जीवन में कर्म की महत्ता इतनी अधिक है कि उससे आपके जीवन और भाग्य के बड़े-बड़े फैसले होते हैं। ऐसे में यह जानना आवश्यक है कि आप किस प्रकार के कर्म कर रहे हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म करने के तीन माध्यम कर्म के तीन प्रकार बताए हैं। क्या हैं ये और किस प्रकार आपके जीवन को प्रभावित करते हैं, चलिए जानते हैं
जैसे शरीर का मैल स्नान करने से दूर हो जाता है ऐसे ही संसार का मैल गीताजी के अध्ययन से नष्ट हो जाता है। संसार का मैल क्या होता है?
जो कर्म हम करते हैं उसको करते हुए हमारा मन कई तरह की भ्रान्तियों में घिर जाता है, जिससे हमारे अन्तरङ्ग मन पर उसका प्रभाव रहता है। उससे हमारा चित्त अशुद्ध हो जाता है। यह मन सङ्कल्प विकल्प करता है, जिससे कि हमारे चरित्र पर उसके परिणाम बैठ जाते हैं। बुद्धि निर्णय लेती है और चित्त अशुद्ध हो जाता है। इन अशुद्धियों के कारण हम जीवन का आनन्द नहीं ले पाते। चित्त की इन अशुद्धियों से हम अपने मार्ग से भटक जाते हैं। सन्तों के जीवन से हमें जो प्रेरणा मिलती है, वह चित्त की शुद्धियाँ प्रदान करती हैं।
ज्ञानेश्वर महाराज ने कहा है :-
भगवान आप ही करवाने वाले हो और मैं करने वाला हूँ। आप कारण हैं मैं कार्य हूँ। आप ही आप करवा रहे हो और मैं कर रहा हूँ।
इसलिए ईश्वर को समर्पित करने के लिए जो कार्य किया जाता है, कर्मयोग बन जाता है। कार्य कितना भी छोटा क्यों न हो बहुत दिव्य हो जाता है।
इसका कारण भी हमने देखा कि नो वेकेशन नो डिस्क्रिमिनेशन नो एक्सपेक्टेशंस
भगवान अपने पधारने के लिए दुनिया में व्यवस्था करते हैं जब भी दुनिया की व्यवस्था खराब हो जाती है तो वह इस पूरी व्यवस्था को सही करने के लिए दुनिया में आते हैं।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥4-7॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥4-8॥
दुनिया की व्यवस्था के खराब होने पर उसको पुनर्व्यवस्थित करने के लिए परमात्मा को वापस धरती पर आना पड़ता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है –
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥ ४/१४
‘‘न मुझे कर्म लिप्त करते हैं, न ही मुझे कर्मफल की लालसा है। जो मुझे इस प्रकार तत्त्व से जान लेता है, वह कर्मों के बंधन को प्राप्त नहीं होता।’’ भगवान् यहाँ कह रहे हैं, कर्म तभी उचित सिद्ध हो पाते हैं जब भावना शुद्ध होती है। यदि अंदर की भावना इंद्रिय तुष्टि की है, तो उससे अधिकाधिक मानसिक बंधन ही उत्पन्न होंगे। निस्वार्थ समर्पित कर्म वासनाओं के क्षय का कारण होते हैं। ऐसे कर्म करने वाले व्यक्तित्व मुक्त होकर अनंत आत्मा की स्वतंत्रता और विस्तार को प्राप्त होते हैं। कर्मों में यज्ञीय भाव कैसे बनाया जाए, इस पर भगवान् समझाते हुए कहते हैं, ‘‘कर्मफल की लालसा मत रखो एवं उनमें लिप्त मत होओ।’’ भगवान् स्वयं अपने बारे में कहते हैं कि मुझे कभी भी किसी भी प्रकार की कर्मफल की लालसा नहीं है। (न मे कर्मफले स्पृहा )|
कोई भी इंसान किसी भी अवस्था में क्षण भर के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रहता। यानि कोई ऐसा पल नहीं बीतता जिसमें कोई व्यक्ति कोई कर्म न कर रहा हो। अब आप सोच रहे होंगे कि कई बार लोग खाली बैठे रहते हैं, तो वह तो कर्म नहीं कर रहे होते। लेकिन ऐसा नहीं है। वो उस वक्त भी कर्म कर रहे होते हैं क्योंकि कोई भी मनुष्य कर्म चार तरीके से कर रहा होता है।
1. विचारों के माध्यम से यानि जब आप कुछ सोच रहे होते हैं
2. दूसरा शब्दों के माध्यम से यानि जब आप किसी से कुछ कह रहे होते हैं
3. क्रियाओं के माध्यम से यानि जब आप कुछ कर रहे होते हैं
4. वो कर्म जो आप किसी दूसरे के निर्देश पर कर रहे होते हैं इसका अर्थ है कि जब आप चल रहे, उठ रहे, बैठ रहे, खा रहे, सोच रहे अर्थात् कुछ भी कर रहे, तो आप कर्म कर रहे होते हैं।
