गीता श्लोक एवं भावार्थ : गीता प्रथम अध्याय का बारहवां श्लोक

श्रीमद्भगवदगीता की महिमा अगाध और असीम है। इन श्लोकों में बहुत गहरा अर्थ भरा हुआ होने से इनको सूत्र भी कह सकते हैं। श्रीमद्भगवदगीता का उपदेश महान अलौकिक है। जब एक अच्छे विद्वान् पुरुष के भावों का भी जल्दी अन्त नहीं आता, फिर जिनका नाम, रूप आदि यावन्मात्र अनन्त है, ऐसे भगवान् के द्वारा कहे हुए वचनों में भरे हुए भावों का अन्त आ ही कैसे सकता है? अभी तक हमने गीता के अध्याय 1 के 11 वें श्लोक तक का पठन किया। आज हम बारहवें श्लोक का पठन करेंगे-

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तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्।।1.12।।

अनुवाद: फिर, कुरु वंश के भव्य बूढ़े व्यक्ति, प्रतापी राजपूत भीष्म ने शेर की तरह दहाड़ लगाई और दुर्योधन को खुशी देते हुए अपना शंख बहुत जोर से फूंका।

शब्द से शब्द का अर्थ:

तस्य – अपने
सञ्जनयं –  के कारण
हर्षं – खुशी
कुरु  – जो कुरु वंश (भीष्म) का महापुरुष था
पितामहः – परदादा
सिन्हा  नाम – शेर की दहाड़
विनद्यो – लगने
उच्चैः – बहुत जोर से
शंखं –  शंख
दध्मौ – विस्फोट से उड़ा दिया
प्रताप – वण – गौरवशाली

स्वामी रामसुख दास जी के अनुसार अनुवाद

दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए कुरुवृद्ध प्रभावशाली पितामह भीष्म ने सिंह के समान गरजकर जोर से शंख बजाया।

स्वामी तेजोमयानंद जी के अनुसार अनुवाद

उस समय कौरवों में वृद्ध प्रतापी पितामह भीष्म ने उस (दुर्योधन) के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुये उच्च स्वर में गरज कर शंखध्वनि की।

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