आधुनिक भारत के महान संतों मनीषियों में रमण महर्षि का नाम अग्रगण्य है। आज से 142 साल पहले वे दिसम्बर के ही महीने में तमिलनाडु के तिरुचली गांव में जन्मे थे। अरुणाचल की पहाड़ी पर गहन साधना करके उन्होंने आत्मचेतना पाई। उनके व्यक्तित्व में निहित शांति और विचारों में निहित गम्भीरता ने देश-विदेश के अनेक साधकों को उनकी ओर आकृष्ट किया। उनके जन्मोत्सव के अवसर पर पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनके कुछ चयनित सुभाषित और खास बातें-
हिमशिखर धर्म डेस्क
- जप का अर्थ है अन्य सभी विचारों को बहिष्कृत कर केवल एक विचार पर आरूढ़ रहना। यह ध्यान की ओर अग्रसर करता है।
- क्या संसार स्वयं के द्वारा अस्तित्व में है? क्या इसे कभी भी बिना मन के देखा गया? निद्रा में न तो मन होता है और न ही संसार। जब जगते हैं तभी मन होता है और संसार होता है।
- एक निश्चित समय पर जो सही है उसे करें और बाक़ी पीछे छोड़ दें।
- आत्मा में स्थापित रहने की शाश्वत, निरंतर और सहज अवस्था ज्ञान है। इसके लिए प्रेम आवश्यक है, क्योंकि आत्मा से प्रेम ईश्वर से प्रेम है और यह भक्ति भी है। इस प्रकार से ज्ञान और भक्ति एक ही हैं।
- आप विचारों के प्रवाह को केवल उसमें रुचि लेने से इंकार करके ही रोक सकते हैं।
- अपने मन में ईश्वर को रखना ध्यान बन जाता है। ध्यान बोध से पूर्व की अवस्था है, बोध केवल आत्मा में आत्मा का हो सकता है।
- आप पहले से ही वही हैं जो आप चाहते हैं। अंत में सबकुछ ठीक हो जाएगा।
- आत्म-साक्षात्कार ही वह सबसे बड़ी सेवा है, जो आप दुनिया को प्रदान कर सकते हैं।
- वर्तमान जन्म का एकमात्र उपयोगी उद्देश्य अपने भीतर मुड़ना और स्वयं को अनुभूत करना है।
- ईश्वर देखने का अर्थ ईश्वर हो जाना है। व्याप्त होने के लिए ईश्वर के अतिरिक्त और कोई सर्वत्र नहीं है।
- स्वयं को समझे बिना दुनिया को समझने की कोशिश करने से भला क्या लाभ?
- चेतना सदैव आत्म-चैतन्य है। यदि आप किसी चीज़ के बारे में सचेत हैं तो निश्चित रूप से अपने स्वयं के भी बारे में सचेत हैं।
- मन वह चेतना है जिसने मर्यादाएं निर्धारित की हैं। आप मूल रूप से असीमित और परिपूर्ण हैं। बाद में आप सीमाएं निर्धारित करते हैं और मन बन जाते हैं।
- शांति प्राकृतिक अवस्था है। यह तो मन है जो इसे नष्ट कर देता है।
- अपने कार्य में व्यस्त रहना सही नमस्कार है और ईश्वर में स्थिर रहना ही सही आसन है। अनासक्त रूप से किए कार्य कर्ता को प्रभावित नहीं करते, वह कार्य करते समय भी एकांत में रहता है।
- सुख तुम्हारा स्वभाव है। इसकी इच्छा करना ग़लत नहीं है। ग़लत है, जब वह अंदर है तो बाहर ढूंढना।
- वेदों का प्रमुख प्रयोजन अविनाशी आत्मा के स्वरूप का उपदेश देना है और उद्घोष करना है कि आप वह हैं।
महर्षि रमन मनुष्य मात्र के ही नहीं अपितु पशु पक्षियों के भी हितैषी थे, गाय, चिड़िया, बंदर तथा गिलहरी उनके आश्रमवासी थे, उनके संगी साथी थे। उनका आश्रम प्राचीन मुनियों के आश्रम की याद दिलाता था। वे सदैव उन्हें सम्मानित ढ़ंग से आप कहकर संबोधित करते थे। जब उनकी लक्ष्मी नामक गाय मर गई तब वे फूट-फूट कर रोए थे।
