स्वच्छता का महाअभियान: अन्तः करण और स्वच्छता का संचार

प्रो. ओ.पी. सिंह

Uttarakhand

निदेशक, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ वाराणसी


मनुष्य और परिवार सभी के सम्बन्धों का मूल कौन? इसका सहज उत्तर है मनुष्य। लेकिन मनुष्य का अर्थ क्या। यह प्रश्न बालि की मृत्यु उसकी पत्नी तारा से भगवान श्रीराम ने किया था। बालि की मृत्यु पर से भगवान श्रीराम ने कहा था कि-

”मृतक सो तन आगे यह सोवा।

जीव नित्य तुम केहिलागे सेवा।। (रामचरितमानस)

अर्थात मृत शरीर तुम्हारे आगे है। नित्य है फिर रुदन क्यों? मृत शरीर में अन्तः करण या आभ्यन्तर संचार नहीं होता है। इस कारण मृत शरीर सिर्फ शरीर  न कि मनुष्य।

इससे यह स्पष्ट है कि मनुष्य सिर्फ शरीर मात्र नहीं है। वरन् मनुष्य के दो भाग हैं। एक है शरीर और दूसरा आत्मा आधारित चेतना। आत्मा का आधार शरीर है। शरीर विहीन जीव का संभव है, लेकिन वह क्रियाशील नहीं हो सकता। इसी कारण भगवान श्रीकृष्ण के कहने पर ब्रज की गोपिकाओं से श्रीकृष्ण के निर्गुण ब्रह्म स्वरूप का ऊधव जी ने वर्णन किया तो गोपिकाओं का प्रश्न ऊधव जी से था कि, आपके निर्गुण ब्रह्म, न तो हमारी गाय दुह सकते हैं, न तो वंशी बजा सकते हैं, न तो थिरककर नाचकर महारास ही नचा सकते हैं। इतना ही नहीं अगर फिर भी इन्द्र का प्रकोप हुआ तो गोवर्धन भी नहीं उठा सकते हैं। फिर निर्गुण ब्रह्म हमारे किस काम के हैं? इस आत्मा एवं ब्रह्म का निर्गुण रूप कुछ एक जैसा है, परन्तु भिन्न है। यह भिन्नता उसी प्रकार की है जैसे चुल्हा, मोटर गाड़ी से निकला धुंआ विकृत होता है।

परन्तु यज्ञ कुंड का धुंआ पवित्र एवं प्रकृति रक्षक होता है। ठीक उसी प्रकार आत्मा वास्तव में विराट चेतना अथवा पुरुष/ईश्वर का वैकृत रूप ही है। लेकिन इसी आत्मा मनुष्य के शरीर में स्थित अन्तः करण और शरीर रूपी बाह्यकरण से मनुष्य का प्रकटीकरण हाेता है। इस प्रकार मनुष्य अंतःकरण रूपी आत्म तत्व, बाह्यकरण रूपी इंद्रियों का शरीर है।

इसे हम चेतना शरीर या मनुष्य कहते हैं। इसी चेतन शरीर से ही लोक, परलोक परिवार एवं ईश्वर से संबंध स्थापित होता है। इसी कारण संसार की समस्त क्रिया एवं व्यवहार का आधार होता चेतन मनुष्य। अथवा मनुष्य की चेतना धर्म में होने वाला संचार है। इस चेतन मनुष्य श्री की चर्चा हम आगे करेंगे।

अंतः करण और मानव संचार : मानव शरीर में आत्म तत्व को चेतन अथवा अन्तः करण के रूप में पहचानते हैं। यह चेतना अथवा अन्त:करण आत्मा नहीं वरन् आत्मा से प्रकट क्रिया अथवा व्यवहार है। यह उसी प्रकार है जैसे बिजली के तारों में प्रवाहित एवं अदृश्य बिजली का प्रकट रूप बल्व में प्रकाश के रूप में हमें मिलता है। इसी प्रकार की क्रिया आत्मा के द्वारा शरीर में होती है।

