हिमशिखर धर्म डेस्क
आज की कथा में:–श्रीराम, लक्ष्मण तथा ऋषियों सहित विश्वामित्र का मिथिला को प्रस्थान तथा मार्ग में सन्ध्या के समय शोणभद्र तट पर विश्राम।
विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करके कृतकृत्य हुए श्रीराम और लक्ष्मण ने उस यज्ञशाला में ही वह रात बितायी। उस समय वे दोनों वीर बड़े प्रसन्न थे। उनका हृदय हर्षोल्लास से परिपूर्ण था।
रात बीतने पर जब प्रातःकाल आया, तब वे दोनों भाई पूर्वाह्नकाल के नित्य नियम से निवृत्त हो विश्वामित्र मुनि तथा अन्य ऋषियों के पास साथ-साथ गये। वहाँ जाकर उन्होंने प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ ! विश्वामित्र को प्रणाम किया और मधुर भाषा में यह परम उदार वचन कहा–श्रीराम-लक्ष्मण बोले–‘मुनिप्रवर! हम दोनों किंकर आपकी सेवा में उपस्थित हैं। मुनिश्रेष्ठ! आज्ञा दीजिये, हम क्या सेवा करें ?’
उन दोनों के ऐसा कहने पर वे सभी महर्षि विश्वामित्र को आगे करके श्रीरामचन्द्रजी से बोले–‘नरश्रेष्ठ! मिथिला के राजा जनक का परम धर्ममय यज्ञ प्रारम्भ होने वाला है। उसमें हम सब लोग जायँगे। राम! तुम्हें भी हमारे साथ वहाँ चलना है। वहाँ एक बड़ा ही अद्भुत धनुषरत्न है। तुम्हें उसे देखना चाहिये। पुरुषप्रवर! पहले कभी यज्ञ में पधारे हुए देवताओं ने जनक के किसी पूर्वपुरुष को वह धनुष दिया था। वह कितना प्रबल और भारी है, इसका कोई माप-तोल नहीं है। वह बहुत ही प्रकाशमान एवं भयंकर है।
मनुष्यों की तो बात ही क्या है। देवता, गन्धर्व, असुर तथा राक्षस भी किसी तरह उसकी प्रत्यञ्चा नहीं चढ़ा पाते। उस धनुष की शक्ति का पता लगाने के लिये कितने ही महाबली राजा और राजकुमार आये; किन्तु कोई भी उसे चढ़ा न सके। ककुत्स्थकुलनन्दन राम! वहाँ चलने से तुम महामना मिथिला नरेश के उस धनुष को तथा उनके परम अद्भुत यज्ञ को भी देख सकोगे।
नरश्रेष्ठ! मिथिला नरेश ने अपने यज्ञ के फलरूप में उस उत्तम धनुष को माँगा था, अतः सम्पूर्ण देवताओं तथा भगवान् शंकर ने उन्हें वह धनुष प्रदान किया था। उस धनुष का मध्यभाग जिसे मुट्ठी से पकड़ा जाता है, बहुत ही सुन्दर है।
रघुनन्दन! राजा जनक के महल में वह धनुष पूजनीय देवता की भाँति प्रतिष्ठित है और नाना प्रकार के गन्ध, धूप तथा अगुरु आदि सुगन्धित पदार्थों से उसकी पूजा होती है।’
ऐसा कहकर मुनिवर विश्वामित्रजी ने वनदेवताओं से आज्ञा ली और ऋषिमण्डली तथा राम-लक्ष्मण के साथ वहाँ से प्रस्थान किया। चलते समय उन्होंने वनदेवताओं से कहा–‘मैं अपना यज्ञकार्य सिद्ध करके इस सिद्धाश्रम से जा रहा हूँ। गंगा के उत्तर तट पर होता हुआ हिमालय पर्वत की उपत्यका में जाऊँगा। आप लोगों का कल्याण हो।’
ऐसा कहकर तपस्या के धनी मुनिश्रेष्ठ कौशिक ने उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान आरम्भ किया। उस समय–प्रस्थान के समय यात्रा करते हुए मुनिवर विश्वामित्र के पीछे उनके साथ जाने वाले ब्रह्मवादी महर्षियों की सौ गाड़ियाँ चलीं।
सिद्धाश्रम में निवास करने वाले मृग और पक्षी भी तपोधन विश्वामित्र के पीछे-पीछे जाने लगे। कुछ दूर जाने पर ऋषिमण्डली सहित विश्वामित्र ने उन पशु-पक्षियों को लौटा दिया। फिर दूर तक का मार्ग तै कर लेने के बाद जब सूर्य अस्ताचल को जाने लगे, तब उन ऋषियों ने पूर्ण सावधान रहकर शोणभद्र के तट पर पड़ाव डाला। जब सूर्यदेव अस्त हो गये, तब स्नान करके उन सबने अग्निहोत्र का कार्य पूर्ण किया।
इसके बाद वे सभी अमिततेजस्वी ऋषि मुनिवर विश्वामित्र को आगे करके बैठे; फिर लक्ष्मण सहित श्रीराम भी उन ऋषियों का आदर करते हुए बुद्धिमान् विश्वामित्रजी के सामने बैठ गये। तत्पश्चात् महातेजस्वी श्रीराम ने तपस्या के धनी मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र से कौतूहल पूर्वक पूछा–‘भगवन्! यह हरे-भरे समृद्धिशाली वन से सुशोभित देश कौन-सा है ? मैं इसका परिचय सुनना चाहता हूँ। आपका कल्याण हो। आप मुझे ठीक-ठीक इसका रहस्य बताइये।’
श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रश्न से प्रेरित होकर उत्तम व्रत का पालन करने वाले महातपस्वी विश्वामित्र ने ऋषिमण्डली के बीच उस देश का पूर्णरूप से परिचय देना प्रारम्भ किया।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदि काव्य के बालकाण्ड में इकतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥३१॥