यूरोप के एक लेखक पॉल ब्रंटन ने महर्षि रमन की ख्याति के बारे में सुना तो वे उत्सुकतावश महर्षि से मिलने के लिए आश्रम पहुँचे। वहाँ उनके साथ जो घटना घटी, उसने उनकी आंखें खोल दी। वे रात को एक मचान पर सोने की तैयारी कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि मचान पर एक जहरीला साँप चढ़ रहा है। उन्हें लगा कि आज उनकी मृत्यु निश्चित है। तभी महर्षि रमन का एक सेवक वहाँ आया औऱ साँप को मनुष्य की तरह संबोधित करते हुए कहा- “ठहरो बेटा”। साँप एक आज्ञाकारी बालक की तरह जहाँ का तहाँ रुक गया और फिर पहाड़ों की तरफ़ गया और गायब हो गया। यह अद्भुत घटना थी। पाल ब्रंटन के लिए यह चकित करने वाली घटना थी। उन्होंने आश्रम के सेवक से पूछा- “आखिर तुमने यह चमत्कार कैसे किया?” सेवक ने कहा- “यह मैंने नहीं, महर्षि रमन ने चमत्कार किया। उनका कहना है कि जीव- जंतु किसी से भी अगर हम गहरे प्यार से बोलेंगे तो वह जरूर सुनेगा।”
पॉल ब्रंटन (Paul Brunton) एक ब्रिटिश दार्शनिक, रहस्यवादी और यात्री थे। उन्होंने योगियों, मनीषियों, और पवित्र लोगों के बीच रह कर, प्राच्य तथा पाश्चात्य की गूढ़ शिक्षाओं का अध्यन करने के उद्देश्य से अपने पत्रकारिता के कैरियर का त्याग कर दिया था।
१९३० के दशक में, ब्रंटन भारत की यात्रा पर निकले, और इस यात्रा के क्रम में वे मेहर बाबा, कांचीपुरम के श्री शंकराचार्य और श्री महर्षि रमन जैसे अध्यात्मिक दिग्गजों के संपर्क में आये। १९३१ में ब्रंटन ने श्री महर्षि रमन के आश्रम में की पहली यात्रा की। ब्रंटन ने उनसे “ईश्वर प्राप्ति के लिए रास्ता क्या है?”… आदि आदि कई सवाल पूछे। और महर्षि ने कहा: ” विचार कर के देखो, अपने आप पूछो- ‘मैं कौन हूं?’ अपने स्वयं के प्रकृति की जांच कर देखो।”
अपनी ‘A Search in Secret India’ या ‘अ सर्च इन सीक्रेट इण्डिया’ तथा ‘The Secret Path’ ‘द सीक्रेट पाथ’ नामक दो पुस्तकों के माध्यम से, पाश्चात्य जगत् को श्रीमहर्षि रमन से परिचित कराने का श्रेय पॉल ब्रंटन को ही दिया जाता है। और एक दिन जब ब्रंटन, महर्षि रमन के सानिध्य में बैठे हुए थे, उन्हें एक ऐसी ‘अनुभूति’ हुई, जिस अनुभूति का वर्णन करते हुए, स्टीव टेलर (Steve Taylor) कहते हैं, ” परम सत्य के ज्ञान की वह एक ऐसी अनुभूति थी, जिसने पॉल ब्रंटन को हमेशा के लिये एक अन्य प्रकार के मनुष्य में परिणत कर दिया था।”
इधर जुंग भी यह मानते थे कि जीवन के अचेतन की चेतना के पार भी कुछ आध्यात्मिक आयाम होते हैं। कार्ल गुस्ताफ जुंग ने पॉल ब्रान्टन की पुस्तक ‘अ सर्च इन सीक्रेट इंडिया’ पढ़ी। इसमें इन्हें भारतीय संत महर्षि रमन व उनकी आध्यात्म विद्या की अनुसंधान विधि का पता चला। जिज्ञासु जुंग की इनसे मिलने की इच्छा हुई। संयोगवश 1938 में भारत आ गए। दिल्ली पहुंचकर उन्होंने सरकारी काम निपटाया, फिर निकल पड़े तिरुवन्नमलाई के अरूणाचलम पर्वत की तरफ। महर्षि रमन का यहीं निवास था। शाम को अरूणाचलम की तलहटी में खुले स्थान पर महर्षि से मुलाकात हुई। महर्षि उस समय शरीर पर केवल कौपीन धारण