हिमशिखर धर्म डेस्क
शुद्धि के बिना सिद्धि संभव नहीं है। तभी तो हमारे दैनिक जीवन में स्वच्छता का विशेष महत्व है। साधना की पहली सीढ़ी है-शुद्धि। यानी यम और नियम का पालन करना। जीवन में जितनी पवित्रता होती है, जीवन का उत्कर्ष भी उतना ही होता है।
शुद्धि से तात्पर्य मात्र शरीर का नहीं है, बल्कि मन, प्राण और भाव विचार के साथ-साथ हमारा अंतः करण भी निर्मल होना चाहिए। शुद्धि का प्रारंभ समता से होता है। इसके माध्यम से व्यक्ति धीरे-धीरे अज्ञान व अंधकार के आवरण से पार पाता है। इस शुद्धि के फलस्वरूप मन की शांति, चित्त की स्थिरता और प्राण की एकाग्रता व हृदय की तन्मयता का प्रादुर्भाव स्वभावतः होने लगता है। शुद्धि से आत्मा का विभिन्न वासनाओं और आकर्षणों से मुक्त होती है। सिद्धि प्राप्ति से पहले की प्रारंभिक अवस्था शुद्धि है।
शुद्ध भावों वाला व्यक्ति ही परमात्मा को प्रिय होता है। उसके पूजन-अर्चन व प्रार्थना में शुचिता यानी पवित्रता का विशेष महत्व है। आचार विचार के साथ-साथ जीवन के अन्य क्षेत्रों जैसे व्यापार में पैसे के लेन-देन और नौकरी आदि में ईमानदारी व कर्तव्य के प्रति निष्ठावान बने रहना भी पवित्रता की ही श्रेणी में आता है। व्यक्ति चाहे किसी भी क्षेत्र में कार्यरत हो, वह वहाँ रहते हुए भी पवित्रता का ध्यान रख सकता है। पवित्रता को नित्य प्रतिदिन की दैनिक चर्या में रखकर हम अपना बौद्धिक स्तर तो उत्तम बना ही सकते हैं। साथ ही स्वयं सुखी रखते हुए अन्य लोगों को भी इस राह पर अग्रसर कर सकते हैं।
पवित्रता जीवन का मूल आधार है। आज समाज में जो नैतिक पतन हो रहा है, उसका एक खास कारण शुचिता की ओर ध्यान नहीं दिया जाना है। व्यक्ति जैसे ही पवित्रता की तरफ कदम बढ़ाता है, उसकी सोच में निखार आता है। उसकी भौतिक प्रगति के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति भी होती है। अन्य लोग भी ऐसे व्यक्ति के प्रति श्रद्धा व आस्था का भाव रखने लगते हैं। जो भी महापुरुष इस देश में हुए हैं, उन्होंने साधना के संदर्भ में पवित्रता को विशेष महत्व दिया है। वे ही हमारे प्राचीन व आधुनिक भारत के प्रेरणास्त्रोत बने। सच तो यह है कि पवित्रता का ध्यान रखें बगैर मानव कल्याण संभव नहीं है।