सुप्रभातम्: कर्मफल भोगे बिना छुटकारा नहीं

गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि- ‘तू करता वही  है, जो तू चाहता है, लेकिन होता वही है जो मैं चाहता हूँ। इसलिए तू वही  कर, जो मैं चाहता हूँ, फिर होगा वही, जो तू चाहता है।

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हिमशिखर धर्म डेस्क

मनुष्य जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है। वस्तुत: मनुष्य के द्वारा किया गया कर्म ही प्रारब्ध बनता है। इसे यूं समझें कि किसान जो बीज खेत में बोता है, उसे ही फसल के रूप में वह बाद में काटता है। भगवान श्रीकृष्ण गीता में स्वयं कहते हैं कि कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कर्म किए बगैर नहीं रह सकता है। आज के परिवेश में विचार किए जाने की आवश्यकता यह है कि क्या हम शत-प्रतिक्षण, दिन-प्रतिदिन जो कर्म कर रहे हैं, वह हमें जीवन में ऊंचाई की तरफ ले जा रहे हैं या फिर इस संदर्भ में कहीं लापरवाही हमें नीचे तो नहीं गिरा रही है? हम अच्छे कर्मो के सहारे स्वर्ग में जा सकते हैं और बुरे के द्वारा नरक में। मानव के पास ही प्रभु ने शक्ति प्रदान की है कि अपने अच्छे कर्मो के सहारे वह जीवन नैया को पार लगा सके।

परमात्मा का हिसाब बिल्कुल साफ है। अच्छे कर्मो का फल शुभ व बुरे का फल अशुभ। वह कभी ऐसा जोड़-घटाना नहीं करता है कि अच्छे कर्मो में से बुरे का फल निकालकर फल दे। जो जैसा करता है उसे वैसा ही भोगना पड़ता है। अच्छे फल की प्राप्ति के लिए हम अच्छे कर्मो को करने के लिए प्रतिबद्ध हों तो बात बनती है। हम अच्छे कर्म करते नहीं और अपेक्षा अच्छाई की करते हैं। यदि हम थोड़ा-सा सजग व सेवारत हो जाएं तो बात बनते देर नहीं लगेगी। अच्छे कर्मो से यदि स्वर्ग मिल भी जाए तो उसे स्थाई नहीं समझना चाहिए। स्वर्ग का सुख-ऐश्वर्य भोगने के पश्चात इंद्र जैसे लोगों को भी अच्छे कर्मो के अभाव में पुन: नाना प्रकार की योनियों में भटकना पड़ता है। प्रभु कृपा से जीवन में यदि सत्ता, संपति व सत्कार मिले तो उसे बचाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने अच्छे कर्मो में बढ़ोतरी करें। जीवन के सच्चे मूल्य को समझें। प्रभु प्राप्ति में जो कर्म सहायक हों उन्हें ही करने का प्रयास करें। प्रभु को अपने से ज्यादा उसके बनाए गए नियम प्रिय हैं। जो नियमों में बंधकर जीवन यापन करता है वह लक्ष्य की प्राप्ति नि:संदेह करता है। कर्म को यदि हम पूजा बना लें तो बंधनों से मुक्ति भी संभव है।

मानव जीवन में हर व्यक्ति की तीन कामनाएं ही प्रमुख होती हैं-प्रसिद्धि, धन-प्राप्ति और प्रतिष्ठित पद लेकिन प्रत्येक को अपनी इच्छानुसार सभी मिल जाये, यह आवश्यक नहीं है।

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यहाँ जो भी मिलता है, सब कुछ प्रारब्ध के अनुसार ही मिलता है। रामचरित मानस में गोस्वामीजी लिखते हैं-“सुनहु भरत भावी प्रबल,बिलखि कहेऊ मुनि नाथ। हानि लाभ जीवन मरण ,जस अपजस विधि हाथ।।” जो हो गया वो निश्चित था और अब जो होना है वो आपके हाथ है।

हमारे स्वभाव एवं प्रभाव का सम्बन्ध जीवन के हमारे कार्य कलाप और उसके परिणाम से हैं! कर्म बिना गति संभव नहीं गति का मापदंड काल है, भूतकाल की क्रियाओं का फल वर्तमान में मिलता है। मनुष्य के अच्छे कर्म, पुरुषार्थ – जिजीविषा शुभ समय का प्रतिनिधितत्व करते हैं और भाग्य का प्रतीक भी बनते है!

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मनुष्य का भाग्य पुरुषार्थ से बनता बिगड़ता है। इसका सीधा सम्बन्ध जीवन के यम नियमों नैतिकता और अनुशाशन से है। इन बातों की अवहेलना करने पर ईश्वर कुपित हो जाते हैं और दंड देते हैं। जीवन मे सुख चैन, ख़ुशी आनंद को अदृश्य कर देते हैं और दरिद्रता, दुःख, कष्ट, झंझट, बाधाएँ आदि देकर प्रताड़ित करते हैं। सब कुछ खोकर आत्मानुभूति सन्यास के रूप में परिवर्तित हो जाती है, व्यक्ति क्रोधी, चिडचिडा और हठी हो जाता है। असन्तोष, लिप्सा व्यक्ति को चिडचिडा, चतुर, निडर व् निर्लज्ज बना देते हैं। परिणामस्वरूप मानसिक अस्थिरता, मानहानि, पतन, तथा अर्थ हानि की सम्भावना रहती है और उसे स्वार्थी, शंकालु और हीन भावना से ग्रस्त कर देते हैं।

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