किए हुए थे। उनके चेहरे पर हल्की दाढ़ी, होठों पर बालसुलभ निर्दोष हँसी, आँखों में आध्यात्मिक प्रकाश के साथ प्रगाढ़ अपनापन था। प्रख्यात् मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग को महर्षि अपने से लगे। एक दिन जुंग, महर्षि रमन के साथ वार्तालाप करते हुए धीमे कदमों से टहल रहे थे। उनके मन में शंका भी उठी कि ग्रामीण जनों की तरह दिखने वाले ये महर्षि क्या उनके वैज्ञानिक मन की जिज्ञासाओं का समाधान कर पाएँगे?
उनके मन में आए इस प्रश्र के उत्तर में महर्षि ने हल्की सी मीठी हंसी के साथ कहा- भारत के प्राचीन ऋषियों की अध्यात्म विद्या की अनुसंधान विधि सम्पूर्णतया वैज्ञानिक है। आधुनिक वैज्ञानिक एवं वैज्ञानिक चिन्तन- चेतना के लिए इसे वैज्ञानिक अध्यात्म कहना ठीक रहेगा। टहलते- टहलते महर्षि रमन ने स्विस मनोचिकित्सक कार्ल गुस्ताव जुंग से कहा- “इस आध्यात्मिक जिज्ञाषा के समाधान के लिये मैंने ‘नेति-नेति विचार’ (ज्ञान-योग contemplation) तथा राज-योग (meditation) की अनुसंधान विधि का चयन किया।”
“ मेरे आध्यात्मिक प्रयोग की वैज्ञानिक जिज्ञासा थी- मैं कौन हूँ ? इसके समाधान के लिए मैंने मनन एवं ध्यान की अनुसन्धान विधि का चयन किया। इसी अरूणाचलम पर्वत की विरूपाक्षी गुफा में शरीर व मन की प्रयोगशाला में मेरे प्रयोग चलते हैं। इन प्रयोगों के परिणाम में अपरिष्कृत अचेतन परिष्कृत होता गया। चेतना की नयी- नयी परतें खुलती गयी। इनका मैंने निश्चित कालक्रम में परीक्षण एवं ऑकलन किया। और अन्त में मैं निष्कर्ष पर पहुँचा, मेरा अहं आत्मा में विलीन हो गया। बाद में आत्मा- परमात्मा से एकाकार हो गयी। “ अहं के आत्मा में स्थानान्तरण ने मनुष्य को भगवान् में रूपान्तरित कर दिया।”
महर्षि रमन के चरणों में बैठकर उन्होंने उच्च आध्यात्मिक जीवन का रहस्य सीखा। जुंग एक सिद्ध साधक के रूप में उभरें व विश्व के यह ज्ञान दिया कि मानव के भीतर असीमित शक्तियाँ छिपी पड़ी है यदि वासनाओं एवं इच्छाओं को रूपान्तरित ( या उद्दातीकरण Sublimation) कर दिया जाए तो मानव जीवन एक अनमोल वरदान बन सकता है ओर मनुष्य निहाल हो सकता है। महर्षि रमन से इस भेंट के बाद वह भारत से वापस लौटे। और फिर इसी वर्ष १९३८ ई. में उन्होंने येले विश्वविद्यालय में अपना व्याख्यान दिया ‘मनोविज्ञान एवं धर्म’। इसमें उनके नवीन दृष्टिकोण का परिचय था। बाद के वर्षों में उन्होंने ‘श्री रमन एण्ड हिज़ मैसेज टु माडर्न मैन’ के प्राक्कथन में अपनी ओर से लिखा- श्री रमन भारत भूमि के सच्चे पुत्र हैं। वह अध्यात्म की वैज्ञानिक अभिव्यक्ति के प्रकाशपूर्ण स्तम्भ हैं और साथ में कुछ अद्भुत भी। उनके जीवन एवं शिक्षा में हमें पवित्रतम् भारत के दर्शन होते हैं, जो समूची मानवता को वैज्ञानिक अध्यात्म के मूलमन्त्र का सन्देश दे रहा है। परन्तु यह हमारा दुर्भाग्य है कि फ्रायड के रूचि के साथ पढ़ते है जानते ओर मानते है परन्तु जुंग के बहुत ही कम लोग जानते है। क्या कहीं जानबूझकर ही तो ऐसे व्यक्तित्वों के समाज में प्रसिद्ध नहीं किया जाता जो भारतीय दर्शन के प्रशंसक रहे हो ?
