काशी में होली का हुल्लड़ रंगभरी एकादशी से ही आरंभ हो गया है। पहले दिन काशीपुराधिपति भूतभावन शंकर ने काशी के नर-नारियों और देवी-देवताओं संग अबीर-गुलाल की होली खेली। उसके अगले दिन ही महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर बाबा विश्वनाथ ने अपने गणों, भूत-प्रेत, पिचास संग जलती चिता भस्म संग होली खेली।
वाराणसी
खेलैं मसाने में होरी दिगम्बर, खेले मसाने में होरी… जाने-माने शास्त्रीय गायक पंडित छन्नूलाल मिश्रा की ये पंक्तियां श्मशान के यथार्थ को बयां कर रही है। होली यूं तों रंगबिरंगे रंगों का त्यौहार है। लेकिन भगवान शंकर के बारे में कहा जाता है कि उनकी होली श्मशान में होती है। यह अपने आप में अनूठी होली है जो जीवन के जन्म-मरण के शाश्वत सत्य से रूबरू कराती है।
तीनों लोक से न्यारी ये काशी ही है जहां बहुत कुछ विलक्षण होता है। आखिरकार भूतभावन शंकर यानी बाबा विश्वनाथ की नगरी जो ठहरी। अपनी इस नगरी में बाबा विश्वनाथ ने जहां रंगभरी एकादशी को काशीवासियों संग अबीर-गुलाल संग होली खेली तो अगले दिन महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर अपने प्रिय गणों, भूत-प्रेत, पिचास, गंधर्वों संग जलती चिताओं के बीच चिता भस्म की होली खेली। ये दुनिया का सबसे चकित करने वाला पर्व है। ऐसा दुनिया के किसी कोने में नहीं होता। इसे देखने के लिए इस दिन को दूर-दूर से लोग काशी पहुंचते हैं।
मणिकर्णिका में हुआ देवी सती का अग्नि संस्कार
मोक्ष नगरी काशी के मणिकर्णिका घाट पर महाकाल भगवान शिव स्वयं विराजमान रहते हैं। मान्यता है कि भगवान शंकर ने मणिकर्णिका घाट में देवी सती के पार्थिव शरीर का अग्नि संस्कार किया था, जिस कारण इसे महाश्मशान कहते हैं। जहां चिता की अग्नि कभी नहीं बुझती। एक चिता के बुझने से पहले ही दूसरी चिता में आग लगा दी जाती है। वह मृत्यु की लौ है, जो कभी नहीं बुझती, जीवन की हर ज्योति अंततः उसी लौ में समाहित हो जाती है। शिव संहार के देवता हैं, तो इसीलिए मणिकर्णिका की ज्योति शिव की ज्योति जैसी ही है, जिससे अंततः सभी को समाहित हो ही जाना है।
महादेव की अनोखी होली
होली की चर्चा हो और काशी की कहानी कानों में रस न घोले तो यह कैसे हो सकता है। काशी के मणिकर्णिका के महाश्मशान में शिव होली खेलते हैं। श्मशान में होली खेलने का अर्थ समझते हैं? इस मृत्यु लोक में सभी मानव सबसे अधिक मौत से डरता है। उसके हर भय का अंतिम कारण अपनी या अपनों की मृत्यु भय होती है। श्मशान में होली खेलने का अर्थ है उस भय से मुक्ति पा लेना। शिव किसी शरीर मात्र का नाम नहीं है, जब व्यक्ति मृत्यु की पीड़ा, भय या अवसाद से मुक्त हो जाता है, तो शिवत्व प्राप्त कर लेता है। शिव होने का अर्थ है वैराग्य के उस अंतिम चरण पर पहुंच जाना जब किसी की मृत्यु कष्ट न दे, बल्कि उसे भी जीवन का एक आवश्यक हिस्सा मान कर उसे पर्व की तरह खुशी-खुशी मनाया जाए। शिव जब शरीर पर भभूत लपेट कर नाच उठते हैं, तो समस्त भौतिक गुणों-अवगुणों से मुक्त दिखते हैं। यही शिवत्व है।
शिव हैं वैरागी
शिव जब अपने कंधे पर देवी सती का शव लेकर नाच रहे थे, तब वे मोह के चरम पर थे। वे शिव थे, फिर भी शव के मोह में बंध गए थे। मोह बड़ा प्रबल होता है, किसी को नहीं छोड़ता। सामान्य जन भी विपरीत परिस्थितियों में या अपनों की मृत्यु के समय यूं ही तड़पते हैं। शिव शिव थे, वे रुके तो उसी प्रिय पत्नी की चिता भस्म से होली खेल कर युगों युगों के लिए वैरागी हो गए। मोह के चरम पर ही वैराग्य उभरता है। पर मनुष्य इस मोह से नहीं निकल पाता, वह एक मोह से छूटता है तो दूसरे के फंदे में फंस जाता है। शायद यही मोह मनुष्य को शिवत्व प्राप्त नहीं होने देता।
शिव के त्रिशूल पर विराजमान है काशी नगरी
भगवान शिव के त्रिशूल पर विराजमान है समूची काशी नगरी। मान्यता है कि काशी भगवान शिव के त्रिशूल पर टिकी है। वे जटा में जहां मां गंगा को धारण करते हैं, वहीं अपने त्रिशूल पर काशी को स्थान देते हैं। शायद इसी कारण काशी एक अलग प्रकार की वैरागी ठसक के साथ जीती है। युगों-युगों से गंगा के इस पावन तट पर मुक्ति की आशा लेकर देश विदेश से आने वाले लोग वस्तुतः शिव की अखण्ड ज्योति में समाहित होने ही आते हैं। फागुन में काशी का कण-कण फाग गाने लगता है। सच यही है कि शिव के साथ-साथ हर जीव संसार के इस महाश्मशान में होली खेल रहा है। तब तक, जब तक उस मणिकर्णिका की ज्योति में समाहित नहीं हो जाता। संसार श्मशान ही तो है।