भगवान दत्तात्रेय को त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों का एक रूप माना गया है। आज भगवान दत्तात्रेय की जयंती है। भगवान दत्तात्रेय में तीनों रूप समाहित होने के कारण उन्हें कलयुग का देवता माना जाता है। मान्यता है कि भगवान दत्तात्रेय की पूजा करने से तीनों त्रिदेव की पूजा करने का फल प्राप्त होता है। भगवान त्रिदेव का स्वरूप माने जाने वाले दत्तात्रेय आजन्म ब्रह्मचारी और संन्यासी कहलाए। आइए जानते हैं कौन हैं भगवान दत्तात्रेय और कैसे हुई इनकी उत्पत्ति…
हिमशिखर धर्म डेस्क
“आदौ ब्रह्मा मध्ये विष्णुरन्ते देवः सदाशिवः
मूर्तित्रयस्वरूपाय दत्तात्रेयाय नमोस्तु ते।
ब्रह्मज्ञानमयी मुद्रा वस्त्रे चाकाशभूतले
प्रज्ञानघनबोधाय दत्तात्रेयाय नमोस्तु ते।।”
भावार्थ –“जो आदि में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा अन्त में सदाशिव है, उन भगवान दत्तात्रेय को बारम्बार नमस्कार है। ब्रह्मज्ञान जिनकी मुद्रा है, आकाश और भूतल जिनके वस्त्र है तथा जो साकार प्रज्ञानघन स्वरूप है, उन भगवान दत्तात्रेय को बारम्बार नमस्कार है।”
आज अगहन माह की पूर्णिमा तिथि है और इस दिन भगवान दत्तात्रेय का जन्मोत्सव मनाया जाता है। पूर्णिमा पर पूजा-पाठ, गंगा स्नान और दान-पुण्य का विशेष महत्व होता है। सनातन हिंदू पंचांग के अनुसार हर वर्ष मार्गशीर्ष माह की पूर्णिमा तिथि को भगवान दत्तात्रेय की जयंती मनाई जाती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान दत्तात्रेय ऐसे देवता है जिनमें भगवान शंकर, विष्णु और ब्रह्रााजी तीनों का मिला जुला रूप है। इसके अलावा भगवान दत्तात्रेय के अंदर गुरु और भगवान दोनों का स्वरूप निहित है। इनके तीन मुख और 6 हाथ हैं। गाय और चार श्वान इनके साथ हमेशा रहते हैं। भगवान दत्तात्रेय ने अपने 24 गुरु माने हैं। इनकी पूजा करने पर त्रिदेवों का आशीर्वाद एक साथ मिलता है। इसके अलावा जब तीनों देवों ने माता अनुसूया के पतिव्रत धर्म की परीक्षा ली और उन पर प्रसन्न हुए थे तब तीनों के संयुक्त रूप में इनका जन्म हुआ था।
श्री दत्तात्रेय देवता का नाम व अर्थ
अ. दत्त : ‘दत्त’ अर्थात वह जिसे (निर्गुण की अनुभूति) प्रदान की गई हो कि ‘वह स्वयं ब्रह्म ही है, मुक्त है, आत्मा है । जन्म से ही दत्त को निर्गुण की अनुभूति थी, जबकि साधकों को ऐसी अनुभूति होने के लिए अनेक जन्म साधना करनी पडती है । इससे दत्तात्रेय देवता का महत्त्व ध्यान में आता है ।
आ. अवधूत : दत्तात्रेय भगवान अवधूत कहे जाते हैं।
१. अवधूत शब्द की उत्पत्ति और उसके कुछ अर्थ
अ. जो निरंतर आनंद का अनुभव करता है (परमानंद) (आनंदे वर्तते नित्यम ।)
आ. जो निरंतर वर्तमान में रहता है (वर्तमानेन वर्तते ।)
इ. जिसका अज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा हर लिया गया है और जो सब को मुक्ति प्रदान करता है । (ज्ञाननिर्धूत वल्याण: ।)
ई. जो अज्ञान को निरपेक्ष सिद्धांत पर ध्यान द्वारा नष्ट करता है । (तत्त्वचिन्तनधूत येन ।)
२. अवधूतोपनिषद् में अवधूत का वर्णन इस प्रकार किया गया है।
अ. यह शब्दांश अक्षरत्व को संबोधित करता है । अवधूत वह है जिसे अक्षरब्रह्म का साक्षात्कार हुआ है। अक्षरत्व का अर्थ सफलता पूर्वक किसी कार्य को पूरा करने की क्षमता है ।
आ. इस शब्द की उत्पत्ति वरेण्यत्व शब्द से हुई जिसका अर्थ संपूर्णता अथवा महानता का शिखर है ।
इ. यह उसको संदर्भित करता है जो सभी प्रकार के बंधन से परे है, मुक्त है और जो बिना किसी उपाधि अथवा प्रतिबंध के कार्य करता है ।