महर्षि रमन : को अद्वैत ज्ञान का साकार रूप माना जाता है। अधिकांश व्यक्तियों को लक्ष्य की ओर धीमी एवं श्रमसाध्य यात्रा करनी पड़ती है किन्तु कुछ व्यक्ति, समस्त अस्तित्वों के स्रोत – सर्वोच्च आत्मा में निर्विघ्न उड़ने के लिए जन्मजात प्रतिभा लिए पैदा होते हैं । जब कभी ऎसा कोई ऋषि प्रकट होता है तो सामान्यतया मानवजाति उसे अपने हृदय में स्थान देती है। किन्तु जब कभी ऐसी घटना घटित होती है तो उससे समस्त मानव जाति लाभान्वित होती तथा उसके समक्ष आशा का एक नया आयाम खुल जाता है । यद्यपि उनके साथ गति रखना संभव नहीं होता किन्तु उनकी उपस्थिति एवं सान्निध्य में उस आन्नद की अनुभूति होती है जिसके समक्ष सांसारिक सुख नहीं के बराबर होते हैं ।
महर्षि रमन का जन्म ३० दिसम्बर, सन १८७९ में मदुरई, के पास ‘तिरुचुली’ नामक गाँव (तमिलनाडु) में हुआ था। तिरुवन्नमलई, बेंगलुरु से २१० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. जन्म के बाद रमन के माता-पिता ने उनका नाम वेंकटरमन अय्यर रखा था।
१८९२ में, जब उनकी उम्र १३ वर्ष थी, वेंकटरमन के पिता सुंदरम अय्यर अचानक गंभीर रूप से बीमार हो गये और अप्रत्याशित रूप से ४२ वर्ष की उम्र में कई दिनों के बाद उनका निधन हो गया. अपने पिता की मृत्यु के बाद, कुछ घंटे तक वे मृत्यु के रहस्य पर विचार करने लगे, और यह सोचने लगे कि, पिता का शरीर तो अभी भी वहाँ था, किन्तु उनका ‘मैं’ कहाँ चला गया होगा ? मनुष्य , ईश्वर से जो माँगता है, ईश्वर उसे वही देते हैं । ये उनकी कृपा है। परंतु , जो भक्त , ईश्वर को , अपना सर्वस्व दे देते हैं और शरणागति अपना लेते हैं और ईश्वर में दृढ आस्था और विश्वास स्थापित करते हैं, उन्हें ईश्वर, अपना प्रेम प्रदान करते हैं । भक्ति का स्वीकार और ईश्वर की अनुकम्पा का प्रसाद , तभी प्राप्त होता है। और ईश्वर भक्त को सर्वस्व मिल जाता है।
रमन को १७ वर्ष की अवस्था में आध्यात्मिक अनुभव हुआ। एक दिन रमन एकांत में अपने चाचा के घर की पहली मंजिल पर बैठे थे। हमेशा की तरह वें पूर्णतः स्वस्थ थे। अचानक से उन्हें मृत्यु के भय का अनुभव हुआ। उन्होंने महसूस किया कि वे मरने के लिए जा रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा था, वह नहीं जानते थे। लेकिन आने वाली मृत्यु से वे बौखलाए नहीं।
