सुप्रभातम्: चारों युगों का रहस्य जानकर चौंक जाएंगे

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पुराणों के अनुसार सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग-ये चार युग माने गए हैं। पहले युग को सत्ययुग कहते हैं, दूसरे का नाम त्रेता है, तीसरे का नाम द्वापर है और अंतिम युग को कलियुग कहते हैं। इसी क्रम से इनका आगमन होता है।


हिमशिखर धर्म डेस्क

युग और युग के प्रकार

युग से तात्पर्य यह है कि एक निश्चित काल अवधि युग कहलाती है। युग 4 प्रकार के होते हैं- सतयुग,त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलयुग। इन सब युगों का अपना अलग महत्व है। इनकी समय और काल अवधि अलग-अलग है।
शास्त्र के अनुसार हर युग में भगवान का जन्म होता है। सब युग एक जैसे ही होते हैं। सबसे पहले सतयुग होता है और वर्तमान समय में कलयुग का विस्तार है।
आज हम आपको इस लेख में बताएंगे चारों युगों के बारे में और मनुष्य एक युग में कितनी बार जन्म लेता है।

सतयुग में सब देवताओं के समान थे

सतयुग में देवता, गंधर्व, राक्षस तथा सर्पों का भेद नहीं था। उस समय सब के सब देवताओं के समान स्वभाव वाले थे। सब प्रसन्न और धर्मनिष्ठ थे। इस युग में क्रय-विक्रय और वेदों का विभाग नहीं था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र सभी अपने-अपने कर्तव्य के पालन में तत्पर रहकर सदा भगवान की उपासना करते थे। सभी अपनी योग्यता के अनुसार तपस्या और ध्यान में लगे रहते थे। उनमें काम, क्रोध आदि दोष नहीं थे। सब लोग शम-दम आदि सद्गुणों में तत्पर थे।

सबका मन धर्म साधना में लगा रहता था। किसी में ईष्र्या तथा दूसरों के दोष देखने का स्वभाव नहीं था। सभी लोग दम्भ और पाखण्ड से दूर रहते थे। सतयुग के सभी द्विज सत्यवादी, चारों आश्रमों के धर्म का पालन करने वाले, वेदाध्ययन सम्पन्न तथा संपूर्ण शास्त्रों के ज्ञान में निपुण थे। सतयुग में भगवान् नारायण का विग्रह अत्यंत निर्मल एवं शुक्लवर्ण का होता है।

त्रेतायुग में धर्म एक पाद से हीन हो जाता है

त्रेतायुग में धर्म एक पाद से हीन हो जाता है। यानी सत्ययुग की अपेक्षा एक चैथाई कम लोग धर्म का पालन करते हैं। इस युग में भगवान् के शरीर का वर्ण लाल हो जाता है। उस समय जनता को कुछ क्लेश भी होने लगता है। त्रेतायुग में सभी द्विज क्रियायोग में तत्पर रहते हैं। यज्ञ-कर्म में उनकी निष्ठा होती है। वे नियमपूर्वक सत्य बोलते, भगवान् का ध्यान करते, दान देते और न्याययुक्त प्रतिग्रह भी स्वीकार करते हैं।

द्वापर युग में धर्म के दो ही पैर रह जाते हैं

द्वापर युग में धर्म के दो ही पैर रह जाते हैं। इस युग में भगवान् विष्णु का वर्ण पीला हो जाता है और वेद के चार विभाग हो जाते हैं। उस समय कोई-कोई असत्य भी बोलने लगते हैं। कुछ लोगों में राग-द्वेष आदि दुर्गुण आ जाते हैं। कुछ लोग स्वर्ग और अपवर्ग के लिए यज्ञ करते हैं, कोई धनादि की कामनाओं में आसक्त हो जाते हैं और कुछ लोगों का हृदय पाप से मलिन हो जाता है। द्वापर में धर्म और अधर्म दोनों की स्थिति समान होती है। अधर्म के प्रभाव से उस समय की प्रजा क्षीण होने लगती है। कितने ही लोग द्वापर आने पर अल्पायु भी हो जाते हैं। कुछ लोग दूसरों को पुण्य में तत्पर देखकर उनसे डाह करने लगते हैं।

कलियुग में धर्म का एक ही पैर शेष रह जाता है

कलियुग आने पर धर्म का एक ही पैर शेष रह जाता है। इस तामस युग के आने पर कोई बिरला धर्मात्मा ही यज्ञों का अनुष्ठान करता है और कोई महान पुण्यात्मा ही क्रियायोग में तत्पर रहता है। कलियुग में धर्मपरायण मनुष्य को देखकर सब लोग ईष्र्या और निन्दा करते हैं। कलियुग में व्रत और सदाचार धीरे-धीरे नष्ट होने लगते हैं। ज्ञान और यज्ञ आदि की भी यही दशा होती है। उस समय अधर्म का प्रचार होने से जगत् में उपद्रव होने लगते हैं। लोग दूसरों के दोष बताने वाले और स्वयं पाखण्डपूर्ण आचरण में तत्पर होने लगते हैं।

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