गीता श्लोक एवं भावार्थ : गीता प्रथम अध्याय का सातवां और आठवां श्लोक

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गीता को, धर्म-अध्यात्म समझाने वाला अनमोल काव्य कहा जा सकता है। सभी शास्त्रों का सार एक जगह कहीं यदि इकट्ठा मिलता हो, तो वह जगह है-गीता। गीता रूपी ज्ञान-गंगोत्री में स्नान कर अज्ञानी सद्ज्ञान को प्राप्त करता है। पापी पाप-ताप से मुक्त होकर संसार सागर को पार कर जाता है। गीता को माँ भी कहा गया है। यह इसलिए कि जिस प्रकार माँ अपने बच्चों को प्यार-दुलार देती और सुधार करते हुए महानता के शिखर पर आरूढ़ होने का रास्ता दिखाती है, उसी तरह गीता भी अपना गान करने वाले भक्तों को सुशीतल शांति प्रदान करती है। यह मनुष्यों को सद्शिक्षा देती और नर से नारायण बनने के राह पर अग्रसर होने की प्रेरणा प्रदान करती है। एक गीता का गान ही अपने आप में इतना सक्षम है कि इसे पाने के बाद और कुछ पाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। क्योंकि यह स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के मुख-कमल से ही निःसृत हुई है। अभी तक हमने गीता के अध्याय 1 के छठवें शलोक तक का पठन किया। आज हम सातवें और आठवें का पठन करेंगे-


अध्याय 1 श्लोक 7

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।

नायका मम सैन्यस्य सज्ज्ञार्थं तानब्रवीमि ते ॥7॥

अस्माकम् : हमारे पक्ष में; तु-भी; विशिष्टा–विशेष रूप से; ये-जो; तान्–उनको; निबोध जानकारी देना, द्विजउत्तम-ब्राह्मण श्रेष्ठ, नायका:-महासेना नायक, मम : हमारी; सैन्यस्थ : सेना के; संज्ञाअर्थम्-सूचना के लिए; तान्–उन्हें; ब्रवीमि वर्णन कर रहा हूँ; ते-आपको।

स्वामी रामसुखदास जी के अनुसार व्याख्या-‘अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम’– दुर्योधन द्रोणाचार्य से कहता है कि हे द्विजश्रेष्ठ! जैसे पाण्डवों की सेना में श्रेष्ठ महारथी है, ऐसे ही हमारी सेना में भी उनसे कम विशेषता वाले महारथी नहीं हैं, प्रत्युत उनकी सेना के महारथियों की अपेक्षा ज्यादा ही विशेषता रखने वाले हैं। उनको भी आप समझ लीजिये। तीसरे श्लोकमें ‘पश्य’ और यहाँ ‘निबोध’ क्रिया देने का तात्पर्य है कि पाण्डवों की सेना तो सामने खड़ी है, इसलिये उसको देखने के लिये दुर्योधन ‘पश्य’ (देखिये) क्रिया का प्रयोग करता है। परन्तु अपनी सेना सामने नहीं है अर्थात् अपनी सेना की तरफ द्रोणाचार्य की पीठ है, इसलिये उसको देखने की बात न कहकर उस पर ध्यान देने के लिये दुर्योधन ‘निबोध’ (ध्यान दीजिये) क्रिया का प्रयोग करता है।

‘नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थ तान्ब्रवीमि ते’– मेरी सेना में भी जो विशिष्ट-विशिष्ट सेनापति हैं, सेनानायक है, महारथी हैं, मैं उनके नाम केवल आपको याद दिलाने के लिये, आपकी दृष्टि उधर खींचने के लिये ही कह रहा हूँ।

‘सञ्ज्ञार्थम्’ पद का तात्पर्य है कि हमारे बहुत-से सेनानायक हैं, उनके नाम मैं कहाँ तक कहूँ, इसलिये मैं उनका केवल संकेतमात्र करता हूँ; क्योंकि आप तो सबको जानते ही हैं।

इस श्लोक में दुर्योधन का ऐसा भाव प्रतीत होता है कि हमारा पक्ष किसी भी तरह कमजोर नहीं है। परन्तु राजनीति के अनुसार शत्रुपक्ष चाहे कितना ही कमजोर हो और अपना पक्ष चाहे कितना ही सबल हो, ऐसी अवस्था में भी शत्रुपक्ष को कमजोर नहीं समझना चाहिये और अपने में उपेक्षा, उदासीनता आदि की भावना किञ्चिन्मात्र भी नहीं आने देनी चाहिए। इसलिए सावधानी के लिए मैंने उनकी सेना की बात कही और अब अपनी सेना की बात कहता हूं।

