हिमशिखर धर्म डेस्क
काका हरिओम्
पुराणों में ययाति की कथा आती है। वह बूढ़ा हो गया था लेकिन उसकी कामनाएं पूरी नहीं हुई थी। अपनी वासनाओं को पूरा करने के लिए उसने अपने जवान बेटे से उसकी उम्र मांग ली। फिर भी उसकी भोगों से तृप्ति नहीं हुई। बाद में उसे अपनी गलती का एहसास हुआ।
इस कथा का वर्णन करते हुए पुराणों के रचयिता महर्षि व्यास ने टिप्पणी की कि भोगों को भोगने से तृप्ति का अनुभव कभी नहीं होता। बल्कि इनमें तो उत्तरोत्तर वृद्धि होती है बिल्कुल उसी तरह जैसे अग्नि में घृत डालने से वह शान्त नहीं होती, वह भड़कती है और भी ज्यादा।
तो प्रश्न उठता है कि आप हमेशा जवान क्यों रहना चाहते हैं। यदि आपमें आत्मसंयम नहीं है, भोगों के प्रति आकर्षण बना हुआ है, आपका खाना-पीना और आचरण सुव्यवस्थित नहीं है, जिसे आप जवानी कहते हैं, वह जीवन में कभी आती ही नहीं। क्योंकि कुण्ठा, अवसाद, खालीपन आपके उत्साह, स्फूर्ति को सदैव कमजोर किए रहता है। इस प्रकार जवानी का संबंध शरीर से उतना नहीं है, जितना मन से है। जिस दिन आपने मान लिया कि आप बूढ़े हो गए हैं, उसी दिन समझिए जवानी ने आपका साथ छोड़ दिया।
एक विचारक का मानना है कि जिस दिन आपकी जिज्ञासा समाप्त हो गई उस दिन समझिए आपका जीवन रुक गया, आप बूढ़े ही नहीं हुए मानो आप मर गए-मृतप्राय हो गए।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि आपका मस्तिष्क महान आलसी है। जब तक आप इस पर जोर नहीं डालते हैं, तब तक सक्रिय ही नहीं होता है। इसलिए इस पर जोर डालकर रखें। जिस तरह शरीर को स्वस्थ रखने के लिए जरूरी है उसे कसते रहें-कसरत करें, उसी तरह इसको भी नई-नई समस्याओं का सामना करने दें। इससे बड़ी आयु में होने वाली भूलने वाली बीमारी से आप खुद को बचाए रख सकते हैं।
मुझे याद आती है एक सन्त की बात। वह जब किसी ऐसे स्त्री या पुरुष को देखते , जिसने बालों को रंगा होता था, तो चुटकी लेते हुए कहते थे-‘दांत तो नकली लगवा लोगे भाई, लेकिन आंतों का क्या करोगे? उसे कैसे बदलोगे?’
बात समझ आती है, उनका कहना था शरीर के अनुसार अपने खान-पान और आचरण को बदलो। इस उम्र में अपने प्रति सावधान रहने की ज्यादा जरूरत है, क्योंकि जिस तरह शरीर के कमजोर होने पर रोग उठ खड़े होते हैं, उसी तरह मन के निर्बल होते ही कई ऐसी वासनाएं उठ खड़ी होती हैं, जिन्हें पहले किसी कारण दबा दिया गया है। ऐसा होना आपके स्वभाव को बिगाड़ देता है। देखने में आया है कि ऐसे में संतुलन बनाए न रखने से समाज और परिवार में आपकी प्रतिष्ठा भी कभी-कभी गिर जाती है। अपने लोगों की नजर में आप गिर जाते हैं।
आद्य शंकराचार्य ने अपनी एक रचना में कहा है-‘वयसि गते कः कामविकारः’ अर्थात् उम्र ढल जाने के बाद काम की भावना समाप्त हो जाती है। लेकिन देखने में कभी-कभी इसके विपरीत होता है। उससे व्यक्ति पर यह नियम लागू नहीं होता।
मास्टर नत्थासिंह ने अपने गीत में लिखा है-‘जीवन खतम हुआ तो जीने का ढंग आया।’ लेकिन यह प्रश्न आप स्वयं से पूछिए कि सकारात्मक रूप में क्या बदला है ?
एक बात और जो हम अकसर मान बैठते हैं, वह है ‘आदतें पक जाएं तो छूटती नहीं।’ मुझे लगता है ऐसा करके हम उन पर स्वीकृति की मोहर लगाते हैं। क्योंकि बहुत से उदाहरण हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि निरर्थकता का एहसास होते ही, थोड़े से संकल्प के सहारे पुरानी से पुरानी गलत आदतों को छोड़ा जा सकता है।
मैंने आपको तथ्यों की जानकारी देने की कोशिश की है। बुढ़ापे से-मानसिक बुढ़ापे से बचने के सूत्र आप स्वयं इनमें से ढूंढिए। यहीं से शुरू होता है आपका होमवर्क। कीजिए इसे अभी से आज से।