सुप्रभातम्:कर्म का फल तो भुगतना ही पड़ता है

श्रीमद्भगवद्गीता कर्म को प्रधान मानती है, और यह सत्य है कि संसार मे कर्म ही सब कुछ है। कर्म मे ही आपका जीवन है। कर्म के कुछ सिद्धांत हैं जिनका पालन करने से आपके जीवन को दिशा मिलती है। हर सभ्यता और समाज मे समय के अनुसार कर्म के छोटे-बढ़े और अच्छे-बुरे की परिभाषा तय की जाती है। आपकी सोच आपके कर्म की पहली सीढ़ी होती है। संसार का हर मनुष्य सदा सर्वदा कर्म मे ही लीन होता है तथा तदनुसार उसे उसका फल भी मिलता रहता है।

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हिमशिखर धर्म डेस्क

यदि कर्म का फल तुरंत नहीं मिलता तो इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उसके भले-बुरे परिणाम से हम सदा के लिए बच गए। कर्मफल एक ऐसा अमिट तथ्य है कि जो आज नहीं तो कल भोगना पड़ेगा।

कभी-कभी इन परिणामों में देर इसलिए होती है कि ईश्वर मानवीय बुद्धि की परीक्षा करना चाहता है कि व्यक्ति अपने कर्तव्य धर्म को समझ सकने और निष्ठापूर्वक पालन करने लायक विवेक व बुद्धि संचित कर सका है या नहीं। हमारे शास्त्रों में संचित कर्म का उल्लेख किया गया है। इसका मतलब यही है कि किसी व्यक्ति के पूर्व जन्म के कर्मो का फल उसे अगले जीवन में भुगतना होता है। इसीलिए हमारे यहां पुनजर्न्म की संकल्पना को विशेष महत्व दिया गया है।

यदि हमें अपने कर्मो का फल इस जीवन में नहीं मिलता अथवा बुरे कर्मो का फल हमें नहीं भुगतना पड़ता तो इसका मतलब यह नहीं है कि ईश्वर ने अपने क्षमा कर दिया। कार्य और कारण के नियम से न केवल प्रकृति बल्कि जड़ और चेतन जगत जिसमें मानव भी शामिल है, बंधा हुआ है। इससे कोई बच नहीं सकता। भगवान ने मनुष्य को भला या बुरा करने की स्वतंत्रता इसलिए प्रदान की है कि वह अपने विवेक को विकसित करके भले-बुरे का अंतर करना सीखे। तभी वह शोक-संतापों से बचने में और सत्परिणामों का आनंद लेने के लिए स्वत अपना पथ निर्माण कर सकने में सम:र्थ हो सकेगा। ईश्वर चाहता है कि व्यक्ति अपनी स्वतंत्र चेतना का विकास करे और विकास के क्रम से आगे बढ़ता हुआ पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने में सफलता प्राप्त करे। यदि ईश्वर को यह प्रतीत होता कि बुद्धिमान बनाया गया मनुष्य पशुओं जितना मूर्ख ही बना रहेगा तो शायद उसने दंड के बल पर चलाने की व्यवस्था उसके लिए भी सोची होती। तब झूठ बोलते ही जीभ पर छाले पड़ने, चोरी करते ही हाथ में फोड़ा होने, कुविचार आते ही सिरदर्द होने जैसे दंड मिलने की व्यवस्था बनी होती। तब कोई मनुष्य दुष्कर्म करने की हिम्मत नहीं करता, लेकिन ऐसी स्थिति में मनुष्य की स्वतंत्र चेतना, विवेक, बुद्धि और आंतरिक महानता के विकसित होने का अवसर ही नहीं आता। इस प्रकार आत्मविकास के बगैर पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त कर सकने की दिशा में मनुष्य प्रगति कर ही नहीं सकता था।

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