महाराज भगीरथ को ब्रह्माण्ड की सबसे पवित्र नदी गंगा को धरती पर लाने का श्रेय दिया जाता है। पुण्य सलिला, पापमोचिनी और सदियों से मोक्ष दिलाने वाली गंगा को भगीरथ अपने पूर्वजों के मोक्ष के लिए लाए थे। लेकिन उसके बाद मां गंगा ने मानव की कई पीढ़ियों का उद्धार कर दिया और यह सब संभव हुआ भगीरथ की कठोर तपस्या से। गंगोत्री में माँ गंगा का मंदिर है। मान्यता है कि गंगा नदी को राजा भगीरथ स्वर्ग से धरती पर लाए थे। इसलिए गंगोत्री धाम में माँ गंगा के साथ ही राजा भगीरथ की पूजा भी खासतौर पर की जाती है।
हिमशिखर धर्म डेस्क
प्राचीन काल में अयोध्या में सगर नामक राजा राज्य करते थे। उनके शैव्या और वैदर्भी नामक दो रानियां थीं। शैव्या के असमंजस नामक पुत्र हुआ और वैदर्भी के साठ हजार पुत्र हुए। कालचक्र बीतता गया और असमंजस का अंशुमान नामक पुत्र हुआ। एक बार राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ किया, यज्ञ की पूर्ति के लिए एक घोड़ा छोड़ा गया। सगर के इस अश्वमेघ यज्ञ से भयभीत होकर इन्द्र ने अवसर पाकर उस घोड़े को चुरा लिया और उसे ले जाकर कपिल मुनि के आश्र में बांध दिया।
उस समय कपिल मुनि ध्यान में लीन थे। इधर सगर के साठ हजार पुत्रों ने घोड़े को पृथ्वी के हरेक स्थान पर ढूंढा लेकिन उसका पता न लग सका। वे घोड़े को खोजते-खोजते कपिल मुनि के आश्रम जा पहुंचे। सगर के पुत्रों ने यह समझ कर कि घोड़े को कपिल मुनि ही चुरा लाये हैं, मुनि को कटुवचन सुनाना आरम्भ कर दिया। अपने निरादर से कुपित होकर कपिल मुनि ने राजा सगर के साठ हजार पुत्रों को अपनी क्रोधाग्नि से भस्म कर दिया।
जब सगर को अपने साठ हजार पुत्रों के भस्म होने का समाचार मिला तो उन्होंने अपने पौत्र अंशुमान को कपिल मुनि के आश्रम में जाकर उनसे क्षमा प्रार्थना कर उस घोड़े को लाने को कहा। अंशुमान अपने दादा की आज्ञा का पालन करते हुए कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने अपनी प्रार्थना एवं मृदु व्यवहार से कपिल मुनि को प्रसन्न कर लिया।
कपिल मुनि ने प्रसन्न होकर उन्हें वर मांगने को कहा। अंशुमान बोले कि मुने! कृपा करके हमारा अश्व लौटा दें और हमारे दादाओं के उद्धार का कोई उपाय बताएं। कपिल मुनि ने घोड़ा लौटाते हुए कहा कि वत्स! अब तुम्हारे दादाओं का उद्धार केवल गंगा के जल से हो सकता है।
अंशुमान ने यज्ञ का अश्व लाकर सगर का अश्वमेघ यज्ञ पूर्ण करा दिया। यज्ञ पूर्ण होने पर राजा सगर अंशुमान को राज्य सौंपकर मां गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिए हिमालय पर चल दिए। तपस्या करते-करते उनका स्वर्गवास हो गया।
अंशुमान ने अपने पूर्वजों को मोक्ष की जिम्मेदारी लेते हुए राज-पाट अपने पुत्र दिलीप को सौंप दिया। उन्होंने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए घोर तप शुरू किया और अपना शरीर त्याग दिया। इसके बाद उनके पुत्र दिलीप ने भी तपस्या शुरू की। लेकिन रूग्णावस्था में स्वर्ग सिधार गए।
अंत में दिलीप के पुत्र भगीरथ ने प्रण किया कि वह किसी भी हालत में गंगा को धरती पर लाएंगे और अपने पूर्वजों को मोक्ष दिलवाएंगे। तपस्या करते-करते कितने ही वर्ष बीत गए तब ब्रह्माजी ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर गंगाजी को पृथ्वी पर ले जाने का वरदान दिया।
अब समस्या यह थी कि ब्रह्माजी के कमण्डल से छूटने के बाद गंगाजी के वेग को पृथ्वी पर कौन संभालेगा। ब्रह्माजी ने भगीरथ को गंगा का वेग संभालने के लिए भगवान शंकर से सहायता मांगने की बात कही। जिस पर महादेव को प्रसन्न करने के लिए महाराज भगीरथ ने एक पैर के अंगूठे पर खड़े होकर कठोर तपस्या की। भोलेनाथ ने प्रसन्न होकर भगीरथ को वरदान दिया और गंगा को अपने मस्तक पर धारण कर लिया। लेकिन गंगा को अपने वेग पर बड़ा अभिमान था। शिव को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने गंगा को अपनी जटाओं में ऐसे समा लिया कि उन्हें कई वर्षों तक गंगाजी को जटाओं से निकलने का रास्ता नहीं मिल सका।
मां गंगा का धरती पर अवतरण
जब गंगा शिवजटाओं में समाकर रह गई तो भगीरथ ने फिर से तपस्या का मार्ग चुना। महाराज भगीरथ द्वारा भगवान शंकर से फिर से गंगाजी को छोड़ने का अनुग्रह किया गया। भोलेनाथ ने प्रसन्न होकर गंगाजी को अपनी जटाओं से छोड़ा। तो गंगाजी गंगोत्री हिमनद से कल-कल का विनोद स्वर करती हुई मैदान की तरफ बढ़ीं। आगे-आगे महाराज भागीरथ का रथ और पीछे-पीछे गंगाजी प्रबल वेग से आगे बढ़ रही थी। तो उसी पथ पर महामुनि जह्नु अपने आश्रम पर यज्ञ आयोजित कर रहे थे। भागीरथी गंगा के जल में यज्ञ स्थल डूब गया। यज्ञ में विघ्न होने पर महामुनि ने गंगा को योगबल से उसका पान कर लिया।
भगीरथ के द्वारा प्रार्थना करने पर मुनि ने लोकहित में अपने कानों के माध्यम से गगा को निकाल दिया। इससे गंगा जान्ह्वी कहलायीं। इस प्रकार हरिद्वार, प्रयाग, गया होते हुए गंगाजी कपिल मुनि का आश्रम जो आज गंगासागर के नाम मशहूर है, वहां पर राजा भगीरथ के पीछे-पीछे जाकर राजा सगर के साठ हजार पुत्रों की भस्म को अपने में समेट कर समुद्र में मिल गई।
राजा भगीरथ ने गंगोत्री में 5500 सालों तक तपस्या की थी। इसके बाद माँ गंगा का इस धरा पर अवतरण हुआ था।