कर्म करने के माध्यम के साथ-साथ भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में तीन प्रकार के कर्म बताये हैं। उनके अनुसार, प्रत्येक मनुष्य को ये तीन प्रकार के कर्म जानना चाहिए क्योंकि कर्म से मनुष्य का जीवन, मोक्ष और बंधन सबकुछ का निर्धारण होता है। इन तीन प्रकार के कर्मों को जानकर ही वह शुभ- अशुभ, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म तय कर पायेगा। उन्होंने जो तीन प्रकार के कर्म बताये हैं, वो हैं कर्म, अकर्म और विकर्म।
1. कर्म – जब आप कोई कार्य अथवा गति सकाम भाव से यानि कर्म फल की इच्छा, से करते हैं, तो उसे कर्म कहते हैं। कर्म का फल हर मनुष्य को अवश्य मिलता है चाहे वो अच्छा किया गया हो या बुरा। आपको फल भी उसी अनुसार मिलेगा।
2. अकर्म – अकर्म वो कर्म हैं जिसके पीछे कोई कर्ता नहीं होता और न ही किसी प्रकार की फल की इच्छा यानि आसक्ति रहित भाव से कर्म करना। इसे दो तरह से समझा जा सकता है। पहला, जिसके पीछे कोई कर्ता ना हो और वह पूर्णरूपेण प्राकृतिक हो, जिसका अर्थ यह है कि इस संसार में कई ऐसे कर्म हैं जो प्राकृतिक रूप से होते हैं और जिसके लिए कोई जिम्मेदार नहीं होता, जैसे कि हवा का बहना, आपकी पलकों का झपकना इत्यादि। दूसरा, निष्काम कर्म अर्थात् आप कई ऐसे कर्म करते हैं जिसमें आप फल की इच्छा नहीं करते बल्कि बस उसे कर देते हैं।
3. विकर्म – विकर्म ऐसे कर्म होते हैं जो लालसावश किए जाते हैं और जिसमें आपका कोई प्रयोजन छुपा होता है। ऐसे कर्म असत्य, कपट, हिंसा इत्यादि पर आधारित होते हैं। इसलिए, श्रीकृष्ण ने कहा कि मनुष्य को कर्म के प्रकार पता होना चाहिए, तभी तो वह कर्म और विकर्म में भेद कर पायेगा और तय कर पायेगा कि विकर्म उसे क्यों नहीं करना चाहिए।
सूर्य प्रकाशित होता है तो दोनों को ही प्रकाश देता है, गंदे जल वाले तालाब को और निर्मल पावन गंगा के शुद्ध जल को। प्रकाशक सूर्य न तो तालाब की गंदगी से और न ही नदी की दैदीप्यमान पवित्रता से ही प्रभावित होता है। प्रकाशक सूर्य प्रकाशित से हमेशा पृथक और अलिप्त बना रहता है। इसी प्रकार शुद्ध- अनंत भौतिक उपाधियों के कर्मों से लिप्त नहीं होता। सड़क पर दौड़ रही गाड़ियाँ लैंप पोस्ट से प्रकाशित प्रकाश से मार्गदर्शन पा दौड़ती रहती हैं, गंतव्य तक पहुँचती हैं। वाहनों में बैठे हम ही हैं, जो गंतव्य स्थानों तक पहुँचते हैं, बिना किसी उत्सुकता के लैंप पोस्ट हमारी भागदौड़ को प्रकाशित करते रहते हैं।
यदि यह ज्ञान हमें हो सके कि हमारी आत्मसत्ता सभी क्रियाओं का केंद्र अवश्य है, पर उसके परिणामों से अलिप्त है, तो संसार की सभी गतिविधियों का संचालन करते हुए भी हम आत्मा में ही स्थित रहते हैं एवं भगवत् कार्य करते हुए जीवन को सार्थक ढंग से जीते हैं। भगवान् कहते हैँ ‘‘जो मुझे इस तरह से जानता है (इति मां योऽभिजानाति) वह कभी कर्मों के बंधनों में नहीं फँसता (कर्मभिः न स बध्यते)।’’ कितना सुंदर स्पष्टीकरण है। जीवन जीने की कला का अनुपम शिक्षण है। भगवान् को जानना है, तो हमें इस तरह तत्त्व रूप में जानना चाहिए। फिर हमारे सभी कर्म यज्ञीय भाव से होते रहेंगे।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘गहना कर्मणो गतिः’, अर्थात् कौन-सा कर्म मुक्त करनेवाला और कौन-सा कर्म बाँधनेवाला है, इसका निर्णय करना बड़ा कठिन है क्योंकि कर्म की गति बहुत गहन है। कामना से कर्म होते हैं लेकिन जब वही कामना बढ़ जाती है, तो मनुष्य पाप करने लगता है और उसके कर्म विकर्म हो जाते हैं। कहने का अर्थ है कि निषिद्ध कर्म करना ही विकर्म है।
गीता के अनुसार, “न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा। इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते”।॥ अर्थात् न मुझे कर्म लिप्त करते हैं, न ही मुझे कर्मफल की लालसा है। जो मुझे इस प्रकार तत्त्व से जान लेता है, वह कर्मों के बंधन को प्राप्त नहीं होता। जैसे ही फल की इच्छा जन्म लेती है, कर्म को परिवर्तित होते समय नहीं लगता और मनुष्य विकर्म करने लगता है।