दूसरा भाव यह है कि पांडवों की सेना को देखकर दुर्योधन पर बड़ा प्रभाव पड़ा और उसके मन में कुछ भय भी हुआ। कारण कि संख्या में कम होते हुए भी पाण्डव-सेना के पक्ष में बहुत-से धर्मात्मा पुरुष थे और स्वयं भगवान् थे। जिस पक्ष में धर्म और भगवान् रहते हैं, उसका सब पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। पापी-से-पापी, दुष्ट-से-दुष्ट व्यक्ति पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। इतना ही नहीं, पशु-पक्षी, वृक्ष-लता आदि पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। कारण कि धर्म और भगवान् नित्य हैं। कितनी ही ऊँची-से-ऊँची भौतिक शक्तियाँ क्यों न हों, हैं वे सभी अनित्य ही। इसलिये दुर्योधन पर पाण्डव-सेना का बड़ा असर पड़ा। परन्तु उसके भीतर भौतिक बल का विश्वास मुख्य होने से वह द्रोणाचार्य को विश्वास दिलाने के लिये कहता है कि हमारे पक्षमें जितनी विशेषता है, उतनी पाण्डवों की सेना में नहीं है। अतः हम उन पर सहज ही विजय कर सकते हैं।

अध्याय 1 श्लोक 8

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥8॥

भवान्-आप: भीष्मः-भीष्म पितामहः च और; कर्ण:-कर्णः च और; कपः-कृपाचार्य च-और; समितिन्जयः-युद्ध में सदा विजयी; अश्वत्थामा अश्वत्थामा, विकर्ण:-विकर्ण; च-और; सौमदत्ति:- सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा; तथा-और; एक-समान रूप से; च-भी।।

आपके, भीष्म, कर्ण, कृपा, अश्वत्थामा, विकर्ण और भूरिश्रवा जैसे व्यक्तित्व हैं, जो युद्ध में हमेशा विजयी होते हैं।

स्वामी रामसुखदास जी के अनुसार व्याख्या- ‘भवान् भीष्मश्च’ – आप और पितामह भीष्म-दोनों ही बहुत विशेष पुरुष हैं। आप दोनों के समकक्ष संसार में तीसरा कोई भी नहीं है। अगर आप दोनों में से कोई एक भी अपनी पूरी शक्ति लगाकर युद्ध करे, तो देवता, यक्ष, राक्षस, मनुष्य आदि में ऐसा कोई भी नहीं है, जो कि आपके सामने टिक सके। आप दोनों के पराक्रम की बात जगत् में प्रसिद्ध ही है। पितामह भीष्म तो आबाल ब्रह्मचारी हैं, और इच्छा मृत्यु हैं अर्थात् उनकी इच्छा के बिना उन्हें कोई मार ही नहीं सकता।
[महाभारत-युद्ध में द्रोणाचार्य धृष्टद्युम्न के द्वारा मारे गये भीष्म ने अपनी इच्छा से ही सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने प्राणों का त्याग कर दिया।]

‘कर्णश्च’ -कर्ण तो बहुत ही शूरवीर है। मुझे तो ऐसा विश्वास है कि वह अकेला ही पाण्डव-सेना पर विजय प्राप्त कर सकता है। उसके सामने अर्जुन भी कुछ नहीं कर सकता। ऐसा वह कर्ण भी हमारे पक्ष में है।
[कर्ण महाभारत-युद्ध में अर्जुन के द्वारा मारे गये ।]

‘कृपश्च समितिञ्जयः’ – कृपाचार्य की तो बात ही क्या ! वे तो चिरंजीवी हैं, हमारे परम हितैषी हैं और सम्पूर्ण पांडव सेना पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। यद्यपि यहाँ द्रोणाचार्य और भीष्म के बाद ही दुर्योधन को कृपाचार्य का नाम लेना चाहिये था; परन्तु दुर्योधन को कर्ण पर जितना विश्वास था, उतना कृपाचार्य पर नहीं था। इसलिये कर्ण का नाम तो भीतर से बीच में ही निकल पड़ा। द्रोणाचार्य और भीष्म कहीं कृपाचार्य का अपमान न समझ लें, इसलिये दुर्योधन कृपाचार्य को ‘संग्रामविजयी’ विशेषण देकर उनको प्रसन्न करना चाहता है।

‘अश्वत्थामा’ – ये भी चिरंजीवी हैं और आपके ही पुत्र हैं। ये बड़े ही शूरवीर हैं। इन्होंने आप से ही अस्त्र-शस्त्र की विद्या सीखी है। अस्त्र-शस्त्र की कला में ये बड़े चतुर हैं।

‘विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च’ – आप यह न समझें कि केवल पाण्डव ही धर्मात्मा हैं, हमारे पक्ष में भी मेरा भाई विकर्ण बड़ा धर्मात्मा और शूरवीर है। ऐसे ही हमारे प्रपितामह शान्तनु के भाई बाह्लीक के पौत्र तथा सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा भी बड़े धर्मात्मा हैं। इन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले अनेक यज्ञ किये हैं। ये बड़े शूरवीर और महारथी हैं।

[युद्ध में विकर्ण भीम के द्वारा और भूरिश्रवा सात्यकि के द्वारा मारे गये ।]

यहाँ इन शूरवीरों के नाम लेने में दुर्योधन का यह भाव मालूम देता है कि हे आचार्य! हमारी सेना में आप, भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य आदि जैसे महान् पराक्रमी शूरवीर है, ऐसे पाण्डवों की सेना में देखने में नहीं आते। हमारी सेना में कृपाचार्य और अश्वत्थामा-ये दो चिरंजीवी हैं, जबकि पाण्डवों की सेना में ऐसा एक भी नहीं है। हमारी सेना में धर्मात्माओं की भी कमी नहीं है। इसलिये हमारे लिये डरने की कोई बात नहीं है।

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