इ. तत्त्वमसि’ यह अमर वचन का प्रतिनिधित्व करता है । जिसका अर्थ है, ‘आप वह सिद्धांत हैं ।’ संक्षेप में, अवधूत की उपाधि उस महान संत को दी जाती है जो आत्मज्ञान में तल्लीन रहता है ।
३. सर्वान् प्रकृतिविकारान् अवधुनोतीत्यवधूतः।
अर्थ : गोरक्षनाथ द्वारा लिखित पवित्र ग्रंथ सिद्धसिद्धान्तपद्धति में किए गए वर्णन के अनुसार अवधूत वह है जो सत्त्व, रज एवं तम को शुद्ध अथवा नष्ट कर देता है ।
४. भगवान दत्तात्रेय के भक्त ‘‘अवधूत चिन्तन श्री गुरुदेव दत्त ।’’ का उद्घोष करते हैं ।
अर्थ : अवधूत एक भक्त है । श्री गुरुदेव दत्त भक्तों के चिंतन में सदा तल्लीन रहते हैं, अर्थात वे भक्तों के शुभचिंतक हैं ।
इ. भगवान दत्तात्रेय : यह शब्द दत्त और आत्रेय, इस प्रकार बना है। ‘दत्त’ का अर्थ पहले ऊपर बताया जा चुका है। आत्रेय अर्थात अत्रि ऋषि के पुत्र।
भगवान दत्तात्रेय का परिवार
यदि भगवान दत्तात्रेय के रूप को ध्यानपूर्वक देखें तो आप उन्हें कभी भी अकेला नहीं पाएंगे। उनके पीछे एक गाय और आसपास चार कुत्ते देखे जा सकते हैं । हम यह भी देखते हैं कि भगवान दत्तात्रेय एक विशाल उदुंबर (गूलर) के वृक्ष के नीचे खडे हैं । अब हम इन तीन पहलुओं के बारे में समझते हैं ।
अ. गाय (पीछे की ओर खडी) : पृथ्वी एवं कामधेनु (इच्छित फल देने वाली)
आ. चार कुत्ते : चार वेद
इ. उदुंबर का (गूलर का) वृक्ष : दत्त का पूजनीय रूप; क्योंकि उसमें दत्ततत्त्व अधिक मात्रा में रहता है ।
भगवान दत्तात्रेय जन्म कथा
शास्त्रों के अनुसार महर्षि अत्रि मुनि की पत्नी अनुसूया के पतिव्रत धर्म की चर्चा तीनों लोक में होने लगी। जब नारदजी ने अनुसूया के पतिधर्म की सराहना तीनों देवियों से की तो माता पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती ने अनुसूया की परीक्षा लेने की ठान ली। सती अनसूया के पतिव्रत धर्म की परीक्षा लेने के लिए त्रिदेवियों के अनुरोध पर तीनों देव ब्रह्मा, विष्णु और शिव पृथ्वी लोक पहुंचे। अत्रि मुनि की अनुपस्थिति में तीनों देव साधु के भेष में अनुसूया के आश्रम में पहुंचे और माता अनसूया के सम्मुख भोजन करने की इच्छा प्रकट की। देवी अनुसूया ने अतिथि सत्कार को अपना धर्म मानते हुए उनकी बात मान ली और उनके लिए प्रेम भाव से भोजन की थाली परोस लाई। परन्तु तीनों देवताओं ने माता के सामने यह शर्त रखी कि वह उन्हें निर्वस्त्र होकर भोजन कराए। इस पर माता को संशय हुआ। इस संकट से निकलने के लिए उन्होंने ध्यान लगाकर जब अपने पति अत्रिमुनि का स्मरण किया तो सामने खड़े साधुओं के रूप में उन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश खड़े दिखाई दिए। माता अनसूया ने अत्रिमुनि के कमंडल से जल निकालकर तीनों साधुओं पर छिड़का तो वे छह माह के शिशु बन गए। तब माता ने शर्त के मुताबिक उन्हें भोजन कराया। वहीं बहुत दिन तक पति के वियोग में तीनों देवियां व्याकुल हो गईं। तब नारद मुनि ने उन्हें पृथ्वी लोक का वृत्तांत सुनाया। तीनों देवियां पृथ्वी लोक पहुंचीं और माता अनसूया से क्षमा याचना की। देवियों को अपनी भूल पर पछतावा होने लगा। वह तीनों ही माता अनुसूया से क्षमा मांगने लगी। तीनों ने उनके पतिव्रत धर्म के समक्ष अपना सिर झुकाया। माता अनुसूया ने कहा कि इन तीनों ने मेरा दूध पीया है, इसलिए इन्हें बालरुप में ही रहना ही होगा। यह सुनकर तीनों देवों ने अपने-अपने अंश को मिलाकर एक नया अंश पैदा किया। इसका नाम दत्तात्रेय रखा गया। इनके तीन सिर तथा छ: हाथ बने। तीनों देवों को एक साथ बालरुप में दत्तात्रेय के अंश में पाने के बाद माता अनुसूया ने अपने पति अत्रि ऋषि के चरणों का जल तीनों देवों पर छिड़का और उन्हें पूर्ववत रुप प्रदान कर दिया।