हिमशिखर खबर ब्यूरो
नई टिहरी: आधुनिकता की चकाचौंध में हमें अपनी संस्कृति, सभ्यता व संस्कारों को दरकिनार नहीं करना चाहिए। आज के समय में हम शिष्टाचार, नैतिकता को भूलते जा रहे हैं। शिष्टाचार व नैतिकता हमारे जीवन में बहुत अहम है। यह बातें डॉ प्रमोद उनियाल ने संस्कारों की वैशिष्ट्यता एवं वर्तमान परिपेक्ष में प्रासंगिकता विषय पर आयोजित आनलाइन संगोष्ठी में बतौर मुुख्य अतिथि बोल रहे थे।
उत्तराखंड संस्कृत अकादमी की पहल पर उत्तराखंड के प्रत्येक जनपद में संस्कृत के प्रचार प्रसार एवं सम्वर्द्धन के लिए संस्कारों की वैशिष्ट्यता एवं वर्तमान परिपेक्ष में प्रासंगिकता विषय पर आनलाइन संगोष्ठियों का आयोजन किया जा रहा है। इसी क्रम में आज टिहरी जनपद में आनलाइन संगोष्ठी का आयोजन किया गया। मुख्य अतिथि डॉ प्रमोद उनियाल ने वर्तमान में संस्कारों की उपादेयता को बताते हुए कहा कि अष्टका-पार्वण एवं श्राद्ध यज्ञ को वर्तमान पीढ़ी के नवयुवक भूल गए हैं। अपनी संस्कृति को तभी बचाया जा सकता है जब हम अपने संस्कारों को जानेंगे। कहा कि मनुष्य योनि को पाकर जो इस लोक में सत्कर्म तथा परलोक हेतु परमार्थ नहीं करता उसका उद्धार किसी भी योनि में संभव नहीं है। इसलिए मानव को निरंतर अहर्निश यहां धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चतुर्विध सोपानों का पालन करते हुए जीवन को धन्य बनाना चाहिए। संसार की प्रत्येक वस्तु नश्वर है। यदि आदि है, तो अन्त भी होगा। यदि जन्म हुआ है तो मृत्यु भी होगी, इससे आज क कोई बच नहीं सका है। परन्तु मृत्यु कोई भयावह घटना नहीं होती। परन्तु यदि अपने जीवन में सभी दायित्वों को निभाते हुए, मृत्यु से अमृत्यु की की यात्रा करनी सीखी जाए तो देह त्याग की यह क्रिया मृत्यु नहीं वरन् मुक्ति पथ का द्वार होती है। शरीर छूटने के पश्चात जब आत्मा शरीर से बाहर निकल जाती है, तब भी वह काफी समय तक ऊहापोह में रहती है, कि क्या हो गया है ?
हिन्दू शास्त्रों के अनुसार मृतक की तेरहवीं तक आत्मा अंश अथवा पूर्ण रूप से अपने घर-परिवार के सम्पर्क में बनी रहती है। इस अंतराल में परिवार जनों द्वारा किए गए दान, ब्राह्मण भोज, तर्पण आदि कर्मों से मृतक आत्मा में आनन्द का संचार होता है, कि उसे अपने वंशजों से सम्मान प्राप्त हो रहा है। इन क्रियाओं में कोई त्रुटि रहने पर आत्मा को क्लेश पहुंचता है। इसलिए अंत्येष्टि संस्कार को पूर्ण भावांजलि व्यक्त करते हुए सम्पन्न करना चाहिए। इससे उस मृतक आत्मा का आशीर्वाद भी प्राप्त होता है। वेदों में पित को देवता की श्रेणी दी गई है, पितृ देव कहा गया है, उन्हें उसी प्रकार अर्ध्य आदि देना चाहिए। जिस प्रकार गर्भाधान संस्कार के लिए एक नए मान का आवाहन माता-पिता द्वारा किया जाता है तथा उसके स्वागतार्थ क्रिया की जाती है, उसी प्रकार उस मनुष्य को विदाई देते हुए उसका अन्तिम संस्कार उसके ही रक्तांश, उसके ही आत्मज पुंज करते हैं। यही विधि का विधान है।
मुख्य वक्ता प्रो रामानुज उपाध्याय ने कहा कि मनुष्य को षोडश संस्कार के साथ साथ गौतम ऋषि द्वारा लिखित 48 संस्कारों का भी ज्ञान अति आवश्यक है। संगोष्ठी के अध्यक्ष प्रो वेद प्रकाश उपाध्याय ने कहा कि अष्टका-पार्वण श्राद्ध यज्ञ भारतीय संस्कृति के मूल में है। देवप्रयाग संस्कृत विश्वविद्यालय श्री रघुनाथ कीर्ति परिसर के वेद विभाग के प्रो शैलेन्द्र उनियाल ने शिखा के विषय में बताया कि शिखा का महत्व भारतीय संस्कृति में क्षीण होता जा रहा है। डाकपत्थर से डॉ मनोरथ प्रसाद नौगांई ने वर्तमान में संस्कारों की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला। संगोष्ठी का सफल आयोजन डॉ विवेकानंद भट्ट असिस्टेंट प्रोफेसर राजकीय महाविद्यालय पोखरी क्वीली टिहरी गढ़वाल एवं डॉ श्रीओम शर्मा असिस्टेंट प्रोफेसर संस्कृत विश्वविद्यालय देवप्रयाग द्वारा किया गया।