गीता का जितना स्वाध्याय किया जाय, उतने ही जीवन को महान बनाने के नए-नए सूत्र हाथ लगते हैं। मनुष्य को संपूर्ण बनाने के लिए जो भी तत्त्व आवश्यक है, वह सब गीता में है। भगवान् श्रीकृष्ण ने उस महान ज्ञान-तत्त्व रूपी दुग्ध को उपनिषद रूपी गायों से दोहन करके निकाला है, जिसे गीतामृत कहा गया है-
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्॥
यहाँ एक विशेष बात है-‘गोपालनन्दन’ जिसका अर्थ है गो अर्थात् ग्वालबालों को पालने के साथ-साथ आनन्द प्रदान करने वाले एवं गो अर्थात् गौओं को सस्नेह पालने वाले, यानी कि राजा नन्द का पुत्र। दूसरे अर्थ में राजा नन्द को सदा आनन्दित रखने वाले एवं समस्त ग्वालबालों का पालन-संरक्षण करने तथा उन्हें सदा आनन्दित रखने वाले हैं। इसके अतिरिक्त एक और अर्थ है, जो विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। वह यह कि पालन करने वाले तो संसार में बहुत हैं, पर पशुओं को भी यहाँ पशु से तात्पर्य सद्ज्ञान से रहित मनुष्यों को भी लिया जा सकता है, जो अज्ञानता के कारण पशु जैसे ही होते हैं और अधिकतर हानिकर कार्य ही करते रहते हैं, ऐसे अज्ञानी मनुष्यों को भी अपनी संतान के समान पालना विशेष महत्त्व रखता है, जो भगवान् श्रीकृष्ण में एक अनन्य विशेषता है। इसी से उनकी भगवत्ता झलकती है। ऐसे महापुरुष, सद्पुरुष, अवतारी सत्ता जब कुछ बोलते हैं, तो निश्चय ही वह गीता ही हो सकती है। यहाँ गीता और श्रीकृष्ण, ज्ञान और उसके प्रदाता भिन्न-भिन्न नहीं हैं, बल्कि एक हैं। अभी तक हमने गीता के अध्याय 1 के नौंंवे श्लोक तक का पठन किया। आज हम दसवें श्लोक का पठन करेंगे-
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥10॥
शत्रुम्-असीमित; तत्-वह; अस्माकमम्-हमारी; बलम्-शक्ति; भीष्म-भीष्म पितामह के नेतृत्व में अभिरक्षितम्-पूर्णतः सुरक्षित; सामर्थ्यम्-सीमित; तु-लेकिन, इदम-यह; एतेषाम्-उनकी; बलम्-शक्ति; भीम-भीम की देखो लाइन में; अभिरक्षितम् पूर्णतया सुरक्षित।
अनुवाद
हमारी शक्ति असीमित है और हम सभी महान सेना नायक भीष्म पितामह के नेतृत्व में पूरी तरह से संरक्षित हैं, जबकि पांडवों की सेना की शक्ति भीम द्वारा भलीभांति संरक्षित होने के कारण भी सीमित है।
टीका
धृतराष्ट्र इस बात की पुष्टि करना चाहता था कि क्या उसके पुत्र अब भी युद्ध करने के उत्तरदायित्व का निर्वहन करेंगे? संजय धृतराष्ट्र के इस प्रश्न के तात्पर्य को समझ गया और उसने ऐसा कहकर कि पाण्डवों की सेना व्यूह रचना कर युद्ध करने को तैयार है, यह पुष्टि की कि युद्ध अवश्य होगा। फिर उसके पश्चात उसने वार्ता का विषय बदलते हुए यह बताया कि दुर्योधन क्या कर रहा था।
धृतराष्ट्र का ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन निर्दयी और दुष्ट प्रवृत्ति का था। धृतराष्ट्र के जन्म से अंधा होने के कारण व्यावहारिक रूप से हस्तिनापुर के शासन की बागडोर दुर्योधन के हाथों में थी। वह पाण्डवों के साथ अत्यधिक ईर्ष्या करता था और कठोरता से उनका दमन करना चाहता था ताकि वह हस्तिनापुर पर निर्विरोध शासन कर सके। उसने यह कल्पना की थी कि पाण्डव कभी भी इतनी विशाल सेना एकत्रित नही कर सकते जो उसकी सेना का सामना कर सके। किन्तु अपने आंकलन के विपरीत पाण्डवों की विशाल सेना को देखकर दुर्योधन व्याकुल और हतोत्साहित हो गया।
ऐसे में दुर्योधन का अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास जाना यह दर्शाता है कि वह युद्ध के परिणाम के संबंध में भयभीत था। वह द्रोणाचार्य के प्रति अपना आदर प्रकट करने का ढोंग करते हुए, उनके पास गया किन्तु वास्तव में वह अपनी चिन्ता को कम करना चाहता था। इसलिए उसने अगले श्लोक से आरंभ होने वाले नौ श्लोकों में इस प्रकार से कहा।
पढ़ते रहिए हिमशिखर खबर, आपका दिन शुभ हो…