उन्होंने शांतिपूर्वक सोचा कि क्या करना चाहिए। उन्होंने अपने आप से कहा- “अब मृत्यु आ गयी है!” इसका क्या मतलब है? वह क्या है जो मर रहा है? यह शरीर मर जाता है। वह तत्काल लेट गए। अपने हाथ पैरों को सख्त कर लिया और साँस को रोककर होठों को बंद कर लिया। इस समय उनका जैविक शरीर एक शव के समान था। अब क्या होगा? यह शरीर अब मर चुका है। यह अब जला दिया जायेगा और राख में बदल जायेगा। लेकिन शरीर की मृत्यु के साथ क्या मैं भी मर गया हूँ? क्या मैं शरीर हूँ? यह शरीर तो शांत और निष्क्रिय है। लेकिन मैं तो अपनी पूर्ण शक्ति और यहाँ तक कि आवाज को भी महसूस कर पा रहा हूँ। मैं इस शरीर से परे एक आत्मा हूँ। शरीर मर जाता है, पर आत्मा को मृत्यु नहीं छू पाती। मैं अमर आत्मा हूँ।बाद में रमन ने इस अनुभव को अपने भक्तों को सुनाया और बताया कि यह अनुभव तर्क की प्रक्रिया से परे है। उन्होंने सीधे सच को जाना (आत्मसाक्षात्कार द्वारा) और मृत्यु का डर सदा के लिए गायब हो गया।
इस प्रकार युवा वेंकटरमन ने बिना किसी साधना के अपने आप को आध्यात्मिकता के शिखर पर पाया। उनका अहंकार स्वयं जागरूकता की बाढ़ में कहीं खो गया। युवा ऋषि का जीवन अचानक बदल गया। जो वस्तुएँ पहले मूल्यवान थीं, उन्होंने अपना मूल्य खो दिया। अध्ययन, मित्र, रिश्तेदार, परिवार आदि का उनके जीवन में कोई महत्व नहीं रह गया। वह पूरी तरह अपने परिवेश के प्रति उदासीन हो गये। १७ वर्ष की अल्पायु में ही रमन का व्यवहार एक योगी के समान था। विनय, गैर प्रतिरोधकता और अन्य गुण उनके श्रंगार बन गये। उनके सामने बैठने वाले लोगों को विशेष अनुभव होता था। कुछ ने अनुभव किया कि जैसे समय रुक गया है। कुछ ने एक असीम शांति, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, का अनुभव उनकी मुस्कुराती शांत आँखों में देखते हुए किया।
रमन ने १९४५ में उस अवस्था का वर्णन करते हुए एक आगंतुक से कहा था, मुझे यह अनुभव हुआ कि “अहम् स्फुरणा (स्व जागरूकता) शास्वत-चैतन्य है- ‘I am That !’ और जिसे हमलोग शरीर, नाम-रूप या ‘ मैं ’ कहते हैं, वह हमारा यथार्थ मैं नहीं है। इस आत्मचेतना (self-awareness) का कभी क्षय नहीं होता, इसमें कोई विकार नहीं आता, यह शरीर-मन या नाम-रूप से असंबद्ध है, आत्म-प्रदीप्त है।”
समाधी से पुनरुत्थान होने के बाद रमन को पहले-पहल ऐसा लगा उस पर कोई भूत सवार हो गया है, जो उसके शरीर में प्रविष्ट हो गया है, यही भावना हफ्तों बनी रही थी। बाद के जीवन में, उन्होंने अपने मौत के अनुभव को ‘ अक्रम-मुक्ति ‘ (sudden liberation) की संज्ञा दी थी, जो कि ज्ञान-योग के वेदान्त मार्ग से प्राप्त होने वाले ‘क्रम-मुक्ति’ (gradual liberation) के विपरीत है। किसी ब्रह्मज्ञ गुरु से दीक्षा लेकर, उनसे ब्रह्म के नाम-जप के मन्त्र का श्रवण-मनन-निदिध्यासन करने से अंत में जो समाधी प्राप्त होती है, यही मुक्ति-प्राप्त करने का सामान्य और आदर्श मार्ग है। इसको क्रम-मुक्ति [gradual liberation] कहा जाता है। किन्तु ” मैं उपर्युक्त चरणों में से किसी भी चरण से गुजरने से पहले ही, मैं ‘अक्रम-मुक्ति’ (sudden liberation या अकस्मात मुक्ति] से आवेशित हो गया।”