अन्तः करण वास्तव में शरीर में आधारित आत्मा का चेतन व्यवहार है। इसमें मन, बुद्धि एवं अहंकार के तत्व हैं। शरीर में इनके केन्द्र भी हैं। अहंकार का आधार नाभि एवं यहां स्थित स्वर का वह स्वरूप पश्यन्ती है। यहां बोध रूप-रंग रहित स्वप्न जैसा होता है। बुद्धि का आधार हृदय है। यहां स्थिर स्वर का स्वरूप मध्यमा है। इसमें रूप, रंग आदि स्पष्ट होते हैं। इसी बिम्ब के आधार पर उच्चारण होता है। मन का आधार कंठ एवं ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय व संयोग होता है। लेकिन यहां स्वर का स्वरूप उच्चारित एवं प्रकट रूप में होता है। इस वाणी का वैखरी नाम है। यही स्वर, अक्षर एवं संकेत में प्रकट होती है। कर्मेन्द्रियों का संचालन ज्ञानेन्द्रियों सहित अन्तःकरण से होता है। अन्त:करण की शक्ति धर्मधारिणी देवी है। इसका उल्लेख श्रीदुर्गासप्तशती में इस प्रकार है-‘अहंकार मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी।।’

अर्थात् मन, बुद्धि एवं अहंकार आदि शक्ति के धर्मधारिणी स्वरूप द्वारा रक्षित है। इस प्रकार अंत:करण का संचालक मन, बुद्धि एवं अहंकार धर्म पर नियंत्रित होने पर पर्यावरण की स्वतः रक्षा एवं हित एवं अदृश्य स्वच्छता होगी। यही स्वच्छता का आभ्यन्तर संचार है।

ज्ञानेन्द्रिय से प्राप्त सूचना को कर्मेन्द्रियां अंतःकरण के अनुरूप ही प्रकट करती हैं अथवा क्रिया रूप में बदलती हैं। इसी कारण अंत:करण पर विचार करना आवश्यक है। क्योंकि अन्तः करण पर जिसका नियंत्रण नहीं है, वह इन्द्रियों का दास अथवा शुचिता युक्त नहीं होता। इसी कारण यह सत्य है कि प्रत्येक शब्द या वस्तु सभी पर एक जैसा प्रभाव नहीं छोड़ते हैं। जैसे महर्षि वाल्मीकि को ही ले लें। उनके विषय में सी बिम्ब के गोस्वामी तुलसीदास जी ने होता है। रामचरितमानस में लिखा है-

“उलटा नाम जपत जग जाना, वाल्मीकि भय ब्रहा समाना।” (श्रीरामचरित मानस)

अर्थात् राम की जगह मरा, मरा जपा और ब्रह्म समान हुए। इसका अभिप्राय है कि लौकिक मनुष्य राम, राम जपता है परन्तु उसके हृदय में श्रीराम की आभा नहीं विराजती। लेकिन महर्षि वाल्मीकि ने मरा-मरा जपा और इस जप से उनके हृदय में श्रीराम की आभा अंकित हुई और श्रीराम तत्व की प्राप्ति हुई। इस कारण यह स्पष्ट है कि जप में शब्द नहीं वरन् शब्द से उत्पन्न अन्तः करण की छवि है। उस अन्तः करण में खोने पर राम मिलते हैं अन्यथा नहीं। इसी कारण लोक एवं परलोक दोनों अन्तःकरण पर निर्भर है। इसी क्रम में हम स्वच्छता की ओर बढ़ते हैं। अब हम अन्त:करण से उत्पन्न स्वच्छता पर विचार करेंगे।

अन्तःकरण और स्वच्छता- अन्तःकरण और स्वच्छता का सम्बन्ध आप को अस्वाभाविक लग सकता है। लेकिन स्वच्छता वास्तव में अन्त:करण की ही उत्पत्ति अथवा अन्तःकरण पर ही टिकी है। इसे हम संत सूरदास के इस पद से समझ सकते हैं-

