विशेष व्यक्तित्व को सामान्य बुद्धि से आंकने में त्रुटियां होना है लाजिमी

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हिमशिखर धर्म डेस्क

काका हरिओम्

स्वामी रामतीर्थ मिशन देहरादून में चल रहे ऑनलाइन सम्मेलन के तीसरे दिन आज श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम से साधना सत्र में भगवान् के इस कथन को स्पष्ट किया गया, जिसमें वे कहते हैं कि वह साधक, जो साधना करते करते अपने देह का परित्याग कर देता है, पूर्वजन्म में की गई साधना के साथ अपनी बुद्धि को जोड़ता हुआ लक्ष्य प्राप्ति की ओर तीव्रता से तत्पर होता है.

अनुभव में आया है कि कई साधक बिना किसी प्रत्यक्ष साधना के योग की उच्चतम स्थिति पर आरूढ़ दिखाई देते हैं, जो भगवान् के इसी कथन की पुष्टि करता है. इसलिए साधक को चाहिए कि वह अन्य साधक या सिद्ध पुरुष की नकल न करे, पूरी ईमानदारी से अपनी साधना को करता जाए बस.

द्वितीय सत्र में स्वामी राम के जीवन पर उठाए जाने वाले उस प्रश्न की चर्चा की गई, जिसके अनुसार कुछ लोगों के गले यह बात नहीं उतरती कि स्वामी जी को आत्मानुभव हो गया था. क्योंकि जब वह वेदान्त का विदेश में प्रचार करके आए तो काशी के विद्वानों ने यह कर उन्हें वेदांती होने से इनकार कर दिया क्योंकि उनका मानना था कि वह कैसे इस श्रेष्ठ विद्या का ज्ञाता हो सकता है, जिसे संस्कृत का ज्ञान न हो.

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मेरे विचार से ऐसा मानना संकेत है इस बात का कि जिसने यह प्रश्नचिह्न लगाया है उसने स्वामी जी के जीवन को गहराई से नहीं पढ़ा है.

विदित हो कि स्वामी जी ने बी. ए. की परीक्षा में संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त किया था. इस विषय में उन्होंने परीक्षा में विशेष अंक प्राप्त किए थे. फिर हृषीकेश स्थित कैलाश आश्रम में रह कर उन्होंने वेदान्त के मूल ग्रंथों का अध्ययन भी किया था. ब्रह्मलीन होने से पहले वह वेदों पर कुछ कार्य भी कर रहे थे. यह सब बिना संस्कृत के ज्ञान के भला कैसे संभव था.

जहां तक काशी के विद्वानों के कथन से निराश होने का सवाल है, तो वह कैसे इन बेकार की बातों से उद्विग्न हो सकता है, जो देहबुद्धि से ऊपर उठ चुका हो, जो स्वयं के लिए भी सदैव ‘राम’ शब्द का उद्बोधन करता हो-जैसे किसी अन्य की बात कर रहा हो.

मुझे ऐसा लगता है कि जब भी किसी विशेष व्यक्तित्व को सामान्य बुद्धि से आंकने की कोशिश की जाती है तो इस तरह की त्रुटियां होना स्वाभाविक है.

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लेकिन व्यापक और निष्पक्ष भाव से यदि विचार किया जाए तो सत्य उजागर हुए बिना नहीं रहता. और यही हमारा प्रयास होना चाहिए.

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