शुद्ध तत्वज्ञान की दृष्टि से ‘मैं’ आत्मज्ञान की तरफ इशारा करता है और आत्मज्ञान कभी होता ही नहीं। ये तो कबीर जैसे अवधूत कह सकते हैं – ‘जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं’ —जब ‘मैं’ था अर्थात जब तक अहं था, तब हरि नहीं, अब हरि है ‘मैं’ नाहिं, मगर सत्य का एक खोजी होने के कारण मैं यह भूल नहीं पाता कि मनुष्य मल्टीसाइकिक है। वह पल-पल में चेहरा बदलता है।’ महर्षि रमन कहते हैं, ‘अपना विश्लेषण स्वयं करो’। काफी सतर्क होकर इस ‘मैं’ नाम वाले विषाणु का पीछा करो।
अपने को थर्ड पर्सन मानकर ‘मैं’ की कारगुजारी का अवलोकन करो। वह दिन जरूर आएगा कि तुम्हारा ‘अहं’ कपूर की तरह उड़ गया होगा और तुम्हें अपने भीतर चिति की आभा झलकती दिखेगी। यह भी लगेगा कि मेरे भीतर कुछ है, जो न कभी जन्मा था और न मरेगा। जैसे-जैसे यह अहसास खरा होता जाता है, आदमी व्यावहारिक जीवन कम तात्विक जिंदगी ज्यादा जीने लगता है।
यूँ , सभी को स्वतंत्रता प्रिय है। फ़िर भी , आत्मा को कर्म के बंधन से मुक्त करना ये कार्य दुसाध्य लगता है – इस ग्रंथि को तोड़ना और विलग होकर, मुक्त होना यही प्रथम , कदम है । उस अवस्था में , व्यक्ति का परिचय या नाम-रूप का अंत हो जाता है और कर्म की अच्छी या बुरी पकड़ से पर की अवस्था ही मुक्ति कहलाती है। जहाँ व्यक्ति के अहम् का नाश हो जाता है। वही अहम् से परम की यात्रा है ।महर्षि रमन के मतानुसार मन के कुविचारों को शुद्ध करने का एकमात्रा मार्ग है आत्मचिंतन। वे हमेशा अपने शिष्यों को आत्मचिंतन के जरिये अपने कुविचारों को शुद्ध करने की सलाह दिया करते थे।
१९४७ में उनके बाएं हाथ की कोहनी में एक गाँठ हो गयी। आश्रम के चिकित्सकों ने इसे काटकर बाहर निकाला, लेकिन एक महीने में यह फिर से हो गयी। जब शल्य क्रिया प्रारंभ करने का समय आया, तब चिकित्सकों ने महर्षि रमन को मूर्च्छावस्था में ले जाना चाहा, जिसे करने से उन्होंने मना कर दिया। उन्होंने कहा- “जिस शरीर पर तुम शल्य क्रिया कर रहे हो, वह मैं नहीं हूँ। मैंने अपने आपको शरीर से अलग कर रखा है और वेदना तो शरीर को होती है।” शल्य क्रिया के बाद भी वह गाँठ ठीक नहीं हो पायी। इसके बाद शल्य चिकित्सकों ने महर्षि का हाथ अलग करने का सुझाव दिया, जिसे उन्होंने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है, यह शरीर नश्वर है और आत्मा स्वाश्वत अमर है। इसलिए इस नश्वर शरीर के लिए दुखी नहीं होना चाहिए। और इस प्रकार महर्षि रमन अपनी जीवन लीला को समेटते हुए २४ अप्रैल १९५० को अंतिम सांस लेकर महासमाधि को उपलब्ध हो गये।