“तजौ मन हरि विमुखनि को संग।

जाके संग कुमति उपजत हैं, परत भजन में भंग।

कागहि कहा कपूर चुगाये, स्वान नहाये गंग।

रवर को कहा अरगजा लेपन, मरकट भूषण अंग।

पाहन पतित बान नहीं भेदत, रीतो करत निषंग।

संत सूरदास जी ने अन्तःकरण की पवित्रता और बाह्य स्वच्छता को एक साथ रख दिया है। संत सूरदास जी ने मन से कहा-तजो मन हरिविमुखन को संग। यह मन अन्तःकरण का भाग है। अन्तःकरण से सूरदास हरि अर्थात् भगवान से दूर रहने से मन की दूरी बनाना चाहते हैं। लेकिन उन्होंने इस दूरी में जो पवित्रता है, उसी को बचाना चाहते हैं। इसी कारण बाह्य दोषों का उदाहरण दिया कि अध्या हरिविमुख अथवा दुर्जन मुख्यतः किस स्वभाव के होते हैं? अर्थात् गंदगी कितने प्रकार की है और यह गंदगी कैसे लोक मात्र व्यवहार में है? इसी लोक व्यवहार की गंदगी का समापन करके हमें लोक एवं और जनमानस को स्वच्छ बनाना है।

सूरदास जी कहते हैं कि कौए को अगर आप अगर कपूर खिला दें तब भी वह गंदगी का आहार करेगा ही। इस प्रकार कौआ अथवा काग काला होने से दुर्जन का प्रतीक है साथ ही गंदगी प्रिय भी है। फिर सूरदास जी कहते हैं कि के कुत्ते को मां गंगा में स्नान कराने से क्या फायदा, वह तो गंदगी खाएगा ही। यहां कुत्ते के साथ गंदगी खाना भी कुत्ते का एक स्वाभाविक व्यवहार है। इसी प्रकार गधा मंद बुद्धि का प्रतीक है। गधे को अगर चंदन का भी लेप लगा दें तो भी वह धूल में लेटेगा ही। इतना ही नहीं बन्दर को स्वर्ण आभूषण भले ही पहना दें परन्तु वह उसे नष्ट करेगा।

अन्त में उन्होंने कहा कि काले कम्बल पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता है। अर्थात् गंदगी प्रिय व्यक्ति को गन्दगी में ही सुख मिलता है। क्योंकि उसका अन्तः करण के संचार में गंदगी का भाव भरा है। ऊपर लिखे पद में सूरदास ने कौआ, कुत्ता, गधा, बंदर, काले कम्बल को हरिविमुख अथवा निकृष्ट, गंदगी प्रिय माना। इन प्रवृत्तिओं से मन को सचेत किया। अन्तः एवं बाह्य स्वच्छता के लिए कौआ, कुत्ता, गधा, बंदर का व्यवहार त्यागना होगा।

इसके लिए अन्तः करण में जब तक अध्यात्म और स्वच्छता के चिंतन का अंकुरण नहीं होगा, तब तक बाहर की स्वच्छता फोटो खिंचाने अथवा दिखावा से लोक मात्र रहेगी। तब तक हमारे मन में बाहर की अस्वच्छता के प्रति घृणा नहीं पैदा होगी और न तो स्वच्छता का व्यवहार ही पैदा होगा। इसी कारण स्वच्छता के लिए सिर्फ कार्य एवं अभियान की ही जरूरत नहीं है वरन् स्वच्छता के लिए अन्तःकरण या आभ्यन्तर संचार में चेतना का जागरण का प्रतीक होना जरूरी है।

भगीरथ के अन्तः करण में कपिलमुनि के त्रिनेत्र से भष्म पुरखों की राख से पृथ्वी की गंदगी की मुक्ति एवं पुरखों की मुक्ति के लिए विचार जगा और तभी उन्होंने कठोर तप कर पृथ्वी पर मां गंगा को लाया। यही भगीरथ जैसा संकल्प और व्रत अगर हमें स्वच्छता के लिए अन्त:करण के संकल्प के साथ करना होगा।

इसी भगीरथ जैसे आभ्यन्तर संचार और अन्तः के स्वच्छ भाव से स्वत: ही मानव जीवन में स्वच्छता होगी और यह जीवन का अंग होगा। हम अपने घर को भगवान का मंदिर मानकर हमेशा स्वच्छ रखें। ईश्वर का निवास सर्वत्र है। इस भाव से सर्वत्र ईश्वर का दर्शन करते हुए सर्वत्र स्वच्छ रखें।

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