इंसान का जीवन उसके कर्मों के अनुसार पाप और पुण्य के बीच चलता है। जब तक पुण्य कर्म चलता है, तब तक मनुष्य उत्तम जीवन बिताता है, लेकिन जब पाप कर्म आता है तो अकस्मात उसके ऊपर ऐसी विपत्ति आ जाती है मानो ईश्वर किसी घोर दुष्कर्म का दंड दे रहा है। कुछ मनुष्य बुरा से बुरा कर्म करता है, लेकिन वह चैन की बंशी बजाता है। सब प्रकार के सुख-सौभाग्य उसे प्राप्त होते हैं, क्योंकि ये सब पूर्व जन्मों के पुण्य का फल है। एक व्यक्ति स्वल्प परिश्रम में ही बड़ी सफलता प्राप्त कर लेता है, दूसरा घोर प्रयत्न करने और अत्यंत सही तरीका पकड़ने पर भी असफल रहता है यह सब अपने अपने कर्मों का पाप पुण्य का फल है। ये पाप पुण्य कभी भी किसी भी जन्म में मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते है, जिसने जैसा बोया उसको वैसा ही काटना पड़ेगा।
हिमशिखर धर्म डेस्क
आत्मा परमात्मा का ही अंश है। जिस प्रकार जल की धारा किसी पत्थर से टकराकर छोटे छींटों के रूप में बदल जाती है, उसी प्रकार परमात्मा की महान सत्ता अपने क्रीड़ा विनोद के लिए अनेक भागों में विभक्त होकर अगणित जीवों के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं। सृष्टि सञ्चालन का क्रीड़ा कौतुक करने के लिए परमात्मा ने इस संसार की रचना की। वह अकेला था। अकेला रहना उसे अच्छा न लगा, सोचा एक से बहुत हो जाऊँ । उसकी यह इच्छा ही फलवती होकर प्रकृति के रूप में परिणित हो गई। इच्छा की शक्ति महान है। आकाँक्षा अपने अनुरूप – परिस्थितियाँ तथा वस्तुयें एकत्रित कर ही लेती है। विचार ही कार्य रूप में परिणित होते हैं और उन कार्यों की साक्षी देने के लिए पदार्थ सामने आ खड़े होते हैं। परमात्मा की एक से बहुत होने की इच्छा ने ही अपना विस्तार किया तो यह सारी वसुधा बन कर तैयार हो गई।
परमात्मा ने अपने आपको बखेरने का झंझट भरा कार्य इसलिए किया कि बिखरे हुए कणों को फिर एकत्रित होते समय असाधारण आनन्द प्राप्त होता रहे। बिछुड़ने में जो कष्ट है उसकी पूर्ति मिलन के आनन्द से हो जाती है। परमात्मा ने अपने टुकड़ों को अंश, जीवों को बिखेरने का विछोह कार्य इसलिए – किया कि वे जीव परस्पर एकता, प्रेम, सद्भाव, संगठन, सहयोग का जितना जितना प्रयत्न करें उतने आनन्दमग्न होते रहें। प्रेम और आत्मीयता से बढ़कर उल्लास शक्ति का स्रोत और कहीं नहीं है।
यह संसार कर्मफल व्यवस्था के आधार पर चल रहा है और इसीलिए अक्सर कहा जाता है कि जो जैसा बोता है, वह वैसा काटता है। अर्थात हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती ही है और उससे कोई बच नहीं सकता। कर्मफल तत्काल मिले, ऐसी विधि व्यवस्था इस संसार में नहीं है। जिस प्रकार क्रिया और प्रतिक्रिया के बीच कुछ समय का अंतराल रहता है, बीज बोते ही फलों-फूलों से लदा वृक्ष सामने प्रस्तुत नहीं होता, उसके लिए धैर्य रखना होता है, उसी प्रकार से कर्म को फल रूप में बदलने की प्रक्रिया में कुछ समय तो लगता ही है। यदि संसार में तत्काल कर्मफल प्राप्ति की व्यवस्था रही होती तो फिर मानवीय विवेक एवं चेतना की दूरदर्शिता की विशेषता कुंठित एवं अवरुद्ध हो जाती।
कई बार हम सुनते हैं कि किसी नि:संतान दंपति ने अनाथालय से एक बालक को गोद लिया और उसे अच्छी परवरिश देकर पढ़ाया-लिखाया और काबिल बनाया, पर उस बच्चे ने उस दंपति को धोखा देकर उनकी सारी संपत्ति अपने नाम कर ली और उन्हें घर से बाहर निकाल दिया। अब अपनी इस दुर्दशा के लिए वह दंपति किसे दोष दें ? खुद की अच्छाई को ? अथवा उस बालक की बुराई को ? कर्म सिद्धांत के दृष्टिकोण से इसका सही उत्तर है ‘‘इसमें किसी का दोष नहीं है, यह अपने ही किए हुए कर्मों का फल है।’’
अत: हमें भली-भांति समझना चहिए कि कर्म का फल कभी न कभी पकता जरूर है, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में या उससे अगले में। कर्ता को वह फल खाना जरूर पड़ता है।
जब मनुष्य अपने पूर्व जन्मों के कृत्यों से सीख ले ही नहीं सकता तो बार-बार धरती पर जन्म लेने का क्या औचित्य है? अगर किसी व्यक्ति को डाइमेंशिया (याद्दाश्त की कमजोरी) है। जिसके चलते वह अपने परिवार को भूल गया है। इसका अर्थ यह तो नहीं कि वह अब अपने उस परिवार का हिस्सा नहीं है। इसी तरह पिछले जन्मों के कर्म हमेशा आपके अस्तित्व का हिस्सा रहते हैं। जिस तरह आप बैंक में पैसे जमा करने या निकालने के बाद या निकालकर भूल जाते हैं।
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि बैंक डिटेल्स में आपके लेन-देन की जानकारी नहीं रहती। जन्मों की परिभाषा भी ऐसी ही है। हम जन्म लेते हैं। कर्म करते हैं और अगले जन्म में उन पिछले कर्मों को भूल जाते हैं। लेकिन हमारे वही कर्म हमारी आत्मा का हिस्सा होते हैं। जिस तरह कम्प्यूटर की चिप में जानकारी फीड हो जाती है वैसे ही कर्मों की किताब में आपके कर्म जुड़ते जा रहे हैं।
अगर आप अपने नजरअंदाज करने की आदत की वजह से उस चिप का प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं तो ऐसा नहीं है कि उसमें दी गई जानकारी समाप्त हो चुकी है। ऐसे ही अगर आपको अपने कर्म याद नहीं तो इसका अर्थ यह नहीं कि आप अपने पूर्व जन्मों के कर्मों से मुक्त है। कर्म का सिद्धांत यही कहता है कि आको अपने अच्छे-बुरे सभी कर्मों का परिणाम भुगतना पड़ता है।
या तो इस जन्म में या फिर आने वाले जन्मों में। इसलिए अपने पिछले जन्म के कर्मों के परिणाम भुगतने के लिए व्यक्ति को हमेशा तैयार रहना चाहिए। कर्मों के चक्कर में ईश्वर का कोई लेना देना नहीं। हम जैसा करते हैं वैसा भोगते हैं और यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक कि हम अपने पिछले सभी जन्मों के परिणाम भुगत नहीं लेते।