- मुखौटे के भीतर होता है असल
- मुखौटे तो अभिनय का प्रतीक होता है
- मुखौटे को असल समझना सबसे बड़ी नादानी
काका हरिओम्
‘‘मैं शरीर नहीं हूं।’’ ‘‘मैं शरीर नहीं…तो?’’ यह महत्वपूर्ण प्रश्न है। अत्यंत महत्वपूर्ण है यह प्रश्न, क्योंकि यह अस्तित्व पर लगा प्रश्न है। अभी तक तो शरीर माना था खुद को, शरीर नहीं, तो फिर क्या…?
आद्य शंकराचार्य ने अपनी काव्यमयी रचना ‘चर्पट पंजरी’ में जिन प्रश्नों की चर्चा की है, वे इसी एक प्रश्न के इर्द-गिर्द घूमते हैं-
‘‘तुम कौन हो? मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? कौन मेरी माता है? और कौन है मेरा पिता? इन प्रश्नों पर विचार करके, इस विश्व को स्वप्नवत् विचारते हुए, गोविंद भज! गोविन्द का नाम ले। गोविन्द का स्मरण कर!’’
सुना है कोई राजकुमार परमहंस स्वामी रामतीर्थ के पास गया। उसने उन्हें ईश्वर का साक्षात्कार कराने को कहा। स्वामी जी और उसमें जो वार्ता हुई, उसकी एक झलक देखिए-
‘‘किसी से मिलने से पहले जरूरी है कि आप उसे पहले अपना परिचय दें? आप कौन हैं?’’
‘‘मेरा नाम श्याम सिंह है।’’
‘‘जब आपका जन्म हुआ, तब आपका नाम क्या था?…श्याम सिंह?’’
‘‘नहीं! तब मेरा नाम कुछ भी नहीं था। यह नाम तो नामकरण संस्कार पर रखा गया।’’
‘‘मैं महाराज दिलीप सिंह का बेटा हूं।’’
‘‘उनके पुत्र के रूप में जन्मने से पहले आप थे या नहीं?’’
‘‘था!’’
‘‘कहां थे?’’
‘‘पता नहीं।’’
‘‘तब भी क्या महाराज दिलीप सिंह के बेटे थे।’’
‘‘नहीं! तब ऐसा नहीं था।’’
‘‘तो फिर?’’
‘‘यह तो पीछे की प्रकिया हुई। अब इसी तरह से आगे के जीवन के बारे में सोच-विचार कर देखो।’’
राजकुमार चुप था। कुछ कहने को नहीं बचा था राजकुमार के पास। हम सभी की स्थिति ऐसी है। हम स्वयं से ही परिचित नहीं हैं। समस्याओं की जड़ तो यही है। कार्य-कारण के सिद्धांत पर बहस करना शुरू करते हैं, लेकिन फिर एक जगह चुप होना पड़ता है।
वैसे हमने ‘‘मैं क्या हूं?’’ इस प्रश्न की अहमियत को महसूस ही नहीं किया। आदत पड़ गई है हमें अलग-अलग मुखौटे पहनने की। जिसे आप पर्सनेलिटी कहते हैं, इसका अर्थ ही ‘मुखौटा’ होता है। हमारे व्यक्तित्व के इतने आयाम हैं कि अपना असली व्यक्तित्व, अस्तित्व ही हम भूल गए हैं।
यह पर्सनेलिटी डिस्आर्डर का मामला है। नया मुखौटा पहनते ही पुराने मुखौटै को भूल जाते हैं। और पुराने को ओढ़ने के बाद नए को। जो सपने में चलते हैं। कभी उन्हें आब्जर्व करिएगा। उन्हें सुबह उठने पर कुछ भी याद नहीं रहता। ऐसे लोगों द्वारा सपने में कत्ल करने के मामले भी पढ़ने-सुनने को मिल जाते हैं। हम सब भी इस मायने में ‘मेन्टल’ ही हैं।
हमारा बोलना, विचारना, सोचना-समझना तर्कसंगत और सुव्यवस्थित नहीं है। क्या ऐसा नहीं है कि हम सोचते कुछ हैं, कहते कुछ हैं और करते कुछ और ही हैं। ऐसा असामंजस्य ही तो उसके व्यवहार में भी होता है, जिसे आपकी भाषा में ‘पागल’ और आज की, ‘आधुनिक मनोविज्ञान’ की भाषा में ‘एब्नाॅर्मल’ कहते हैं।
पढ़ते रहिए हिमशिखर खबर, आपका दिन शुभ हो…