़े हैं बल्कि श्रीकृष्ण के साथ रुक्मिणी भी थीं। सोलह-सोलह हजार कन्याओं को वश में करने वाले श्रीकृष्ण को एक स्त्री माता रुक्मिणी ने वश में कर लिया। यहाँ श्रीकृष्ण नारी की अदभुत शक्ति की भी याद दिलाते नजर आते हैं। कतिपय पौराणिक ग्रन्थों में रुक्मिणी के स्थान पर सत्यभामा को श्रीकृष्ण के साथ नरकासुर का मर्दन करते हुए बताया गया है ।
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि दीये जलाने की प्रथा के संदर्भ में कई पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन ही भगवान श्रीकृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। इस उपलक्ष में दीयों की बारात सजायी जाती है। इस दिन के व्रत और पूजा के संदर्भ में एक अन्य प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन काल में रन्तिदेव नामक एक पुण्यात्मा और धर्मात्मा राजा थे, जिन्होंने अनजाने में भी कोई पाप नहीं किया था, लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उनके सामने यमदूत आ खड़े हुए। यमदूत को सामने देख राजा अचंभित हुए।
राजा ने यमदूतों से कहा कि मैंने तो कभी कोई पाप कर्म नहीं किया, फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आए हो? आपके यहाँ आने से यह सिद्ध होता है कि मुझे नर्क गमन करना होगा। मुझ पर कृपा करें और यह बताएं कि मेरे किस अपराध के कारण मुझे नरक जाना पड़ रहा है? पुण्यात्मा राजा की अनुनय भरी वाणी सुनकर यमदूत ने कहा कि एक बार आपके द्वार से एक भूखा ब्राह्मण लौट गया, यह उसी पापकर्म का फल है। दूतों के इस प्रकार कहने पर राजा ने यमदूतों से कहा कि मैं आपसे विनती करता हूँ कि मुझे एक वर्ष का और समय दे दें। यमदूतों ने राजा को एक वर्ष की मोहल्लत दे दी। राजा अपनी परेशानी लेकर ऋषियों के पास पहुँचा और उन्हें सब वृतान्त कहकर उनसे इस पाप से मुक्ति का क्या उपाय पूछा। ऋषियों ने उन्हें सलाह देते हुए कहा कि आप कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें और ब्राह्मणों को भोजन करवा कर उनसे अनके प्रति हुए अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करें। राजा ने ऋषियों के बताये अनुसार ही किया। इस प्रकार राजा पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ। उस दिन से पाप और नर्क से मुक्ति हेतु भूलोक में कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन का व्रत प्रचलित है।
तीसरी कथा भगवान वामन व राजा बलि से सम्बन्धित है। इस पौराणिक कथा के अनुसार जब भगवान वामन ने त्रयोदशी से अमावस्या की अवधि के बीच परम दानी दैत्यराज बलि के राज्य को तीन कदम में नाप दिया तो, बलि ने अपना पूरा राज्य भगवान विष्णु के अवतार भगवान वामन को दान कर दिया। इस पर भगवान वामन ने प्रसन्न होकर बलि से वर माँगने को कहा। बलि ने भगवान से कहा कि, मैंने जो कुछ आपको दिया है, उसे तो मैं माँग सकता नहीं और न ही अपने लिए कुछ और माँगूँगा, लेकिन संसार के लोगों के कल्याण के लिए मैं एक वर माँगता हूँ। आपकी शक्ति है, तो दे दीजिये। इस पर भगवान वामन ने उन्हें वर मांगने के लिए कहा। यह सुन दैत्यराज बलि ने कहा कि आपने कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से लेकर अमावस्या की अवधि में मेरी संपूर्ण पृथ्वी नाप ली।
इन तीन दिनों में प्रतिवर्ष मेरा राज्य रहना चाहिए और इन तीन दिन की अवधि में मेरे राज्य में दीपावली मनाने वाले व्यक्ति के घर में लक्ष्मी का स्थायी निवास हो तथा चतुर्दशी के दिन नरक के लिए दीपों का दान करने वाले व्यक्ति के सभी पितर कभी नरक में न रहें, उसे यम यातना नहीं होनी चाहिए। राजा बलि की प्रार्थना सुनकर वामन बोले- मेरा वरदान है कि चतुर्दशी के दिन नरक के स्वामी यमराज को दीपदान करने वाले व्यक्ति के पितर लोग कभी भी नरक में नहीं रहेंगे और इन तीन दिनों में दीपावली का उत्सव मनाने वाले व्यक्ति के घर को छोड़कर मेरी प्रिय लक्ष्मी कहीं भी नहीं जायेंगी। जो इन तीन दिनों में बलि के राज में दीपावली नहीं करेंगे, उनके घर में दीपक कैसे जलेंगे? तीन दिन बलि के राज में जो मनुष्य उत्साह नहीं करते, उनके घर में सदा शोक रहे। इस कथा के अनुसार भगवान वामन द्वारा बलि को दिये इस वरदान के बाद से ही नरक चतुर्दशी के व्रत, पूजन और दीपदान का प्रचलन आरम्भ हुआ, जो आज तक चला आ रहा है।